ट्रंप की नोबेल खामख्याली की राह में ग्रेटा थन्बर्ग !

सितंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि वह बहुत सी चीजों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार पाने के हकदार हैं। कहना न होगा कि ट्रंप का यह बयान उस वक्त आया है जब वह अंतरराष्ट्रीय ही नहीं बल्कि घरेलू मोर्चे पर भी कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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नागेन्द्र

जिस किसी ने भी वह वीडियो देखा होगा जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप यजीदी मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील नादिया मुराद से बात कर रहे हैं, तो उन्हें उसमें बहुत कुछ दिखाई-सुनाई दिया होगा। बहुत कुछ याद भी होगा। न भी याद रहा हो, तो अभी हाल के संदर्भों में उस वीडियो में चल रहे संवाद की याद जरूर आई होगी। वीडियो में नादिया विश्व के इस सबसे ताकतवर कहे जाने वाले देश के ‘ताकतवर’ राष्ट्रपति से उनके ओवल स्थित दफ्तर में उस पीड़ा का बयान कर रही हैं, जब उन्हें इराक में आइएसआइएस ने बंधक बना लिया था और किसी तरह वह वहां से बच निकली थीं।

नादिया को इराक की अशांति के दौरान बंधक बनाया गया था। लंबे समय तक शारीरिक शोषण की शिकार बनीं महिलाओं के साथ खुलकर खड़े होने और उनके संघर्ष में उनका साथ देने के लिए पूरे विश्व ने उन्हें याद किया और उन्हें 2018 का नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला। भावनाओं के समंदर में डूबती-उतरती नादिया जब इराकी महिलाओं के यौन शोषण, उन पर होने वाले जुल्म की दास्तां सुना चुकी थीं, तो बड़े निर्विकार भाव से यह सब सुन रहे ट्रंप ने उतने ही निर्विकार भाव से पूछा- ‘तो उन्होंने आपको नोबेल पुरस्कार दे दि या! ...उन्होंने आपको यह पुरस्कार किसलिए दि या? (दे गेव यू द नोबेल प्राइज! ...दे गेव इट टु यू फॉर व्हाट रीजन?)।’ काफी ‘टीस’ थी उनके इन शब्दों में... वो जिसे कहते हैं न ‘फ्रॉम द कोर ऑफ द बॉटम ऑफ द हार्ट!’

नादिया मुराद को यह सम्मान युद्ध और सशस्त्र संघर्ष के दौरान यौन हिंसा का हथियार के रूप में इस्तेमाल खत्म कराने में सफलता के लिए मिला था, जिसकी पूरे विश्व ने सराहना की थी। इसके ठीक नौ साल पहले जब 2009 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा को ‘लोगों के बीच वैश्विक स्तर पर कूटनीति और सहयोग के असाधारण प्रयासों’ के लिए नोबेल से सम्मानित किया गया, उस वक्त ट्रंप की ‘कैसी’ प्रतिक्रिया थी, थी भी या नहीं, इसका तो ढंढूने से भी पता नहीं चला, लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद गाहे-बगाहे उनके अंदर की वह ‘नोबेल टीस’ उभरती दिखाई देती रही है।

यह टीस अभी सार्वजनिक रूप से उस मंच पर भी दिखाई दे गई, जिस पर पूरे विश्व की नजर थी। जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच अपने ही तरह की कूटचाल में उलझे ट्रंप अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सवालों के जवाब में यह कहने से नहीं झिझके कि उनके पूर्ववर्ती बराक ओबामा को नोबेल पुरस्कार क्यों मि ला, यह बात न तो वह समझ पाए और न ही खुद बराक ओबामा, कि उन्हें यह क्यों दिया गया?


श्रीमान ट्रंप की यह नोबेल टीस पहली बार नहीं उभरी है। सच तो यह है कि राष्ट्रपति बनने के बाद से ही वह इस खामख्याली में डूबते-उतरते रहे हैं! दिसंबर, 2016 में राष्ट्रपति बनने के कुछ दिन बाद ही वह यह जाहिर करने से नहीं चूके थे कि नोबेल का ख्वाब कहीं तो चल रहा है। अभी पिछले साल मई में जब उनसे पूछा गया कि क्या वह स्वयं को नोबेल के लायक समझते हैं, तो उनका जवाब था, ‘मैं क्या , हर कोई ऐसा सोचता है’, लेकिन ‘मैं खुद ऐसा नहीं कहूंगा!’ लेकिन कहते हैं न कि महत्वाकांक्षाएं छुपाए नहीं छुपतीं, सो इस साल फरवरी में उनके सामने फिर वही सवाल आया, तो वह कहने से नहीं चूके कि, ‘ओबामा को तो सत्ता में आने के कुछ ही दिन बाद जाने क्यों दे दिया गया...लेकिन मेरे साथ... मुझे नहीं लगता कि यह मुझे कभी मिलेगा।’

इस बयान की ‘पूर्णाहुति ’ हाल के (सितंबर, 2019) उस बयान या कह लें कि उनकी कुंठा में देखी जा सकती है, जब वह कहते दिखाई देते हैं कि, ‘बहुत सी चीजों’ के लिए नोबेल शांति पुरस्कार का हकदार हूं, लेकिन ‘यह’ निष्पक्ष नहीं है...मुझे लगता है कि मुझे तो बहुत सारी चीजों के लिए नोबेल मिलने जा रहा है, अगर वे (नोबेल कमेटी) इसे निष्पक्ष तरीके से दें तो, लेकिन ऐसा होगा नहीं।’

कहना न होगा कि ट्रंप का यह बयान उस वक्त आया है जब वह अंतरराष्ट्रीय ही नहीं बल्कि घरेलू मोर्चे पर भी कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं। एक तरफ उनकी महत्वाकांक्षाएं कुलांचे मार रही हैं, दूसरी ओर घर में महाभियोग की तैयारी चालू है। भारत ने खामखा कश्मीर पर मध्यस्थता के उनके इरादे को दो-टूक ठुकरा कर उनकी खामख्याली पर पानी फेरा है, तो ‘अगली बार’ के लिए उनके खिलाफ जैसी लामबंदी दिख रही है...उसमें तो यही ज्यादा दिखता है कि ‘अगली बार अमेरिका में कोई और सरकार’।

दरअसल ट्रंप का यह नोबेल राग इसी हताशा में और परवान चढ़ा है। कसक तो पहले से थी, भारत की ओर से मिले ‘प्यार भरे बोल’ से इसे और बल मिला। नरेंद्र मोदी जिस तरह उन्हें दोस्त बताते हैं या बताते रहे हैं उसमें यह गलतफहमी बढ़नी ही थी। हालांकि ताजा यात्रा में न्यूयार्क में भारतीय समुदाय के समक्ष हाथ में हाथ डालकर स्टेडियम में घुमाने और ‘अगली बार फिर ट्रंप सरकार’ के ‘साहसिक’ कारनामे के बावजूद अगले ही कुछ घंटों में डेमोक्रेट प्रत्याशी तुलसी गबार्ड और नरेंद्र मोदी की मुलाकात ने उस ‘गलतफहमी’ को भी किसी हद तक दूर जरूर कर दिया होगा।


ट्रंप जिस तरह नोबेल के लिए परेशान दिख रहे हैं, उसमें एक बच्चे के माफिक किसी बड़े और कीमती खिलौने के लिए अधीरी की हद तक भूख दिखाई दी है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘पिता’ सरीखा संबोधन उनकी इसी बेचैनी का सार्वजनिक स्वीकार है। लेकिन इस सार्वजनिक स्वीकार में ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को ‘ग्रेट लीडर’ कहकर संबोधित करने को भी शामिल किया जाना चाहिए। यह अनायास नहीं था कि ट्रंप एक ही समय में मोदी के तीखे और आक्रामक शब्दों तथा उनके अर्थ समझे जाने की बात करते हुए कश्मीर पर ‘इमरान राग’ के तार ढीले करते दिखते हैं, तो अगले ही किसी पल फिर से ‘जरूरत पड़ने’ और ‘दोनों पक्ष चाहें तो’ कहकर फिर मसीहाई अंदाज दिखाने लगते हैं। यह सब अनायास नहीं है।

ट्रंप लंबे समय बाद अमेरिका के शायद ऐसे पहले राष्ट्रपति साबित हुए हैं जिनकी घर और बाहर दोनों जगह खासी हंसाई हुई है। सच तो यह है कि उन्हें कभी उस तरह गंभीरता से लिया ही नहीं गया। यही उनकी टीस भी है। उन्हें लगता है कि कश्मीर एक ऐसा मुद्दा है, जिसे इस या उस किसी भी ठौर बिठा दिया गया, तो उसकी आंच में रोटी सेकने में उन्हें ज्यादा ईंधन नहीं लगाना होगा। भारत के स्वरों और पाकिस्तान में उपजी हताशा में उन्हें यदि यह सब किसी दिवास्वप्न की तरह दिख भी रहा है, तो इसमें गलत क्या है?

हालांकि ट्रंप की बढ़ती नोबेल टीस के शांत होने में सिर्फ महाभियोग का रोड़ा ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर तेजी से उभरी वह युवा चुनौती भी है, जो जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में ग्रेटा थन्बर्ग जैसी बच्ची के साथ ही अपेक्षाकृत कम चर्चा में रही और वैश्विक शांति के लिए सक्रिय हाजेर शरीफ, इल्वा द एल्मान और नाथन ला कुआन-चुंग जैसी ‘युवा तिकड़ी’ के जुड़ने से भी बढ़ गई है। ट्रंप की यह चिंता ओस्लो के रिसर्च इंस्टीट्यूट के उस सालाना पूर्वानुमान से भी बढ़ी है जिसमें ऐसे ही कई और संकेत हैं। इसमें तो यहां तक कहा गया है कि ‘ग्रेटा थन्बर्ग की राह में बड़ी बाधा यह जरूर है कि जलवायु परिवर्तन का मुद्दा सशस्त्र संघर्ष से किस तरह जुड़ पाता है या नहीं जुड़ता है।’

यानी संकेत बहुत साफ हैं। अब ट्रंप अमेरिका की उस फेहरिस्त यानी वुडरो विल्सन, थियोडोर रूजवेल्ट और बराक ओबामा वाली सूची में खुद को जुड़ा हुआ पाते हैं या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन उनके अपने घर में भी इसे लेकर बहस तो तेज हो ही गई है। वहां बहुत कुछ हो रहा है। कुछ सामने आ रहा है, कुछ नहीं। लेकिन ट्रंप की नोबेल टीस पर सबसे ताजा ‘मलहम’ टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के फ्लेचर स्कूल ऑफ लॉ एंड डिप्लोमेसी के प्रोफेसर डेनियल डब्ल्यू द्रेजनर की वह चिट्ठी है, जो उन्होंने नॉर्वे की नोबेल कमेटी को लिखी है। इसमें उन्होंने बहुत ही खुले और व्यंगात्मक लहजे में बहुत कुछ लिख दि या है।


इस चिट्ठी का समापन कुछ इस तरह हुआ है- “मुझे पता है कि कुछ फर्जी लोगों ने नोबेल शांति पुरस्कार के लिए डोनाल्ड ट्रंप को नामित किया है, लेकिन मैं उनमें से एक नहीं हूं। सामाजिक विज्ञान के एक प्रोफेसर के रूप में, मैं किसी को नामित करने के लिए नोबेल के सूचीबद्ध मानकों पर खरा उतरता हूं। जोर देकर कहना चाहूंगा कि इस पत्र का आशय राष्ट्रपति ट्रंप के अहंकार को बढ़ावा देने का नहीं है और न ही मेरा उनका कोई रिश्ता है। यदि कोई ऐसा कहता है, तो वह बेतुका और झूठा आरोप होगा। ठीक वैसे ही जैसे ‘फेक न्यूज’ काम करती है। अब अगर वो ये कहते हैं कि इस चिट्ठी के पुरस्कार स्वरूप मुझे नार्वे में अमेरिका का राजदूत बना दिया जाएगा, तो इससे क्या फर्क पड़ता है? ऐसा तो हमेशा से होता रहा है। आपको नहीं लगता कि अन्य तमाम शक्तिशाली लोग भी अपने-अपने ‘समर्थकों’ के सामने ऐसी हड्डियां फेंकते ही रहे हैं?...तो यह सब कोई बड़ी बात तो नहीं... मुझे उम्मी द है कि आप बेवकूफ (स्टुपिड) यूरोपियन अच्छी अंग्रेजी पढ़ पाएंगे और इस नामांकन को स्वीकार कर राष्ट्रपति ट्रंप को नोबेल देने की दिशा में तेजी से काम करेंगे। यह उस आदमी की सनक कम करने का भी काम करेगा। होशियार बनो!”

शायद इस चिट्ठी के बाद ट्रंप और उनकी नोबेल टीस पर कोई और मलहम लगाने, और कुछ लिखने की गुंजाइश नहीं रह जाती। तो, बस कुछ और दिनों का इंतजार करते हैं!

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