आकार पटेल का लेख: मोदी से सीधी बहस का एक मौका मिला था, लेकिन विपक्ष फायदा नहीं उठा पाया इसका

प्रधानमंत्री और उन्हें चुनौती देने वालों के बीच खुली बहस, का सबसे अच्छा मौका अविश्वास प्रस्ताव के दौरान मिला था, लेकिन विपक्ष उससे फायदा नहीं उठा पाया, और दुर्भाग्य से उससे ऐसा कुछ नहीं पता चला जिससे 2019 के चुनावों की थीम का कोईसंकेत मिलता हो।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

तो फिर 126 के मुकाबले 325 वोट मिलना क्या विपक्ष के खिलाफ ही अविश्वास प्रस्ताव था। इन आंकड़ों को देखने के बाद यह बिल्कुल साफ नहीं हो पाया कि आखिर जिन मुद्दों पर अविश्वास प्रस्ताव आया वह किस हद तक सुलझ पाए। बहस के आखिर में हुई वोटिंग के नतीजों से भी किसी को हैरानी नहीं हुई। शिवसेना (उनके इरादों के बारे में आगे बात करेंगे) को छोड़कर कुछ भी ऐसा नहीं दिखा जिसे कहा जाए कि प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ थी। तो क्या इस पूरी कवायद के बहाने विपक्ष 2019 के चुनाव प्रचार की शुरुआत करना चाहता था। अगर हां, तो यह कोशिश कितनी कामयाब हुई?

सबसे पहले इसी की बात कर लेते हैं।

अगर इस अवसर को विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ ऐसे राजनीतिक हमले करना चाहता था जो अविस्मरणीय हों, और उनका असर आम लोगों तक स्पष्ट तरीके से पहुंचे, तो कहना पड़ेगा कि इस मौके का फायदा उठाने में विपक्ष चूक गया। दोनों तरफ से साजो-सामान तो एक ही था और इस पर चढ़े आवरण भी एक ही जैसे थे। दूसरी तरफ मोदी थे, उनके लिए तो कोई समस्या थी ही नहीं, क्योंकि वह पिछले 6 साल से यही सब करते रहे हैं। समस्या तो सिर्फ विपक्ष के साथ थी, क्योंकि अगर उसे कथानक बदलना है तो कुछ नया करना पड़ेगा, और उसके पास अब ज्यादा समय बचा भी नहीं है।

इस सबका अर्थ क्या हुआ? 6 बरस पहले या उससे भी पहले से, इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम का आंदोलन, फिर निर्भया कांड, ऐसे मुद्दे थे जिन्होंने तब के राजनीतिक शासन के खिलाफ जबरदस्त जनांदोलन खड़ा कर दिया। तब की सरकार पर भ्रष्ट, नाकाबिल और आम लोगों की सुरक्षा करने में नाकाम होने के आरोप लगे। उसी दौर में मोदी ने एंट्री मारी और उस सबका फायदा उठाया।

तब से लेकर अब तक मोटे तौर पर मोदी उसी मोड और माहौल में हैं। अगर राजनीति भ्रष्ट थी, तो वे उसे ईमानदार बनाने की कोशिश कर रहे हैं, अगर यह वंशवादी थी, तो वह इसे भी दुरुस्त कर रहे हैं। अगर सिस्टम कमजोर था आंतकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ नर्म था, तो वह उसे अपने व्यक्तित्व से संभालने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें से बहुत कुछ तो सिर्फ दिखावा ही है। क्योंकि, एक अकेला आदमी भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश को नहीं बदल सकता। लेकिन, अगर इस कथानक में कोई बदलाव हुआ भी तो वह अब धीरे-धीरे टूट रहा है, क्योंकि मोदी के असली व्यक्तित्व का खुलासा तो अभी तक हो ही नहीं पाया है।

यह वह सब मुद्दे थे, जिन्हें संसद में इस मौके पर उठाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। हमारे देश में मीडिया संसद की कार्यवाही को उतनी गहराई से नहीं कवर करता, जितना होना चाहिए। ब्रिटेन में संसदीय कार्यवाही को कवर करने की अलग परंपरा है। वहां पत्रकार संसद में होने वाली कार्यवाहियों को नेताओं के व्यक्तित्व की समीक्षा के जरिए पेश करते हैं। संसदीय काम को इस तरह से लिखा जाना काफी दिलचस्प होता है। लेकिन भारत में ऐसा शायद ही होता हो, क्योंकि जब-जब संसद में काम होता है तो हंगामा ज्यादा होता रहता है।

कभी-कभी संसद में काम होता है, जैसा कि अविश्वास प्रस्ताव के दौरान हुआ, तो इस मौके की रिपोर्टिंग अच्छे से होनी थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। राहुल-मोदी की झप्पी के अलावा मीडिया कुछ भी रिपोर्ट करने या बताने में नाकाम रहा।

राहुल गांधी की इस अप्रत्याशित झप्पी से मोदी अकबका गए। उन्हें इसकी उम्मीद ही नहीं थी। यूं भी वह किसी भी ऐसे शारीरिक संपर्क के आदी नहीं हैं, जो उन्होंने खुद ही न किया हो। वे बुरी तरह सकपकाए हुए थे, क्योंकि वे पहले से लिखी और तय स्क्रिप्ट के अलावा कुछ कर ही नहीं पाते हैं।

संसद में विपक्ष के पास एक नया नेरेटिव शुरु करने से ज्यादा जो दूसरा मौका था वह था बीजेपी के खिलाफ बन रही विपक्षी एकता को एकसूत्र में पिरोने का। फिलहाल तो विपक्षा एकता एकसूत्र में पिरोई हुई थोड़ा कम लगती है, क्योंकि सभी की विचारधाराएं और महत्वाकांक्षाएं अलग-अलग हैं। असव में नजरिए को बेहतर तरीके से सामने रखने की जरूरत है। ऐसा नजरिया, जो भले ही थोड़ा अव्यवस्थित और संपूर्ण न हो, लेकिन उसमें मौके के मुताबिक एक लयात्मकता होनी जरूरी है। योग्य नेता ऐसा बखूबी कर लेते हैं। 2014 में मोदी ऐसा करने में जबरदस्त तरीके से कामयाब रहे थे। और, अगर 2019 में मोदी की बीजेपी बनाम विभिन्न गठजोड़ होने हैं, तो वे अभी तक भाषणों में सामने नहीं आए हैं।

दूसरी तरफ बीजेपी है, जो गठबंधन धर्म निबाहने में हमेशा कमजोर रही है, और कुछ हद तक वह यह बात मानती भी है। किसी नाराज सहयोगी दल के सामने झुकने में उसे दिक्कत होती है। शिवसेना और बीजेपी के बीच जो गठबंधन चल रहा है, उसे मैं उस समय से देख रहा हूं, जब उन्होंने 1995 चुनाव जीता था। तब से लेकर आज तक ऐन चुनाव के मौके पर शिवसेना का रुख और रवैया ऐसा ही रहा है, जैसा इन दिनों है। वह अपनी अलग स्वतंत्र पहचान क बात करती है, बीजेपी के बारे में अनाप-शनाप कहती है, और बीजेपी नेता इस सब पर खामोश रहते हैं। और आखिर में शिवसेना ही शांत होती है, और सारे धूम-धड़ाके के बाद फैसला कर लेती है कि बीजेपी के साथ गठबंधन करना ही राज्य के हित में है। 2019 में भी निस्संदेह ऐसा ही होने वाला है।

अभी साफ नहीं है कि 2019 के चुनाव से पहले राजनीतिक तौर पर ऐसे मौके फिर मिलेंगे या नहीं। भारत में उम्मीदवारों के बीच चुनाव के दौरान टीवी पर दिखाए जाने वाली बहसों की परंपरा नहीं है, इसलिए प्रधानमंत्री और उन्हें चुनौती देने वाले के बीच खुली बहस, वह भी पूरे देश के सामने लाइव टीवी प्रसारण में होने का मौका फिर नहीं मिलने वाला। सबसे अच्छा मौका अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान मिला था, लेकिन दुर्भाग्य से उससे ऐसा कुछ नहीं पता चला जिससे 2019 के चुनावों की थीम का कोई संकेत मिलता हो।

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