पहाड़ दरकेंगे, नदिया उफनेंगी, बादल फटेंगे...यह चेतावनियां तो थीं सामने, लेकिन कोई सुने-समझे तो!

1970 के दशक की हिमालय की स्पष्ट चेतावनियों को ध्यान में न रखें तो भी 2010 के बाद लगभग हर साल हिमालय अवैज्ञानिक विकास के खिलाफ विद्रोह कर रहा है। 2013 (केदारनाथ त्रासदी) अब तक की सबसे बड़ी चेतावनी थी। 2021, 2022 और अब 2025 में हिमालय फिर बगावत पर उतारू है।

फोटो -पीटीआई
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नवीन जोशी

धराली और हर्षिल (उत्तरकाशी) की आपदा के कारणों पर बहस चल ही रही थी कि थराली और चेपड़ों (चमोली) में वैसा ही हादसा हो गया। थराली-चेपड़ों के नुकसान और कारणों पर बहस हो ही रही है कि जम्मू-कश्मीर में पहाड़ों के ढहने-बहने से कई मौतों की खबरें आ गईं। इनमें वैष्णो देवी जा रहे कई तीर्थयात्री भी शामिल हैं। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू और मंडी इलाके चंद हफ्ते पहले के हादसों के शोक में ही थे कि फिर से कुल्लू, मंडी, चम्बा और कांगड़ा में ‘बादल फटने’ और भूस्खलनों से भारी नुकसान होने की सूचना आ गई।

अभी मानसून सक्रिय है। पता नहीं कब कहां से क्या सुनने को मिल जाए। इन पंक्तियों को लिखते हुए हर्षिल में भागीरथी पर फिर से मलबा आने की खबर मिली है। 

ये अब हर साल के किस्से हैं। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ और ‘बादल फटना’ आम कारण बता दिए जाते हैं। ‘ईश्वर का प्रकोप’ और ‘किस्मत’ भी इसमें जोड़ लीजिए। इनसान और उसकी करतूतों को माफी मिलती रहती है।

धराली का जो बाजार, होटल, होम-स्टे और मकान बीस-तीस फुट मलबे में दफ्न हो गए, वे 25-30 वर्ष पहले वहां नहीं थे। मूल धराली गांव आज भी भागीरथी और खीरगाड़ (खीरगंगा) से सौ मीटर ऊपर है। दूसरी ओर मुखबा गांव भी नदी से इतनी ही ऊंचाई पर है। दोनों आज भी सुरक्षित हैं। पांच अगस्त को जब खीरगाड़ बेहिसाब मलबा लेकर दहाड़ती आ रही थी तो मुखबा के निवासी वीडियो बनाने के साथ सीटियां बजा-बजाकर नीचे के लोगों को आगाह कर रहे थे। नोट किया जाए कि प्रचण्ड वेग से आया मलबा मूल धराली गांव में नहीं घुसा। वह अपने ही बगड़ (बाढ़ क्षेत्र) में आया, जहां उसे स्वाभाविक रूप में आना था। सरकारी विकास और ‘क्विक मनी’ को लालायित इनसानों ने नदी के इलाके में कब्जा कर लिया था। सरकार दिल्ली और देहरादून में सुरक्षित रही। भुगतना आम इनसान को ही था।

यही किस्सा चेपड़ों व थराली (जिला चमोली) में 24-25 अगस्त को दोहराया गया। एक स्थानीय गाड़ (नदी) के मुहाने पर चेपड़ों बाजार विकसित हो गया। वह मलबे से पट गया। बाजार, मकान, पुलिस थाना और एसडीएम का घर तक दब गए। मूल चेपड़ों गांव नदी से ऊपर है। उसे नुकसान नहीं हुआ। नुकसान वहीं हो रहा है जहां आदमी और उसका ‘विकास’ नदियों के इलाके में घुसपैठ कर रहे हैं। 


1970 के दशक की हिमालय की स्पष्ट चेतावनियों को ध्यान में न रखें तो भी 2010 के बाद लगभग प्रति वर्ष हिमालय अवैज्ञानिक विकास के विरुद्ध विद्रोह कर रहा है। 2013 (केदारनाथ त्रासदी) अब तक की सबसे बड़ी चेतावनी थी। 2021, 2022 और अब 2025 में हिमालय फिर बगावत पर उतारू है।

‘बादल फटने’ और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को इसके लिए दोषी ठहराना बहानेबाजी है। बादल फटना कोई नई घटना नहीं है। शब्द अवश्य नए हैं। एक सीमित क्षेत्र में अतिवृष्टि हमेशा से होती रही है। 26 अगस्त 2025 को जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में जो हादसा हुआ है, उसके लिए 24 घंटे में हुई 190.4 मिलीमीटर बारिश को कारण बताया जा रहा है। यह निश्चित रूप से अतिवृष्टि है लेकिन 1926 में वहीं इससे कहीं अधिक बारिश (228.6 मिमी) हुई थी। तब कितना नुकसान हुआ था? आज के ‘विकास’ और तब के ‘पिछड़ेपन’ की तुलना कर लीजिए। शायद बात समझ में आ जाए।

उत्तर पूर्वी हिमालयी राज्यों के घने, जैव विविधता वाले पहाड़ एवं वन अभी कुछ सुरक्षित हैं, हालांकि उन्हें भी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आवश्यक’ विकास की नज़र लग चुकी है। पिछले वर्ष सरकार ने इन सीमांत इलाकों के सम्पन्न वनों में राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर ‘कंक्रीटी विकास’ की अनुमति दे दी है।

जहां अनियंत्रित विकास की होड़ मची है, उस हिमाचल और उत्तराखण्ड में तबाही सर्वाधिक हो रही है। ब्यास नदी कुल्लू के कई होटल बहा ले गई तो दोष नदी का नहीं है। नए धराली के दफ्न होने का दोष खीरगाड़ का नहीं है। बादल फटने या ग्लेशियर टूटने का भी नहीं।  

उत्तराखण्ड की ‘डबल इंजन’ वाली सरकार चहुमुखी विकास कर डालने को अति उतावली है। उसे ‘ईको सेंसिटिव जोन’ में बेमुरव्वत घुसपैठ से कोई गुरेज नहीं रहा। जो बारामासी चारधाम सड़क बन रही है, उसके लिए कितने पेड़ काटे गए, कितने काटे जाने हैं, कितने पहाड़ काटे-खोदे-ढाहे गए, इसका सही हिसाब नहीं मिलेगा। इसके लिए जिन नियम-कानूनों का पालन जरूरी था, उन्हें भी ताक पर रख दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरणविद रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में दो उच्चाधिकार प्राप्त समितियां बनाईं थीं। उसमें नवीन जुयाल जैसे नामी भू-विज्ञानी भी थे। उनकी राय इस ‘विकास’ के खिलाफ थी। उन्होंने विकल्प भी सुझाए थे। मामला प्रधानमंत्री के सपनों का था। सपनों ने हकीकत दबा दी। विशेषज्ञ इस्तीफा देने को मजबूर हुए।


नवीन जुयाल लगातार चेतावनियां दे रहे हैं। प्रमाण और वैज्ञानिक तथ्य सामने रख रहे हैं। 2023 की उनकी रिपोर्ट देख लीजिए। उसमें धराली, हर्षिल और ऐसी कई जगहों के लिए चेतवानी साफ-साफ मौजूद है। ‘भागीरथी ईको सेंसिटिव जोन’ में अच्छी खासी चलती पुरानी सड़क है। उसे ‘फोर लेन’ बनाने की सनक है। छह हजार देवदार के पेड़ छापे (काटने के लिए निशान लगाना) गए हैं। इन विशाल मजबूत वृक्षों के पीछे और नीचे भारी बोल्डर, चट्टानें, वगैरह हैं। पेड़ उन्हें थामे हुए हैं। ये पेड़ कटेंगे तो क्या होगा? हिमालय को अंधे योजनाकारों की जरूरत नहीं है। दुर्भाग्य से हिमालय उन्हीं के कब्जे में है। चर्चित भू विज्ञानी एस पी सती भी जोशीमठ के धंसने और हिमालय की आपदाओं पर कब से आगाह कर रहे हैं। कोई सुने तो!

अतिवृष्टियां होंगी। होती रही हैं। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ से ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज अवश्य हुई है। ग्लेशियर टूटेंगे-बहेंगे। तीखे पहाड़ी ढलानों पर भूस्खलन होंगे। यह इस कच्चे-बच्चे हिमालय का स्वभाव है। अंधाधुंध अवैज्ञानिक विकास ने इसे छेड़ दिया है। तो भी, ऊपर से आया मलबा सदैव गधेरों-नदियों के रास्ते ही नीचे आएगा। वह ऊपर पहाड़ की चोटी नहीं चढ़ेगा। जहां सदियों से उसकी जगह है, वहीं आएगा।  

हमारे पुरखे जानते थे कि गांव कहां बसाना है। वे नदियों के किनारे खेती करते थे। गांव ऊपर पहाड़ पर बसाते थे। ठोस और मजबूत चट्टानों पर पुराने गांव बसे हुए हैं। अब पर्यटन प्रदेश बनाया जा रहा है। ऊर्जा प्रदेश बनाना है। नदियों के किनारे, बल्कि ऐन नदी के डूब क्षेत्र में ‘रिवर व्यू’ होटल, होम स्टे, अतिथि गृह बन रहे हैं। सरकार उन्हें परमिट और तरह-तरह की छूट देती है। नदियां और पहाड़ सरकारी बुल्डोजर से नहीं डरते। वे ईडी, सीबीआई, वगैरह को नहीं पहचानते। वे बस अपना बहाव क्षेत्र जानते हैं।

विकास होना ही चाहिए। पर्यटन-तीर्थाटन मानव की आदिम प्रवृत्ति है। आधुनिक मानव की अनेक जरूरतें भी निकल आई हैं। उनके बिना काम नहीं चलता। वह सब किया जाना चाहिए। लेकिन पहले हिमालय को, उसकी प्रवृत्ति को, प्रकृति की अनिश्चितता को ठीक से समझना चाहिए।

वर्षों के अध्ययन-मनन-शोध से बहुत सारे विशेषज्ञों ने पहाड़ को पढ़ा है, समझा है। वे आगाह कर रहे हैं कि कहां पहाड़ अत्यंत नाजुक हैं। कहां मुख्य भ्रंश हैं। केदारनाथ मंदिर के पीछे खुदाई करके कंक्रीट का विशाल स्मारक क्यों बना रहे हो? रोजाना दर्जनों हेलीकॉप्टर क्यों दहाड़ रहे हैं? भगवान शिव के दर्शनों के लिए तनिक तन को कष्ट क्यों नहीं देते? पहाड़ों की धारक क्षमता का ध्यान धरिए।

तथ्य, चेतावनियां और सुझाव सबके सामने हैं। बादल फटेंगे। नदियां उफनाएंगी। पहाड़ भी दरकेंगे। हमारी विकास नीतियां उनके लिए पर्याप्त जगह छोड़ेंगी या नहीं?

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