हिंदू-मुस्लिम भाईचारा और समाज की बदलती तस्वीर
मीरांपुर जैसे कस्बे जो कभी एकता और भाईचारे के प्रतीक थे, अब धीरे-धीरे सांप्रदायिकता का शिकार हो रहे हैं। लेकिन कुछ ऐसी मिसालें भी हैं जिनसे उम्मीद जगती है कि शायद अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले का ऐतिहासिक कस्बा मीरांपुर (सैयद मीरां खां के नाम पर) सदियों से गंगा-जमनी सभ्यता का प्रतीक रहा है। इतिहास में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की कई मिसालें मौजूद हैं। इस शहर की एक खास बात यह है कि यहां साप्ताहिक बाजार शुक्रवार को लगता है और इस परंपरा के पीछे एक दिलचस्प कहानी है।
अतीत में मीरानपुर में बनिया समुदाय की बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां होती थीं, जहां गन्ने से खांड (चीनी) बनाने के लिए क्रेशर तैयार किए जाते थे। इन फैक्ट्रियों में ज्यादातर मजदूर, सुपरवाइज़र और मिस्त्री मुसलमान होते थे, जो रोजगार के लिए अलग-अलग शहरों से यहां आये थे। शुक्रवार यानी जुमे को बड़ी संख्या में ये मुसलमान नमाज के लिए छुट्टी लेते थे। यह देखकर हिंदू मालिकों ने फैसला किया कि साप्ताहिक छुट्टी जुमे को ही होनी चाहिए, और यह परंपरा आज भी कस्बे में निभाई जाती है।
इस भाईचारे की एक और मिसाल यह थी कि चूंकि मस्जिद इन फैक्ट्रियों से काफी दूर थी और मुसलमान सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ना चाहते थे, इसलिए एक हिंदू उद्योगपति ने अपनी ज़मीन पर मस्जिद बनवा दी। यह छोटी मस्जिद आज भी मुख्य बाजार में मौजूद है, जो इस शहर की धार्मिक सद्भावना का एक जीता-जागता प्रतीक है। इससे जाहिर है कि इस कस्बे में कभी भाईचारे और एकजुटता को प्राथमिकता दी जाती थी।
लेकिन वक्त के साथ इस कस्बे में भी सांप्रदायिक विभाजन की जड़ें मजबूत होने लगीं। हाल में कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं जिनसे साफ नजर आता है कि तस्वीर बदल रही है।
मीरांपुर की एक छोटी सी बच्ची जो नर्सरी में ही पढ़ती है, अपनी मुस्लिम सहेली के साथ खेलने जाती थी। ईद के दिन वह अपनी सहेली के घर गई और कई घंटे खुशी-खुशी बिताए। लेकिन जब वह लौट रही थी, तो पड़ोस के 8-10 साल के बच्चों ने उसे रोका और पूछा, “तुम हिंदू हो या मुसलमान?” वह चौंक गयी, लेकिन आत्मविश्वास से बोली, “मैं हिंदू हूं।” इस पर एक लड़के ने तुरंत अगला सवाल पूछा, “तो फिर तुम मुस्लिम घरों में क्यों जाती हैं?” यह सवाल सुनकर वह चुप हो गई और तेजी से अपने घर की ओर चल दी।
यह एक बात हैरान करने वाली थी कि इतने छोटे बच्चे भी धर्म के आधार पर विभाजन का शिकार हो गए हैं। उनके परिवारों के मुसलमानों के साथ अच्छे रिश्ते हैं और वे एक-दूसरे के सुख-दुख में भी शामिल होते हैं। तो फिर यह सवाल कहां से आया? क्या घरों में ऐसी बातें होती हैं या सामाजिक माहौल ने उन्हें ऐसा बना दिया है?
इसी मोहल्ले में एक और ऐसी ही घटना हुई। एक मुस्लिम महिला, जो वर्षों से अपने हिंदू पड़ोसियों के साथ गहरे रिश्तों के चलते उनके लिए ईद का उपहार लाती रही थी, इस बार भी पारंपरिक मिठाइयां लेकर आई। उनके ससुर और हिंदू परिवार के मुखिया न सिर्फ गहरे दोस्त रहे हैं, बल्कि कारोबारी साझेदार भी थे। यह वही परिवार था जिसने वर्षों पहले उन्हें इस क्षेत्र में बसने का अवसर दिया था। लेकिन इस बार दरवाजे पर ही, युवा बेटे ने, जो उच्च शिक्षित है और एक निजी संस्थान में एमसीए और बीसीए के छात्रों को पढ़ाता है, भावशून्य स्वर में कहा, "पापा नहीं रहे। वे आपकी खीर खाते थे। अब यहाँ कोई नहीं है जो इसे खाए।" "इसे वापस ले लो।" महिला चुपचाप लौट गई।
यह घटना इस बदलते परिवेश का प्रतिबिंब है। युवक उसी बनिया समुदाय से है, जिसके पूर्वजों ने कभी अपने मुस्लिम कर्मचारियों के लिए अपनी जमीन पर मस्जिद बनवाई थी।
संभल स्थित ऐतिहासिक जामा मस्जिद को हिंदू समुदाय द्वारा मंदिर घोषित करने का प्रयास किया जा रहा है और मामला अदालत में लंबित है। मस्जिद के सर्वेक्षण के दौरान स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी और बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क उठी थी जिसमें कई लोगों की जान चली गई। तब से संभल लगातार खबरों में बना हुआ है।
यहां एक नया चलन शुरू हुआ है। अगर किसी मुस्लिम मोहल्ले में कोई पुराना या वीरान मंदिर होता तो यह दावा किया जाता है कि उस पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया है। शहर में यह भी कहा गया कि 'हिंदू पवित्र स्थलों' की पहचान की जा रही है और कई स्थलों की खोज भी हो चुकी है।
इतना ही नहीं होली के मौके पर संभल की कई मस्जिदों को तिरपाल से ढक दिया गया। पुलिस ने ईद से पहले ऐलान कर दिया था कि, "अगर मुसलमान होली की गुजिया खाएंगे तभी उन्हें ईद की सिवइंयां खिलाने की इजाजत दी जाएगी।" एक अन्य निर्देश में कहा गया कि "सड़कों पर नमाज पढ़ने पर पाबंदी रहेगी और अगर कोई इसे नहीं मानेगा तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।"

संभल की तरह मीरांपुर में भी एक प्राचीन मंदिर को लेकर विवाद खड़ा हो गया। मोहल्ला मुश्तर्क में स्थित यह मंदिर मूलतः एक ब्राह्मण परिवार की निजी संपत्ति थी, जो 35 वर्ष पूर्व अपनी जमीन बेचकर चले गए थे। मंदिर वीरान पड़ा रहा, लेकिन कभी किसी ने उस पर कब्जा नहीं किया। हाल ही में कुछ तत्वों ने दावा किया कि ‘मुसलमानों ने मंदिर पर कब्जा कर लिया है और अब इसे फिर से बनाया जाएगा।’ हालात इतने तनावपूर्ण हो गए कि हिंदू समुदाय के लोग बड़ी संख्या में मंदिर की तरफ कूच की तैयारी करने लगे। तनाव के चलते बाजार बंद हो गया। पुलिस ने मुसलमानों से कहा कि वे "किसी भी उकसावे पर प्रतिक्रिया न दें और अपनी सड़कों की सुरक्षा करें।"
पुलिस को पता था कि दंगा भड़काने के लिए पत्थरबाजी करने के लिए बाहर से लोगों को लाया जा सकता है। लेकिन इस घटना से यह भी साबित होता है कि पुलिस चाहे तो किसी भी दंगे को होने से रोक सकती है।
उधर मेरठ में भी पुलिस ने ऐलान किया था कि अगर किसी मुसलमान ने सड़क पर नमाज पढ़ी तो उसका पासपोर्ट और पहचान पत्र रद्द कर दिया जाएगा। ईद के दिन जब ईदगाह नमाजियों से भर गई तो किसी को भी बाहर नमाज पढ़ने की इजाजत नहीं दी गई और पुलिस ने सड़कें भी बंद कर दीं, जिससे लोगों को काफी दिक्कतें भी हुईं।
ये घटनाएं दर्शाती हैं कि एक वर्ग विशेष के लिए कानून कड़े किए जा रहे हैं, जबकि दूसरे वर्ग के लिए ऐसी कोई पाबंदियां नहीं दिखतीं। होली के अवसर पर मीरांपुर में कुछ युवकों ने सड़क पर अंग्रेजी में ‘इस्लाम’ लिखकर, आपत्तिजनक चिह्न बनाकर और भड़काऊ नारे लगाकर हंगामा किया। इसका उद्देश्य एक विशिष्ट वर्ग को भड़काना था। स्थानीय लोगों ने पुलिस से शिकायत की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। इससे पता चलता है कि त्योहारों का इस्तेमाल सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है।
कई अवसरों पर यह देखा गया कि जुलूसों में तेज आवाज में डीजे बजाकर आपत्तिजनक गाने बजाए गए, खासकर मस्जिदों के सामने। इसके बाद माइक्रोफोन से भड़काऊ नारे लगाए जाते हैं और मस्जिद की ओर इशारा करते हुए सेल्फी ली जाती है, जिसे सोशल मीडिया पर साझा किया जाता है।

इस पूरे माहौल में एक सकारात्मक पहलू भी सामने आया। इस साल पहली बार ईद के लिए मीरांपुर के मुस्लिम इलाकों को सजाया गया, लेकिन सजावट मुख्य बाजार के शुरू में ही रुक गई, जहां अधिकांश दुकानदार हिंदू हैं। इससे कुछ हिन्दू भाई असहज हो गये। उन्होंने कहा, "जब दिवाली पर पूरा बाजार सजाया जाता है, तो ईद पर क्यों नहीं?" इसलिए, हिंदू समुदाय ने दान दिया और पूरे मुख्य बाजार को रोशनी से जगमगा दिया। यह घटना साबित करती है कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, आज भी ऐसे लोग हैं जो सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर जीना चाहते हैं।
मीरांपुर जैसे कस्बे जो कभी एकता और भाईचारे के प्रतीक थे, अब धीरे-धीरे सांप्रदायिकता का शिकार हो रहे हैं। लेकिन कुछ सकारात्मक उदाहरण हमें उम्मीद देते हैं कि शायद अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। अब हमें यह तय करना है कि हम विभाजन का रास्ता अपनाएंगे या एकता का।
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