राम पुनियानी का लेखः राजनीति में नफरती भाषणों का बढ़ता दौर, लहलहा रही है आरएसएस के बोए बीज से ऊगी फसल

अब जबकि सत्ता पर बीजेपी का शिकंजा बहुत मजबूत हो गया है, हिमंत सरमा और सुवेंदू अधिकारी जैसे नेताओं का दुस्साहस बढ़ता जा रहा है और उनकी बातें अधिकाधिक घृणापूर्ण और आक्रामक होती जा रही हैं। वहीं भागवत अपने प्रमुख एजेंडे को इस तरह चाशनी लपेटकर पेश कर रहे हैं।

राजनीति में नफरती भाषणों का बढ़ता दौर, आरएसएस के बोए बीज से ऊगी फसल लहलहा रही है
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राम पुनियानी

सांप्रदायिक हिंसा भारतीय राजनीति का एक दुःखद पहलू है। सांप्रदायिक हिंसा, सांप्रदायिक राजनीति का आधार है। सांप्रदायिक राजनीति का लक्ष्य है समाज को धर्म के आधार पर बांटना। इस नफरत की नींव अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति के जरिये रखी। इसकी शुरूआत इतिहास को सांप्रदायिक नजरिए से प्रस्तुत करने से हुई। सांप्रदायिक राजनीति के विकास में दो समानांतर किंतु विपरीत दिशाओं में बहने वाली धाराओं ने अहम योगदान दिया। इसे एक ओर मुस्लिम लीग तो दूसरी ओर हिंदू महासभा-आरएसएस ने बढ़ावा दिया। इससे सांप्रदायिक हिंसा की नींव पड़ी और वह भयावह होती गई। दूसरे समुदाय के प्रति नफरत को और बढ़ाने के लिए इसमें तोड़े-मरोड़े गए इतिहास के साथ-साथ अन्य भावनात्मक मुददे भी जोड़ दिए गए। हिंसा की आग फैलती गई और देश के विभाजन तक उसने भयावह रूप ले लिया।

विभाजन की त्रासदी के बाद ‘दूसरे से नफरत करो‘ की प्रवृत्ति बार-बार सिर उठाती रही है। बंटवारे के पहले की हिंसा की प्रकृति बहुत अलग थी और इसमें दोनों समुदायों की एक बराबर भूमिका हुआ करती थी। बंटवारे के बाद परिदृश्य बदल गया। ज्यादातर मुस्लिम सांप्रदायिक तत्व पाकिस्तान जा चुके थे। ऐसे में सांप्रदायिक हिंसा ने मुस्लिम विरोधी हिंसा का रूप ले लिया। धीरे-धीरे मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत बढ़ती गई और इसने समाज की व्यापक सोच में गहरी जड़ें पकड़ लीं।

आरएसएस की शाखाओं में सुनाई जाने वाली महान हिंदू राजाओं और दुष्ट मुस्लिम राजाओं की कहानियों और अन्य मुद्दों से नफरत पैदा होती है और इसे स्कूलों और मीडिया के माध्यम से हवा दी जाती है। मीडिया का यह दुरूपयोग 1977 के बाद बहुत बढ़ा क्योंकि सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में लालकृष्ण आडवाणी ने समाचार एजेंसियों में बड़ी संख्या में सांप्रदायिक मानसिकता वाले लोगों की घुसपैठ करवा दी। मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके नजदीकी धन्ना सेठों ने बड़े समाचार माध्यमों को खरीदना शुरू कर दिया। बची खुची कसर सोशल मीडिया और बीजेपी के आईटी सेल ने पूरी कर दी।

मुस्लिम समुदाय और बाद में ईसाईयों के खिलाफ नफरती बातों का सिलसिला शीर्ष स्तर यानि प्रधानमंत्री से शुरू हुआ और निचले स्तरों पर इसका अनुसरण होने लगा। इसने सामाजिक सोच में मजबूत जड़ें जमा लीं। मोदी ने बहुत कुटिलता से नफरती नारे गढ़े जैसे "उनकी (मुसलमान) बहुत सी बीबियां और बच्चे होते हैं, उन्हें कपड़ों से पहचाना जा सकता है आदि। इसके साथ ही श्मशान-कब्रिस्तान और बहुत से अन्य नारे जुबानी प्रचार प्रोपेगेंडा के चलते प्रचलित होते गए और इन्होंने सोशल मीडिया के लिए असलहा का काम किया।


अत्यंत कुटिल चालों के जरिए इस अभियान को आगे बढ़ाया गया जिसका नतीजा लगातार बिगड़ते हालातों के रूप में सामने आया। हर बीतते दिन के साथ अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत बढ़ती जा रही है। नए-नए शब्द इस्तेमाल किए जा रहे हैं। यहां तक कि हिंदुओं से हथियारबंद होने तक का आव्हान किया जा रहा है।

नफरत भरी बातें कैसे गढ़ी जाती हैं और कैसे फैलाई जाती हैं, इस पर प्रकाश डालने वाली एक पुस्तक है स्वाति चतुर्वेदी की ‘आई वाज़ ए ट्रोल‘। वे हमें आईटी सेल की दुनिया के अन्दर ले जाती हैं और बताती हैं कि कैसे सोशल मीडिया के जरिए नफरत फैलाने के लिए बहुत से युवाओं को नौकरी पर रखा जाता है।

कुणाल पुरोहित की पुस्तक ‘द हिन्दी पॉप‘ हमारी आंखें खोल देती है। उन्होंने गहन जांच-पड़ताल के आधार पर अपनी किताब लिखी है। उन्होंने लोकप्रिय पॉप गायकों के गानों की पड़ताल में पाया कि उनके केंद्र में सांप्रदायिक सामग्री होती है, जो अपने आकर्षक संगीत के कारण लोकप्रिय हो जाते हैं। प्रमुख पॉप गायकों की प्रस्तुतियों का विश्लेषण करते हुए पुरोहित पॉप संगीत, कविताओं और इन्फ्लूएंसर संस्कृति के बारे में बताते हैं। 'द हिंदी पॉप' कई स्तरों पर काम करती है- वह हिंदुत्व की दुनिया का मानवशास्त्रीय विश्लेषण करती है, एक खोजी पत्रकार की तरह गायकों के बीजेपी से संबंधों का खुलासा करती है और हिंसा भड़काने में संगीत, कविता और पॉप संस्कृति की भूमिका का विश्लेषण करती है। यहां तक कि बॉलीवुड की फिल्में भी हिंदुत्व का प्रचार करती हैं, सत्ताधारी दल के नेता खुलकर नफरती भाषण देते हैं और पाठ्य पुस्तकें इतिहास के हिन्दुत्ववादी संस्करण को तथ्य की तरह प्रस्तुत करती हैं।

पूजा प्रसन्ना (न्यूज मिनिट) अपने वीडियो ‘‘कम्युनल कलर फ्रॉम केरला राईट विंग टू हिन्दुत्व पॉप‘‘, जो उनके एक सहयोगी के शोध पर आधारित है, में बताती हैं कि केरल में कई हिन्दू लेटनाईट चैटरूम्स (रात 11.30 बजे के बाद से) में मुसलमानों के खतरे का सामना करने के लिए हिन्दुओं से हथियार रखने और अपनी हिफाजत हेतु आरएसएस की स्थानीय शाखा के संपर्क में रहने का आव्हान करते हैं। वे मुसलमानों को खतरा और टिकटिक करता टाईम बम बताते हैं, वे बुल्लीबाई और सुल्लीबाई जैसी अपमानजनक बातों को भी याद करते हैं जो सोशल मीडिया पर मुस्लिम महिलाओं की नीलामी की चर्चा कर उन्हें नीचा दिखाने के प्रसंग में इस्तेमाल की गई थीं।

इन सबके अलावा बॉलीवुड में कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी, बंगाल फाइल्स आदि जैसी फिल्मों की बाढ़ आई हुई है। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि कश्मीर फाइल्स फिल्म को आरएसएस प्रमुख भागवत और प्रधानमंत्री मोदी ने भी अनुशंसित किया था।


अगस्त 2025 में विज्ञान भवन में दिए गए बहुप्रचारित व्याख्यानों में भागवत ने कुटिलतापूर्वक अपने विभाजनकारी एजेंडे को चाशनी की पर्त लगाकर पेश करते हुए कहा ‘‘हिंदू वह है जो दूसरों की आस्थाओं को नीचा दिखाए बिना और अपमानित किए बिना स्वयं अपने रास्ते पर चलने में विश्वास रखता है। जो भी इस परंपरा और संस्कृति का पालन करते हैं, वे हिन्दू हैं।‘‘ जब वे यह सब कह रहे थे तब मुसलमानों के प्रति असहनशीलता और घृणा फैलाने का काम पूरी तेजी से बदस्तूर जारी था।

असम में जो कुछ हो रहा है, उससे भी यही जाहिर होता है। हिमंत बिस्वा सरमा बांग्लाभाषी मुसलमानों का मताधिकार छीनने और उन्हें प्रताड़ित करने में जुटे हुए हैं और भागवत दूसरी ओर देख रहे हैं और संभवतः अपने हिंदू राष्ट्र के एजेंडे के आगे बढ़ने से खुश होंगे। हर्ष मंदर स्क्रॉल में लिखे लेख में बताते हैं कि हिमंत सरमा ने कहा था कि ‘‘मैं असमियों को इजरायल से प्रेरणा लेने का अनुरोध करता हूं। मध्यपूर्व में यह देश मुस्लिम कट्टरपंथियों से घिरा हुआ है। ईरान और ईराक उसके पड़ोसी हैं मगर छोटी सी जनसंख्या वाला इजरायली समाज अभेद्य बन गया है।‘‘ बीजेपी के पश्चिम बंगाल के नेता सुवेंदु अधिकारी जोर देकर कहते हैं कि हमें सबका साथ सबका विकास का नारा छोड़ देना चाहिए।

एक ऐसे दौर में जब सरमा बंगाली मूल के असमी मुसलमानों को खतरनाक ‘दूसरे‘, ‘घुसपैठिए‘ और ऐसा शत्रु जो असम के वास्तविक और (एकमात्र) हकदारों के भविष्य के लिए खतरा  बताते हैं, हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं? यह एक बहुत बड़ा बदलाव है और एक नस्लवादी राष्ट्रवादी आंदोलन के एक नफरत भरे सांप्रदायिक आंदोलन बन जाने को दर्शाता है, जिसके निशाने पर केवल बंगाली मूल के मुसलमान हैं। वे तो इस हद तक चले गए हैं कि उन्होंने विदेशी अधिकरणों को सभी हिंदू बांग्लादेशियों के खिलाफ चल रहे मामलों पर खात्मा लगाने का निर्देश दिया है, जो 2014 या उसके पहले असम आ गए थे और केवल मुसलमानों के खिलाफ चल रहे मामले जारी रखने की बात कही है।

अब जबकि सत्ता पर बीजेपी का शिकंजा येनकेन प्रकारेण बहुत मजबूत हो गया है, हिमंत सरमा और सुवेंदू अधिकारी जैसे नेताओं का दुस्साहस बढ़ता जा रहा है, और उनकी बातें अधिकाधिक घृणापूर्ण और आक्रामक होती जा रही हैं। वहीं भागवत अपने प्रमुख एजेंडे को इस तरह चाशनी लपेटकर पेश कर रहे हैं  कि वह अत्यंत खुशगवार नजर आ रहा है। मोदी सबसे अधिक विभाजनकारी वक्तव्य देते आ रहे हैं। अब आरएसएस द्वारा बोए गए नफरत के बीज से ऊगी फसल लहलहा रही है। उसे और फलने-फूलने के लिए नई-नई तरकीबें ईजाद की जा रही हैं।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा) 

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