धन की बात: दूसरों की जेब में हाथ रखकर शान की जिंदगी न जी पाने का मलाल, काश मान ली होती मिंटू की बात

भारत में अमीर बनने का एक ही तरीका है कि आप बड़ी रकम उधार लें और पैसे वापस न करें। इस महान देश में अगर आप पर किसी बैंक का दस हजार रुपये बकाया है तो यह आपकी समस्या है लेकिन अगर आप पर दस हजार करोड़ रुपये का बकाया है तो यह बैंक की समस्या है!

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अवय शुक्ला

मुझसे दस साल बड़े मिंटू ने जो बात मुझे 1973 में कही थी, उसे मुझे मान लेना चाहिए था। अगर मैंने उसकी बात सुनी होती, तो आज मैं मशोबरा के पास गांव में नहीं रह रहा होता, हर महीने अपनी पेंशन के लिए सांस रोककर इंतजार नहीं कर रहा होता, ट्रेजरी अधिकारी मेरे जिंदा होने का प्रमाणपत्र नहीं मांग रहे होते। अगर मान लेता तो भला, क्या कर रहा होता? नीरव मोदी और विजय माल्या की दुनिया में किसी केंसिंग्टन गार्डन या बैंकॉक के पेंटहाउस में ऐश कर रहा होता, सुंदर लड़कियों को दिल खोलकर टिप दे रहा होता और इन सबके लिए बैंक ऑफ पंजाब या बैंक ऑफ बड़ौदा से पैसे आ रहे होते। चलिए, इसे कुछ बेहतर तरीके से समझाता हूं।

1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय में आप किसी लड़की को ‘बन ऑमलेट’ खिलाने तब तक नहीं ले जा सकते थे जब तक आपके पास जावा मोटर साइकिल न हो। जब मैं एमए अंतिम वर्ष में पहुंचा तो आखिर मैं अपने एक करीबी रिश्तेदार से बाइक के लिए लोन मांग बैठा। तब, मेरे पिताजी आजीविका चलाने के लिए तेल (बर्मा शेल) बेचते थे और उनके लिए कुछ बचा लेना मुश्किल ही होता था। खैर, ममता बनर्जी की तरह मैं भी धन की बाट जोहता रहा लेकिन वह कभी नहीं आया।

इंतजार करते-करते और अकेले घूमते हुए मैं तंग आ गया और अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेने का फैसला किया और एसबीआई की प्रोबेशनरी ऑफिसर्स की परीक्षा में बैठ गया। लोगों को हैरानी में डालते हुए मैंने परीक्षा पास कर ली। लेकिन फिर मेरे मन को एक और विचार ने अपनी गिरफ्त में ले लिया: मैं तो हमेशा से आईएएस की परीक्षा देना चाहता था।

अब यहां एंट्री होती है मिंटू की। मैं उनके पास राय लेने जा पहुंचा। मिंटू एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करने वाला शुक्ला परिवार का बड़ा इज्जत से लिया जाने वाला नाम था। उन्होंने मेरी बात सुनी और फौरन कहा- ज्वाइन कर लो। मेरे मुंह से बरबस निकला- क्यों?

मिंटू ने समझाया: बैंक की नौकरी तो असीमित व्यय खाते की तरह है; जितना चाहो, उतना खर्च करो। इसके लिए तो जान की बाजी लगाई जा सकती है। वे भाग्यशाली होते हैं जो अपने पैसे के साथ खेलते हैं लेकिन वे लोग ‘ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त’ होते हैं जिन्हें दूसरों के पैसों से खेलने का मौका मिलता है। अपने जीवन के अगले 35 साल तुम यही कर रहे होगे (कुछ साल के निलंबन और जेल की सजा की बात है, चाहे किसी को दे दें या खुद ले लें)। आप जितना चाहें, उतना पैसा उधार ले सकते हैं।’


मैंने मिंटू की सलाह को नजरअंदाज कर दिया और पिछले 15 साल से पुरानी कोटी गांव में रहते हुए पछताने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं। मुझे लोन लेने से नफरत रही। मैं इस पुरानी कहावत पर पूरी तरह यकीन करता रहा कि न तो लोन लेने वाला बनो और न ही लोन देने वाला। अब मुझे एहसास होता है कि एक और चूक हुई जिसके लिए मैं नर्सरी और केजी-II के बीच हुए डबल प्रमोशन को जिम्मेदार मानता हूं क्योंकि केजी-I में नीरव मोदी, विजय माल्या और ललित मोदी ने एक दूसरी कहावत को जरूर गांठ से बांध लिया होगा जिससे मैं वंचित रह गया। वह यह कि: ‘हाथ में एक रुपये बैंक में दो रुपये के बराबर है।’ मुझे लगता है कि मैं इसे भी बेहतर तरीके से समझा सकता हूं।

तब मैं 1976 में एसडीएम चंबा के रूप में तैनात था। मेरे पिताजी मुझसे मिलने आए थे और तभी से लोन के बारे में मेरे मन में बड़ा संशय भर गया। मेरे पिताजी हर शाम स्कॉच ऑन द रॉक्स का खर्च बड़े मजे से उठा रहे थे। लेकिन मेरी स्थिति वैसी नहीं थी। सात सौ रुपये प्रति माह के वेतन में मैं बड़ी मुश्किल से अपनी नई-नवेली पत्नी के तन ढक पा रहा था। लिहाजा, मेरे पास फ्रिज भी नहीं था। मेरे पिताजी ने तुरंत मुझे फ्रिज खरीद लेने का फरमान सुनाते हुए कहा कि यह उनकी ओर से है।

एक बार स्कॉच के दौर के दरम्यान कुछ तनातनी के बाद वह वापस कानपुर चले गए। वहां पहुंचकर उनके मन में कुछ और विचार आए और उन्होंने मुझे सूचित किया कि उन्होंने मुझे जो 4000 रुपये दिए थे, वह कोई उपहार नहीं बल्कि लोन था। खैर, मैंने अपने पिताजी का लोन चुकाने के लिए जिला नाजिर से पैसे उधार लिए और फिर कान पकड़ लिया कि कभी लोन नहीं लूंगा।

लेकिन जीवन के पास आपको अपने फैसलों को सिर के बल खड़ा कर देने के हजार तरीके होते हैं।  सेवानिवृत्ति क्षितिज पर मंडराने लगी थी और मुझे एहसास हुआ कि जल्द ही मेरे सिर पर टपकती हुई ‘सरकारी’ छत नहीं रहेगी। लगभग उसी समय मेरे छोटे बेटे सौरभ को ‘ज्ञान’ मिला कि ‘भारतीय विश्वविद्यालय प्रतिभा के कत्लखाने हैं’ और उसने लंदन में पढ़ाई का फैसला किया। लिहाजा, मैंने अपना भीख का कटोरा चमकाया और उसे लेकर बैंक मैनेजर के पास दो ऋणों के लिए पहुंच गया: होम लोन और एडुकेशन लोन। मुझे लोन तो मिल गए लेकिन तभी जब बैंक ने मेरे बारे में हर जानकारी निचोड़ ली: डेटा की ऐसी जबरन वसूली कि फेसबुक भी ईर्ष्या करे- वेतन पर्ची, जीपीएफ का ब्योरा, जमीन के कागजात, नियोक्ता से डिफॉल्ट गारंटी, वास्तुकार की योजना …वगैरह-वगैरह।


उस अनुभव के बाद मैंने कभी लोन लेने के लिए आवेदन नहीं किया, यहां तक कि क्रेडिट कार्ड या पोस्ट-पेड मोबाइल खाते के लिए भी नहीं क्योंकि मेरे लिए अब इन चीजों के बारे में सोचना भी मुश्किल हो गया था। मुझे किसी को पैसे देने हैं, इसकी कल्पना भी मेरे लिए आसान नहीं थी। यह एक और बड़ी गलती थी क्योंकि भारत में अमीर बनने का एक ही तरीका है कि आप बड़ी रकम उधार लें और पैसे वापस ही न करें। याद रखें, इस महान देश में अगर आप पर किसी बैंक का दस हजार रुपये बकाया है तो यह आपकी समस्या है लेकिन अगर आप पर दस हजार करोड़ रुपये का बकाया है तो यह बैंक की समस्या है!

एनसीएलटी (नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल) के पास दिवालियापन के दर्जनों मामलों पर गौर करें, यकीन हो जाएगा। दूसरी ओर डिफॉल्टर ब्रुनेई की सुल्तान की तरह शान-ओ-शौकत का जीवन जीना कायम रखे हुए हैं। इसलिए अगर आप एक आलीशान जीवन जीना चाहते हैं, तो पैसे उधार लें- लेकिन करोड़ों में। जैसा कि डचेस ने उम्रदराज ड्यूक को कहा था: ‘अगर आप इसे बढ़ा नहीं सकते, तो आपको इसका कोई हिस्सा नहीं मिलेगा!’ वैसे, यह कन्फ्यूशियस के उन अनमोल बोल का ही एक रूप प्रतीत होता है: जो आदमी दिनभर पत्नी से झगड़ा करता है, उसे रात में शांति नहीं मिलती।

यही कारण है कि मैं एक गांव में रहता हूं। जब सूरज उगता है तो योग करता हूं और जब डूब जाता है तो ध्यान करता हूं। बीच-बीच में मैं नीरव मोदी के बारे में सोचता हूं जो रंगीन खुशमिजाज जिंदगी जी रहा है, विजय माल्या और माइल-हाई क्लब की उनकी आजीवन सदस्यता के बारे में सोचता हूं, ललित मोदी के बारे में सोचता हूं जो अब भी (क्रिकेट) गेंदों के दम पर सरकार चलाते दिख रहे हैं, दावोस में जमा होने वाले भारतीय उद्योग जगत के धुरंधरों के बारे में सोचता हूं जो एक से एक आकर्षक सूट पहने होते हैं लेकिन उनमें कोई जेब नहीं होती- क्योंकि उन्हें जेब की जरूरत ही नहीं होती, वे तो हमेशा अपने हाथ दूसरों की जेब में रखते हैं।

शायद मुझे मिंटू की बात मान लेनी चाहिए थी।

(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अफसर हैं। यह http://avayshukla.blogspot.com  पर उनके लेख का संपादित रूप है।)

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