ग्राउंड रिपोर्ट: काशी तो काशी है, कोई कितनी भी कोशिश कर ले, इसे उन्माद से नहीं जीता जा सकता...

यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में जब यूपी में चुनाव का बिगुल बजेगा तो काशी को सियासत वाले सियासत का कैसा जामा पहनाते हैं। जो भी हो, पर यहां के लोगों की इस राय में दम है कि काशी तो काशी है, इसे उन्माद से नहीं जीता जा सकता।

फोटो : सोशल मीडिया
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हिमांशु उपाध्याय

काशी विश्वनाथ मंदिर का नया वैभव पाकर काशी बेशक गदगद है। किंतु कॉरिडोर के उद्घाटन के लिए 13 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आगमन की तैयारियों को लेकर प्रशासन की ओर से की गई रंगरोगन की कार्यवाही ने काशी के माथे पर बल डाल दिया। उसकी त्योरियां चढ़ गईं। मिजाज भांप कर प्रशासनिक अमले ने मकानों को गेरुए रंग में रंगने की मुहिम पर रोक लगा दी। यह जरूरी भी था इसलिए कि काशी तो काशी है। इसे अयोध्या नहीं बनाया जा सकता।

यह स्वर है बनारस की उन अड़ियों में एक अड़ी का जहां शहर भर के पढ़े-लिखे, पढ़ने-पढ़ाने वाले, लेखक-लिक्खाड़ और जनता की रहनुमाई करने वाले रोजाना सुबह-शाम चाय की चुस्कियों पर बहस-मुबाहिसा करते हैं, अपनी बातें रखते हैं, अगले को मानने के लिए बाध्य करते हैं। अगला उनकी बात को खारिज करता है और बहस अगले दिन के लिए जहां की तहां बनी रहती है। मोदी द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर काशी को सौंपकर लौटने के बाद शहर के कहवा घरों से लेकर चाय चट्टियों में काशी क्या है, कैसी है जैसा विषय चर्चा के केन्द्र में बना हुआ है।

13-14 दिसंबर को काशी में प्रधानमंत्री के शिव राग के माध्यम से पूरे यूपी को जिस रंग में रंगने की कोशिश हुई, उसका सियासी निहितार्थ भी बहस का बिंदु बना हुआ है। बकौल चाय चट्टी, काशी की प्रकृति ही ऐसी है कि इसे एक रंग में नहीं बांधा जा सकता। एकरंग का सिद्धांत इसे स्वीकार नहीं। इतिहास के जानकार केसरी कुमार तो सीधे कहते है कि काशी कई दफा उजड़ी, कई दफा बसी किंतु हर बार वह सबकी काशी बनी रही। काशी ने कभी कट्टरता को स्वीकार नहीं किया। बनारस होने के बाद भी उसने एकरस की जगह समरस बने रहने का भान कराया। यही वजह है कि काशी के एक घाट पर तुलसी अपने राम के लिए चौपाइयां लिखते मिलते हैं, तो वहीं रैदास अपने दोहों की रचना करते हैं। कवि सुब्रह्मण्यम काशी के किसी हिस्से में गंगा की अभ्यर्थना करते हैं, तो वहीं कहीं किसी मंदिर में गूंज उठती है भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई, तो नजीर बनारसी अपनी कविताओं में गंगा का शुभ गान करते मिलते हैं।


जरदौजी के काम से जुड़े किशन मजबूत दावा करते हैं। कहते हैं, इस नगरी के एक हिस्से में ऐसे लोगों का कुनबा है जो हिन्दू नहीं किंतु हिन्दू देवी-देवताओं के शीश पर धारण किए जाने वाले मुकुट का निर्माण करते हैं। ऐसे बारीक कारीगरों को लोग रज्जाक, अब्दुल्ला या फातिमा नाम से जानते हैं। इस प्रकार की बहसों से ही पता चलता है कि काशी शंकराचार्य की अवधारणा करती है, तो उन्हें पराजय का स्वाद भी दिलाती है। कभी कबीर को खड़ा करती है, कभी जगन्नाथ दास रत्नाकर को। इसका कोना-कोना समूची भारतीय संस्कृति और भिन्न-भिन्न जीवन शैली की साझा झलक है। यही कारण है कि विभिन्न जातियों या वर्ग के लोग यहां टोली में नहीं, टोले में बसते हैं, जैसे बंगाली टोला, गुजराती टोला, ललिता घाट पर मद्रासी टोला, कज्जाकपुरा में मियां टोला। टोले भी ऐसे जो छोटे-मोटे नगर का अहसास करा दें।

बनारसी साड़ी के कारोबारी राम नरेश का कहना भी कम लाजिमी नहीं। वह कहते हैं कि यह बहुरंगी नगर है। किंतु इधर बीच चली सियासती हवा ने काशी को आजमाने की कोशिश शुरू की है। कोई भी रंग हो यदि उसे हर जगह उपस्थित कर दिया जाए, तो वह एक तरह का उन्माद पैदा करता है- अपने एकाधिकारवाद का उन्माद। काशी ने कभी इस तरह के उन्माद को प्रश्रय नहीं दिया। मुगल काल में किसी सम्राट ने काशी को अपने रंग में रंगना चाहा और इसका नाम बदलकर मुहम्मदाबाद रख दिया। किंतु उसका आदेश व्यवहार में कपूर के टिकिये-सा उड़ गया। काशी तब भी काशी बनी रही और आज भी काशी ही है। काशी का अपना रंग है। इस पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता।


फिर भी समय के साथ बहुत कुछ बदल रहा है। बेशक काशी भी बदल रही है। काशी कहीं-न-कहीं अपनी बेशकीमती ऐतिहासिक गलियों की थाती खोकर विध्वंस की नींव पर नए विकास का लंबा-चौड़ा आंगन तैयार कर रही है। सबको मुक्ति के धाम पहुंचाने वाले शिव को ही तंग गलियों से मुक्ति मिली का नारा देकर सियासी गलियारों में नई कहानी गढ़ी जा रही है। चौक पर पान की गुमटी में बैठे शरणदास कहते हैं- काशी सब कुछ समझ रही है। चौतरफा एक ही मंजर। अतीत को दोहराने के बहाने चुनावी संधान और लक्ष्य को हासिल करना एकमात्र ध्येय।

बहरहाल, कबीर की काशी इन दिनों झाल-ढोल- मजीरों पर निर्गुन की बजाय किसी का गुन गाने में तल्लीन है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में जब यूपी में चुनाव का बिगुल बजेगा तो काशी को सियासत वाले सियासत का कैसा जामा पहनाते हैं। जो भी हो, पर यहां के लोगों की इस राय में दम है कि काशी तो काशी है, इसे उन्माद से नहीं जीता जा सकता।

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