ग्लेशियरों की सुरक्षा पर 15 साल पहले तैयार विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर ध्यान देती सरकार तो नहीं होती उत्तराखंड त्रासदी

पहाड़ों में भू उपयोग में बदलाव ने भूस्खलन की संख्या और उनकी तीव्रता में बढ़ोतरी की है। अधिकांश सड़कें नदियों के किनारों के पास बनाई गई हैं। वनों को काटा जा रहा है और तरह-तरह की विकास परियोजनाएं चल रही हैं। पहाड़ों में घरों का आर्किटेक्चर भी बदल रहा है।

फोटो : Getty Images
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एस एम ए काजमी

नेताओं और प्रशासकों के साथ मिलकर कंस्ट्रक्शन लॉबी तथा हिमालयीन लकड़ी एवं पत्थर के कारोबार करने वाला माफिया ‘राष्ट्रीय हित’ के नाम पर हिमालयीन इलाके में विकास के एजेंडे को बढ़ा रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर पर्यावरण और पारिस्थितिकीय (इकोलॉजिकल) चिंताओं को भी दरकिनार कर दिया गया है। ग्लेशियरों की सुरक्षा करने के लिए उत्तराखंड में बनी विशेषज्ञों की समिति की रिपोर्ट सन 2006 से धूल खा रही है। हालांकि राज्य के हर पर्वतीय जिले में विकास योजनाओं की व्यावहारिकता पर प्रशासन को सलाह देने के लिए भूवैज्ञानिक हैं, इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि चेतावनियों को गंभीरता से लिया गया है।

17 जून, 2013 को केदरनाथ में हुए हादसे में 5,000 से अधिक लोग मारे गए थे। इनमें हजारों लोगों के शव कभी नहीं मिले। जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. रवि चोपड़ा के नेतृत्व में बनी विशेषज्ञ समिति ने सिफारिश की थी कि 2,000 मीटर से ऊपर की सभी हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजनाओं को रोक दिया जाना चाहिए। तब सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप किया था और राज्य में 23 हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजनाएं रोक दी गई थीं। पर, बाद में, इनके लिए अनुमति दी जाती रही।

नंदा देवी जीवमंडल क्षेत्र में हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजनाओं को अनुमति दिए जाने के संदर्भ में हिमालयीन पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संगठन (हेस्को) के संस्थापक पद्मभूषण डॉ. अनिल जोशी ने कहा कि ‘इस तरह की अनुमति देने के लिए कौन उत्तरदायी है और क्यों? इन लोगों पर जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए।’ ध्यान रहे कि 1970 में हुए चिपको आंदोलन के केंद्र रहे रैणी गांव के लोगों ने विस्फोटों आदि की ओर ध्यान दिलाते हुए ऋषिगंगा परियोजना के खिलाफ 2018 में नैनीताल हाईकोर्ट में याचिका डाली थी। राज्य सरकार इस मुद्दे को दबाती रही।

सुप्रीम कोर्ट में 17 फरवरी को ‘चार धाम’ सड़क परियोजना के लंबित मुद्दे पर सुनवाई होनी है। इस परियोजना के तहत चार धाम- गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ को जोड़ा जाना है। इस सड़क को 12 मीटर चौड़ा बनाने का प्रस्ताव था जबकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त उच्चस्तरीय समिति के अध्यक्ष डॉ. रवि चोपड़ा ने सिफारिश की थी कि यह सड़क साढ़े पांच मीटर से अधिक चौड़ी नहीं होनी चाहिए। केंद्र सरकार ने कोर्ट में कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों से चीन की सीमा से लगती सड़क अधिक चौड़ी होनी चाहिए। विशेषज्ञ समिति में 24 सदस्य हैं। इनमें से 21 सदस्य राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों के औचित्य से सहमत थे जबकि डॉ. चोपड़ा समेत तीन सदस्य इसका विरोध कर रहे हैं। अंततः निराश हो गए डॉ. चोपड़ा ने कहा कि‘अब कोर्ट को तय करने दीजिए।’ ऋषिकेश- कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना के लिए भी टनल बनाने की जरूरत है और इसके लिए कच्चे पहाड़ों की ढलानों के साथ छेड़छाड़ करनी होगी। सरकार सभी चार धामों को रेलवे लाइन से जोड़ने का इरादा रखती है।

सड़कें बनाने के लिए पहाड़ों पर विस्फोट पदार्थों का उपयोग किया जा रहा है। इस दौरान बड़ी संख्या में पेड़ों को काटा जा रहा है। 1984 में ही किए गए अध्ययन में पाया गया था कि वन-कटाई वाले क्षेत्रों में भूस्खलनों की वजह से ज्यादा विनाश हो रहा है। बिना उचित सर्वे के ही सड़क निर्माण की वजह से निरपवाद तरीके से नए भूस्खलन हो रहे हैं या पुराने भूस्खलन फिर सक्रिय हो रहे हैं।


हिमालय दुनिया में सबसे नया, सबसे ऊंचा और सबसे अधिक मुलायम पर्वत श्रृंखला है और यह अभी बनने की प्रक्रिया में है। लेकिन हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजनाओं और रेलवे लाइनों ने इन सबमें बाधा पहुंचाई है। भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं आमतौर पर मानसून में होती हैं लेकिन 7 फरवरी को ऋषिगंगा में अचानक आई बाढ़ के दौरान सर्दी का मौसम था और वह भी तब जब कुछ ही दिनों पहले बर्फ गिरी थी। लेकिन क्या हो रहा है और क्यों, इस बारे में पूरी तरह समझने के लिए अपने पास अपर्याप्त आंकड़े हैं। भूवैज्ञानिक लगातार हो रही भूकंपीय हलचल की ओर इशारा करते हैं। सिर्फ उत्तराखंड क्षेत्र में हर साल कम तीव्रता वाले 200 भूकंप आते हैं। स्थानीय समुदाय इनमें से अधिकतर को महसूस भी नहीं करता। हिमालयीन क्षेत्र में हर साल हजारों भूस्खलन होते हैं, उनमें से कुछ का लोगों को तब ही पता चलता है जब जान- माल का नुकसान होता है।

इन भूवैज्ञानिक बातों के अलावा पहाड़ों में भू उपयोग में बदलाव ने भूस्खलन की संख्या और उनकी तीव्रता में बढ़ोतरी की है। अधिकांश सड़कें नदियों के किनारों के पास बनाई गई हैं। वनों को अंधाधुंध तरीके से काटा जा रहा है और पहाड़ों में तरह-तरह की विकास परियोजनाएं चल रही हैं। पहाड़ों में घरों का आर्किटेक्चर भी बदल रहा है। पारंपरिक तौर पर घर बनाने के लिए यहां मिट्टी और लकड़ी का उपयोग होता रहा है। लेकिन अब ईंट, कंक्रीट और सीमेंटका उपयोग होने लगा है।

भूकंप का अनुमान तो मुश्किल है लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि भूस्खलन कहीं भी और कभी भी हो सकता है, पर उनके होने को लेकर पूर्वानुमान बहुत हद तक संभव है। उनका कहना है कि पर्वतीय खतरों और, खास तौर से भूस्खलनों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए अलग संस्थान बनाने की जरूरत है। लेकिन भूस्खलन अध्ययन और नियंत्रण के लिए प्रस्तावित सेंटर की शुरुआत अब भी नहीं हो पा रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय की एजेंसी- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) का दावा है कि खनन मंत्रालय भूस्खलन- प्रभावित राज्य में भूस्खलन शोध, अध्ययन और प्रबंधन सेंटर बनाने वाला है। लेकिन पीपुल्स साइंस इंस्टिट्यूट (पीएसआई) के डॉ. चोपड़ा-जैसे वैज्ञानिक निराश हैं। वह कहते हैः ‘इस तरह के किसी कदम से कोई मदद नहीं मिलेगी क्योंकि कोई भी सरकारी या सरकार-नियंत्रित वैज्ञानिक संस्थान सरकार का ही पक्ष लेगा। एकमात्र समाधान नुकसान के लिए लोगों को जिम्मेदार बनाना होगा- चाहे वे योजनाकार हों या वे जो नीतियों का कार्यान्वयन करते हैं।’


इन सबके बीच कुछ घटनाएं याद रखने की हैं। केदारनाथ हादसा 2013 में हुआ। प्रसिद्ध पर्यावरणविद जी. डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद 2008 से ही हिमालय में नदियों, खास तौर से गंगा पर बड़े हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजनाओं के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने राज्य सरकार को पाला मनेरी और भैरोघाटी हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजनाओं को छोड़ देने को 2008 में बाध्य कर दिया था। गंगा को अविरल बहने देने की मांग करते हुए उन्होंने जून, 2018 में अनिश्चितकालीन उपवास आरंभ किया। सरकार ने उनकी अनदेखी कर दी और अक्टूबर, 2018 में उन्हें देह त्याग देनी पड़ी।

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