राज्यपालों को पता होनी चाहिए अपनी सीमारेखा, जब भी वे इसे लांघेंगे तो अदालत करेगी हस्तक्षेप
जब भी राज्यपाल यह बात भूलेंगे कि वे कोई राजनीतिक द्वारपाल नहीं, सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सिद्धांत की फिर से पुष्टि की है- भारत का लोकतंत्र इसके राज्यपालों से नहीं, बल्कि इसकी विधायिकाओं से चलता है।

एक अहम और बिल्कुल साफ फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने देश के राज्यपालों को इस बुनियादी बात की याद दिलाई है कि वे राजनीतिक ‘द्वारपाल’ नहीं हैं। वे संवैधानिक पदाधिकारी हैं और जब वे यह बात भूल जाएंगे तो अदालत हस्तक्षेप करेगा, जैसा कि उसने (तमिलनाडु सरकार बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल) मामले में किया।
इस मामले के केंद्र में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि हैं, जिनका कार्यकाल राजनीतिक टकराव, संवैधानिक अस्थिरता और लोकतांत्रिक मानदंडों की घोर उपेक्षा से भरा रहा है। यह कोई पक्षपातपूर्ण बयान नहीं- तथ्य इसी बात की पुष्टि करते हैं।
बाधा डालने का पैटर्न
आर.एन. रवि ने तमिलनाडु में निर्वाचित सरकार को नजरअंदाज करने की आदत बना ली थी। उन्होंने विधानसभा में राज्य सरकार द्वारा तैयार पूरे भाषण को पढ़ने से इनकार कर दिया। तमिलनाडु के मतदाताओं द्वारा समर्थित नीतिगत दृष्टिकोण यानी द्रविड़ मॉडल को ‘राष्ट्र विरोधी’ करार देते हुए खारिज कर दिया। और इससे भी ज्यादा दिक्कत की बात यह है कि वह बिलों को बिना कोई कारण बताए महीनों, यहां तक कि सालों तक दबाए बैठे रहे।
ऐसे ही एक बिल को ऑनलाइन गेमिंग को रेगुलेट करने के लिए लाया गया था जिसपर कथित तौर पर खुद रवि भी सहमत थे। लेकिन जब इसे विधानसभा द्वारा दोबारा पास कर उनके पास भेजा गया तो उन्होंने उसे मंजूरी देने की जगह इसे राष्ट्रपति को भेज दिया। ऐसा करने का उद्देश्य बिल को लटकाने के अलावा कुछ भी नहीं हो सकता। इसे संवैधानिक बाने में सियासी चाल ही कहा जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का दखल
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में साफ किया कि राज्यपालों को निर्वाचित सरकारों की इच्छा को रोकने के लिए अपने कदम पीछे खींचने की इजाजत नहीं है। संविधान उन्हें पुनर्विचार के लिए एक बार विधेयक वापस करने या राष्ट्रपति को भेज देने की अनुमति देता है। बस इतना ही। संविधान इस बात की कतई इजाजत नहीं देता कि उसे अपनी निष्क्रियता से अनिश्चितकाल के लिए झुला दें।
अदालती फैसले के आलोचकों का दावा है कि न्यायालय ने खास तौर पर समयसीमा पर जोर देकर अपनी सीमा लांघी है। हालांकि इसमें नया कुछ भी नहीं। ‘उचित समय’ का सिद्धांत संविधान में निहित है। जो काम हफ्तों में हो जाना चाहिए, उसे करने में राज्यपाल सालों नहीं लगा सकते। शासन में देरी करना संवैधानिक अधिकार नहीं; यह कर्तव्य की उपेक्षा है।
दूसरों का दावा है कि इससे राष्ट्रपति की शक्तियां कमजोर होती हैं। यह गलत नजरिया है। दरअसल, अदालत का फैसला राज्यों और केंद्र को बेहतर संवैधानिक तालमेल में लाता है। जब संसद किसी विधेयक को दोबारा पारित करती है, तो राष्ट्रपति को उसे मंज़ूरी देनी होती है।
यही बात राज्यों पर भी लागू होती है; जो राज्यपाल सत्तारूढ़ पार्टी को पसंद नहीं करते, उनके पास कोई विशेष वीटो शक्ति नहीं होती। और जो अनुच्छेद 142 के इस्तेमाल से परेशान हैं? वे मुद्दे को समझ नहीं पा रहे। जब कोई संवैधानिक पदाधिकारी अपना काम नहीं करता है तो अदालत का दायित्व है कि वह हस्तक्षेप करे। अनुच्छेद 142 न्यायिक अतिक्रमण नहीं बल्कि यह एक संवैधानिक ‘सुरक्षा जाल’ है।
अन्य राज्यपालों को संकेत
आर.एन. रवि भले इस मामले के केंद्र में हों, लेकिन इस फैसले के संदेश दूर तक जाते हैं। केरल, पंजाब और अन्य जगहों के राज्यपालों को ध्यान रखना चाहिए: संवैधानिक पद पर पक्षपातपूर्ण रुख अपनाने की कोई गुंजाइश नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सिद्धांत की फिर से पुष्टि की है- भारत का लोकतंत्र इसके राज्यपालों से नहीं, बल्कि इसकी विधायिकाओं से चलता है। जब अनिर्वाचित अधिकारी निर्वाचित सरकारों के रास्ते में खड़े होते हैं, तो वे संघवाद की मूल भावना के साथ विश्वासघात करते हैं।
जड़ की बात
यह किसी एक राज्यपाल या किसी एक पार्टी के बारे में नहीं है। यह उस व्यवस्था में संतुलन बहाल करने के बारे में है जो संवैधानिक बाने में राजनीतिक नियुक्तियों के पक्ष में बुरी तरह झुक गई है। सुप्रीम कोर्ट ने रेखा खींच दी है। रवि ने इसे पार किया तो कोर्ट ने उन्हें वापस पीछे धकेल दिया। यह लोकतंत्र के लिए बेहतर है।
( संजय हेगड़े सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।)
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