प्रेमचंद जयंती पर उनका ही लिखा लेख: असली हिन्दू-मुस्लिम लड़ाई तो कभी हुई ही नहीं

आज यानी 31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद की जयंती है। प्रेमचंद ने यह लेख नवंबर, 1931 में लिखा था। तेजी से बदलते मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक माहौल में इसे फिर से पढ़े जाने की जरूरत है। उनकी जयंती के बहाने यह कालजयी आलेख:

प्रेमचंद/ फोटो: Twitter
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मुंशी प्रेमचंद

दिलों में गुबार भरा हुआ है, फिर मेल कैसे हो। मैली चीज पर कोई रंग नहीं चढ़ सकता, यहां तक कि जब तक दीवाल साफ न हो, उस पर सीमेंट का पलस्तर भी नहीं ठहरता। हम गलत इतिहास पढ़-पढ़कर एक दूसरे के प्रति तरह-तरह की गलतफहमियां दिल में भरे हुए हैं और उन्हें किसी तरह दिल से निकालना नहीं चाहते, मानो उन्हीं पर हमारे जीवन का आधार है। मुसलमानों को अगर यह शिकायत है कि हिन्दू हमसे परहेज करते हैं, हमें अछूत समझते हैं, हमारे हाथ का पानी तक नहीं पीना चाहते, तो हिन्दुओं को यह शिकायत है कि मुसलमानों ने हमारे मंदिर तोड़े, हमारे तीर्थस्थानों को लूटा, हमारे राजाओं की लड़कियां अपने महल में डालीं और जाने क्या-क्या उपद्रव किए। हिन्दू मुसलमानों के आचार और धर्म की हंसी उड़ाते हैं, मुसलमान हिन्दुओं के आचार और धर्म की।

विजयी जाति पराजितों पर जो सबसे कठोर आघात करती है, वह है, उनके इतिहास को विषैला बना देना। प्राचीन, हमारे भविष्य का पथ प्रदर्शक हुआ करता है। प्राचीन को दूषित करके, उसमें द्वेष और भेद और कीना भरकर, भविष्य को भुलाया जा सकता है। यही भारत में हो रहा है। यह बात हमारे अंदर ठूंस दी गई है कि हिन्दू और मुसलमान हमेशा से दो विरोधी दलों में विभाजित हो रहे हैं, हालांकि ऐसा कहना सत्य का गला घोंटना है। यह बिलकुल गलत है कि इस्लाम तलवार के बल पर फैला। तलवार के बल से कोई धर्म नहीं फैलता, और कुछ दिनों के लिए फैल भी जाए, तो चिरजीवी नहीं हो सकता। भारत में इस्लाम के फैलने का कारण ऊंची जाति वाले हिन्दुओं का नीची जातियों पर अत्याचार था।

बौद्धों ने ऊंच-नीच का भेद मिटाकर नीचों के उद्धार का प्रयास किया और इसमें उन्हें अच्छी सफलता मिली, लेकिन जब हिन्दू धर्म ने फिर जोर पकड़ा, तो नीची जातियों पर फिर वही पुराना अत्याचार शुरू हुआ, बल्कि और जोरों के साथ। ऊंचों ने नीचों से उनके विद्रोह का बदला लेने की ठानी। नीचों ने बौद्ध काल में अपना आत्मसम्मान पा लिया था। वे उच्चवर्गीय हिन्दुओं से बराबरी का दावा करने लगे थे। उस बराबरी का मजा चखने के बाद, अब उन्हें अपने को नीच समझना दुस्सह हो गया। यह खींचतान हो ही रही थी कि इस्लाम ने नए सिद्धांतों के साथ पदार्पण किया। वहां ऊंच-नीच का भेद न था। छोटे-बड़े, ऊंच-नीच की कैद न थी। इस्लाम की दीक्षा लेते ही मनुष्य की सारी अशुद्धियां, सारी अयोग्यताएं, मानो धुल जाती थीं। वह मस्जिद में इमाम के पीछे खड़ा होकर नमाज पढ़ सकता था, बड़े से बड़े सैयद-जादे के साथ एक दस्तरखान पर बैठकर भोजन कर सकता था। यहां तक कि उच्चवर्गीय हिन्दुओं की दृष्टि में भी उसका सम्मान बढ़ जाता था।

हिन्दू अछूत से हाथ नहीं मिला सकता, पर मुसलमानों के साथ मिलने-जुलने में उसे कोई बाधा नहीं होती। वहां कोई नहीं पूछता कि अमुक पुरुष कैसा, किस जाति का मुसलमान है। वहां तो सभी मुसलमान हैं। इसलिए नीचों ने इस नए धर्म का बड़े हर्ष से स्वागत किया और गांव के गांव मुसलमान हो गए। जहां वर्गीय हिन्दुओं का अत्याचार जितना ही ज्यादा था, वहां यह विरोधाग्नि भी उतनी ही प्रचंड थी, और वहीं इस्लाम की तबलीग भी खूब हुई। कश्मीर, असम, पूर्वी बंगाल आदि इसके उदाहरण हैं। आज भी नीची जातियों में गाजी मियां और ताजियों की पूजा बड़ी श्रद्धा से की जाती है। उनकी दृष्टि में इस्लाम विजयी शत्रु नहीं, उद्धारक था।


यह है इस्लाम के फैलने का इतिहास, और आज भी वर्गीय हिन्दू अपने पुराने संस्कारों को नहीं बदल सके हैं। आज भी छूत-छात और भेदभाव को मानते आते हैं। आज भी मंदिरों में, कुओं पर, संस्थाओं में बड़ी रोक-टोक है। महात्मा गांधी ने अपने जीवन में सबसे बड़ा जो काम किया, वह इस भेद-भाव पर कुठाराघात है। वर्गीय हिन्दुओं में जो एक सूक्ष्म-सी ऊपरी जागृति नजर आती है, इसका श्रेय महात्माजी को है। तो इस्लाम तलवार के बल से नहीं, बल्कि अपने धर्म-तत्वों की व्यापकता के बल से फैला। इसलिए फैला कि उसके यहां मनुष्य मात्र के अधिकार समान हैं।

अब रही संस्कृति। हमें तो हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति में कोई ऐसा मौलिक भेद नहीं नजर आता। अगर मुसलमान पाजामा पहनता है, तो पंजाब और सीमा प्रांत के सारे हिन्दू स्त्री-पुरुष पाजामा पहनते हैं। अचकन में भी मुसलमानी नहीं रही। रहा चौका-चूल्हा। पंजाब में चौके-चूल्हे का झगड़ा, हिन्दुओं में भी नहीं है और शिक्षित समाज तो कहीं भी चौके-चूल्हे का कायल नहीं। मध्य प्रांत के मुसलमान भी हिन्दुओं की ही भांति चौके-चूल्हे की नीति का व्यवहार करते हैं। हिन्दू-मुस्लिम भेद के लिए यहां भी कोई टिकाव नहीं मिलता।

हमारे देवता अलग हैं, उनके देवता अलग। पुराणों में देवता को चाहे कुछ कहा जाय, हम तो प्रतिभा को ही देवता मानते हैं। शिव, राम, कृष्ण और विष्णु जैसे हमारे देवता हैं, वैसे ही मुहम्मद, अली और हुसैन आदि मुसलमानों के देवता या पूज्य पुरुष हैं। हमारे देवता जैसे त्याग, आत्मज्ञान, वीरता और संयम के लिए आदरणीय हैं, उसी भांति मुस्लिम देवता भी हैं। अगर हम श्रीरामचंद्र को स्मरणीय समझ सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि हुसैन को उतना ही आदरणीय न समझें। हम मंदिरोों में पूजा करने जाते हैं, मुसलमान मस्जिदों में, ईसाई गिरिजाघरों में। मगर कोई जैनी या आर्यसमाजी मंदिर में पूजा करने नहीं जाता। क्या इसलिए हम जैनियों या आर्यसमाजियों को अपने से पृथक समझते हैं?

सिख भी हमारे मंदिरों में नहीं जाते। उनके गुरुद्वारे अलग हैं, पर इसलिए हम सिक्खों से लड़ने नहीं जाते। यों तो हिन्दू-हिन्दू में, जाति-जाति में, वर्ग-वर्ग में भेद हैं और उन भेदों पर हम लड़ने लग जायं, तो जीवन नरक-तुल्य हो जाय। जब हम इन भेदों को भूल जाते हैं, तो मस्जिदों में नमाज पढ़ना क्यों आपत्ति की बात समझी जाय? महात्मा गांधी तो गिरिजा में भी प्रार्थना कर लेते हैं। यहां भी हमें हिन्दू-मुस्लिम भेद के लिए कोई आधार नहीं मिलता। तो क्या वह गऊ-हत्या में है? या शिखा में? या जनेऊ में? जनेऊ तो आज कम-से-कम अस्सी फीसदी हिन्दू नहीं पहनते, और शिखा भी अब उतनी व्यापक वस्तु नहीं है। हम किसी हिन्दू को इसलिए अहिन्दू नहीं कह सकते कि वह शिखाधारी नहीं है। बंगाल में शिखा का प्रचार नहीं। रही गऊ-हत्या। यह तो मालूम ही है कि अरब में गायें नहीं होतीं। वहां तो ऊंट और घोड़े ही पाए जाते हैं। भारत खेती का देश है और यहां गाय को जितना महत्व दिया जाय, उतना थोड़ा है। लेकिन आज कौल-कसम लिया जाय तो शायद ऐसे बहुत कम राजे-महाराजे या विदेश में शिक्षा प्राप्त करने वाले हिन्दू निकलेंगे जो गौमांस न खा चुके हों। उनमें से कितने ही आज हमारे नेता हैं, और हम उनके नामों पर जयघोष करते हैं।


अछूत जातियां भी गौमांस खाती हैं, और आज हम उनके उत्थान के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। हमने उनके मंदिरों में प्रवेश के निमित्त कोई शर्त नहीं लगाई और न लगानी चाहिए। हमें अख्तियार है, हम गऊ की पूजा करें लेकिन हमें यह अख्तियार नहीं है कि हम दूसरों को गऊ-पूजा के लिए बाध्य कर सकें। हम ज्यादा-से-ज्यादा यही कर सकते हैं कि गौमांस-भक्षियों की न्यायबुद्धि को स्पर्श करें। फिर मुसलमानों में अधिकतर गौमांस वही लोग खाते हैं जो गरीब हैं और गरीब अधिकतर वही लोग हैं जो किसी जमाने में हिन्दुओं से तंग आकर मुसलमान हो गए थे। वे हिन्दू समाज से जले हुए थे और उसे जलाना और चिढ़ाना चाहते थे। वही प्रवृत्ति उनमें अब तक चली आती है। जो मुसलमान हिन्दुओं के पड़ोस में, देहातों में रहते हैं, वे प्रायः गौमांस से उतनी ही घृणा करते हैं जितनी साधारण हिन्दू। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि मुसलमान भी गौभक्त हों, तो उसका उपाय यही है कि हमारे और उनके बीच में घनिष्ठता हो, परस्पर ऐक्य हो। तभी वे हमारे धार्मिक मनोभावों का आदर करेंगे।

बहरहाल इस जाति द्वेष का कारण गौहत्या नहीं है। और उर्दू-हिन्दी का झगड़ा तो थोड़े से शिक्षितों तक ही महदूद है। अन्य प्रांतों के मुसलमान उर्दू के भक्त नहीं और न हिन्दी के विरोधी हैं। वे जिस प्रांत में रहते हैं, उसी की भाषा का व्यवहार करते हैं। सारांश यह कि हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का कोई यथार्थ कारण नहीं नजर आता। फिर भी वैमनस्य है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यहां तक कि हममें से बहुत कम ऐसे महानुभाव हैं जो इस वैमनस्य के ऊपर उठ सकें। खेद तो यह है कि हमारे राष्ट्रीय नेता भी इस प्रवृत्ति से खाली नहीं हैं। और यही कारण है कि हम एकता-एकता चिल्लाने पर भी उस एकता से उतने ही दूर हैं।

जरूरत यह है कि जैसा हम पहले कह चुके हैं कि हम गलत इतिहास को दिल से निकाल डालें और देश-काल को भली भांति विचार करके अपनी धारणाएं स्थिर करें। तब हम देखेंगे कि जिन्हें हम अपना शत्रु समझते थे, उन्होंने वास्तव में दलितों का उद्धार किया है। हमारे जांत-पांत के कठोर बंधनों को सरल किया है और हमारी सभ्यता के विकास में सहायक हुए हैं। यह कोई छोटी और महत्वहीन बात नहीं है कि 1857 के विद्रोह में हिन्दू-मुसलमान- दोनों ही ने जिसे अपना नेता बनाया, वह दिल्ली का शक्तिहीन बादशाह था। हिन्दू-मुसलमान नृपतियों में पहले भी लड़ाइयां हुईं है, पर वे लड़ाइयां धार्मिक द्वेष के कारण नहीं, स्पपर्धा के कारण थीं, उसी तरह जैसे हिन्दू राजे आपस में लड़ा करते हैं। उन हिन्दू-मुस्लिम लड़ाइयों में हिन्दू सिपाही मुसलमानों की ओर होते थे और मुसलमान सिपाही हिन्दुओं की ओर।

प्रोफेसर मुहम्मद हबीब ऑक्सन ने अपने ‘मध्यकाल में हिन्दू-मुस्लिम संबंध’ नाम से इस विषय पर एक विद्वतापूर्ण लेख लिखा है जिसका एक अंश हम नकल करते हैंः ‘कहा जाता है कि हिन्दुओं को घोड़े पर सवार होने, तीर चलाने और जुलूस निकालने तथा स्नान और पूजा-पाठ का निषेध था, पर ये किंवदंतियां मौलिक प्रमाणों के गलत मुताला (अध्ययन) से पैदा हुई हैं। उस जमाने का हिन्दू मजहब संगठित और शक्तिशाली था। उसके साथ मुसलमान बादशाह इसलिए रवादारी बरतते थे कि इसके सिवा दूसरी राह न थी। उनके लिए सांप्रदायिक संघर्ष का फल तबाही के सिवा कुछ न होता। यह विचित्र बात है कि मध्यकालीन इतिहास के राजनीतिक या ऐतिहासिक साहित्य में हिन्दू-मुस्लिम द्वंद्व का कोई छोटा-सा प्रमाण नहीं मिलता। लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि हिन्दू इसके लिए तैयार न थे। नहीं! वे तो अपनी रणप्रियता के लिए बदनाम थे। लेकिन उस काल की किसी लड़ाई में भी हम सेनाओं को सांप्रदायिक आधार पर लड़ते नहीं पाते। अफगानी सिपाहियों का एक दस्ता तराइ की लड़ाई में राय पिथौरा के नीचे लड़ा था। मुसलमानों की एक पैदल सेना ने पानीपत की लड़ाई में मराठों की मदद की थी। असली हिन्दू-मुस्लिम लड़ाई तो वास्तव में कभी हुई ही नहीं।’

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