आकार पटेल का लेख: हर मोर्चे पर फेल बीजेपी सरकार कैसे जीत सकेगी 2019 का चुनाव

जब मौजूदा सरकार चुनाव में उतरेगी तो उसके नारों में सिर्फ दावे होंगे जो आंकड़ों पर खरे नहीं उतरेंगे, ऐसे में विपक्ष के तरकश में तीरों की कमी नहीं होगी। जरूरत है इन अस्त्रों को धार देकर इस्तेमाल करने की।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

अमेरिका में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता थोड़ी बुहत इसलिए बची हुई है क्योंकि वहां द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे ज्यादा आर्थिक प्रगति देखने को मिल रही है। पिछली तिमाही में अमेरिका की आर्थिक विकास की दर 4 फीसदी से ज्यादा रही। भारत में हमें यह आंकड़ा बहुत उत्साहित नहीं लगेगा, लेकिन जब हम देखेंगे कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था हमारे मुकाबले 10 गुना बड़ी है और जनसंख्या हमारे मुकाबले सिर्फ एक चौथाई, तो इस प्रगति के मायने समझ आएंगे।

इसका यह अर्थ भी है कि एक औसत अमेरिकी की कमाई एक आम भारतीय से 40 गुना ज्यादा है। अमेरिका में जब विपक्ष ट्रम्प के व्यक्तिगत दुर्व्यवहार और ऊलजलूल नीतियों की आलोचना करता है, तो सबसे बड़ा इशारा आर्थिक प्रदर्शन और रोजगार हासिल करने वाले लोगों की संख्या की तरफ होता है।

अमेरिका में मध्यावधि चुनाव बस तीन सप्ताह दूर हैं और इससे पता चलता है कि वहां चुनाव किस मुद्दे पर लड़ा जाएगा। विपक्ष ट्रम्प को पागल कहेगा तो ट्रम्प विपक्ष अपना प्रदर्शन सामने रखेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि ट्रम्प के रवैये को लेकर लोगों को वाकई दिक्कत है, यहां तक की उनकी अपनी पार्टी में भी कई लोग उनके रवैये को तर्कपूर्ण नहीं मानते हैं। लेकिन ट्रम्प का अपना जनाधार है जो विपक्ष के आरोपों को नजरंदाज़ करता है। ट्रम्प का बातें और अंदाज़ जिताऊ साबित हुए हैं, इसलिए उनकी लोकप्रियता में सुधार हुआ है।

2017 और इस साल भी, ऐसा लगता रहा कि विपक्ष चुनाव में बाजी मार लेगा क्योंकि उसके पास असली मुद्दे थे, लेकिन अब ऐसा नहीं लगता और संभावना है कि ट्रम्प की पार्टी अगले चुनाव में पहले से बेहतर प्रदर्शन करे। ऐसे में जिम्मेदारी अब विपक्ष की है कि वह अपना नजरिया और सोच इस तरह लोगों के सामने रखे कि ताकि वह चुनाव जीत सके।

भारत में चुनावों की प्रकृति ऐसी होती है कि आमतौर पर इस पर विपक्ष का नियंत्रण होता है न कि सत्तापक्ष का। 30 बरस पहले, विपक्ष कांग्रेस (उस समय उसके पास लोकसभा में 400 सीटें थीं) के विरुद्ध एकजुट हुआ था, और सारा ध्यान बोफोर्स के कथिक घोटाले पर था। राजीव गांधी ने 21वीं सदी के भारत की बात की और एक अच्छा संदेश देने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे। हकीकत तो यह है कि भारत में हमेशा नकारात्मक मुद्दे ज्यादा काम करते हैं, न कि अच्छे। कोई भी अनुभवी राजनीतिज्ञ यही बात बोलेगा।

2011 और 2013 में जो घोटाले आदि सामने आए थे, उनकी बदौलत मनमोहन सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। मनमोहन सरकार को विपक्ष ने एक अक्षण, कमजोर और मजूबर सरकार के तौर पर पेश किया, और सरकार भी अपना खुद का बचाव नहीं कर पाई थी।

मौजूदा सरकार के ऊपर भी ऐसे ही आरोप लगाए जा सकते हैं, कि यह नाकारा सरकार है आदि आदि। अगर हाल की सुर्खियों पर नजर डालें तो पता चलता है कि ज्यादातर नकारात्मक ही हैं। कम से कम 10 ऐसी सुर्खियां तो तुरंत जहन में आती हैं: नोटबंदी, लिंचिंग, रुपए में गिरावट, कृषि क्षेत्र का संकट, हर भारतीय के खाते में 15 लाख का अधूरा वादा, महंगाई, पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दाम, केंद्रीय मंत्री पर यौन उत्पीड़न के आरोप और औपचारिक क्षेत्र में नौकरियों की कमी।

और भी बहुत कुछ ऐसा ही हो सकता है। मैंने कुछ मुद्दों को जानकर छोड़ा है, क्योंकि वे चुनावी मुद्दा नहीं बनते। सामरिक मामलों पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का साफ मानना है कि भारत ने अपने पड़ोस में चीन के सामने आत्मसमर्पण सा कर दिया है। श्रीलंका, मालदीव, भूटान, नेपाल और यहां तक कि पाकिस्तान को लेकर भी हमारी रणनीती और नीति बीते चार साल में बुरी तरह नाकाम साबित हुई है।

अब साफ नजर आ रहा है कि विपक्ष के पास अस्त्रों की कमी नहीं है जिनके दम पर चुनाव प्रचार को तैयार और विकसित किया जा सकता है। लेकिन क्या ये सब दिख रहा है? कम से कम मुझे तो नजर नहीं आ रहा। और अगर है भी तो प्रभावी और समझ में आने वाला तो बिल्कुल नहीं है। और, हां ध्यान रखना कि सरकार ने तो अभी अपना प्रचार शुरु ही नहीं किया है। अगले कुछ दिनों में हमें इसकी बानगी दिख जाएगी जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सरकार अपने प्रचार को खोलेगी तो संभावना यही है कि सारे के सारे कथ्य पीछे रह जाएंगे। यह भी संभव है कि 31 अक्टूबर को सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा के अनावरण के साथ ही इसकी शुरुआत हो।

लेकिन सारे नैरेटिव सिर्फ दावों पर आधारित होंगे, आंकड़ों पर नहीं। अमेरिका में रोजगार के आंकड़े बहुत सटीक होते हैं क्योंकि इन्हें कई स्त्रोतों से जुटाया जाता है। लेकिन, भारत में चूंकि अर्थव्यवस्था का औपचारिक क्षेत्र ही बहुत सीमित है, इसलिए आंकड़े भी नहीं जुट पाते। ऐसे में हमें पता ही नहीं चलता कि अर्थव्यवस्था में आखिर चल क्या रहा है। सरकार तो आसानी से बता देती है कि आज के हालात 2014 से बहुत बेहतर हैं। लेकिन क्या वह ऐसा कर पाएगी।

मैंने जो 10 मुद्दे गिनाए उसके आंकड़े विपक्ष की तरफ हैं, अब यह विपक्ष पर निर्भर करता है कि वे इसका कैसे फायदा उठाते हैं।

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