डीपसीक के बाद अमेरिका-चीन के बीच शुरु हुई एआई रेस, स्पेस रेस से कितनी अलग / आकार पटेल

चीन के डीपसीक के उद्गम के बाद अमेरिका और चीन के बीच एक एआई रेस शुरु हुई है। यह पूर्व की स्पेस रेस से कितनी अलग है। और भारत को इस मोर्चे पर ध्यान रखना होगा कि यह रेस पूर्व और पश्चिम के बीच स्पर्धा भी है।

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आकार पटेल

पिछले महीने, 22 जनवरी को, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और तीन कंपनियों ने डेटा सेंटर और पॉवर प्लांट (बिजली संयंत्र) स्थापित करने और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में अमेरिका का वर्चस्व जारी रखने के लिए 500 अरब अमेरिकी डॉलर के प्रोजेक्ट का ऐलान किया। इसके 5 दिन बाद ही चीन का एक आर्टिफिशियल चैटबॉट, डीपसीक एप स्टोर पर नंबर एक डाउनलोड बन गया। यह अभी भी काफी लोकप्रिय है, और जिन लोगों ने इसे इस्तेमाल किया है, उनका कहना है कि यह ‘एक्सीलेंट’ है।

डीपसीक की यह कामयाबी अप्रत्याशित और चौंकाने वाली थी क्योंकि पिछले कई सालों से अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने चीन के सबसे सॉफिस्टिकेटेड यानी परिष्कृत कंप्यूटर चिप्स पर पाबंदी लगा रखी थी। हालांकि चीनी कंप्यूटर वैज्ञानिकों की काबिलियत और कौशल को तो माना गया था, लेकिन अमेरिका को लगा कि उन्हें हाशिए पर धेकेले रखने का सबसे अच्छा हार्डवेयर उन पर प्रतिबंध लगाना ही है।

किसी ने डीपसीक के उद्भव को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ‘स्पुतनिक मोमेंट’ की संज्ञा दी है, जिसे आमतौर पर स्पेस रेस का मानक माना जाता रहा है। तो क्या यह इस बार अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा है न किस अमेरिका और सोवियत के बीच, इसे समझने के लिए आइए पहले स्पेस रेस पर नजर डालते हैं।

स्पुतनिक 1957 में ऑर्बिट में गया था। यानी, उस घटना के करीब एक दशक बाद जब रुस और अमेरिका द्वारा पकड़े गए जर्मन वैज्ञानिकों ने रॉकेट प्रोपल्जन यानी रॉकेट को अंतरिक्ष में भेजने का काम जारी रखा था। जिन वैज्ञानिकों को पकड़ा गया था उनमें सबसे महत्वपूर्ण वेहरनर वॉन ब्राउन नाम के वैज्ञानिक थे, जो खुद अमेरिका के पास आए थे। अमेरिका को इससे एक लाभ मिल था, फिर भी सोवियत संघ ने सर्गेई कोरोलेव नाम के एक प्रतिभाशाली रॉकेट डिजाइनर की अगुवाई में स्पूतनिक को ऑर्बिट में भेजने में कामयाब रहा। सर्गेई कोरोलैव का डिजाइन अभी भी यानी 2025 में रूसी रॉकेट द्वारा इस्तेमाल में आता है।

स्पुतनिक ने जब चौबीसों घंटे पृथ्वी पर सिग्नल भेजना शुरू कर दिए, तो अमेरिका इस रेस में आगे आने की कोशिश करने लगा और इसके लिए उसने बेशुमार संसाधन खर्च किए। लेकिन रूसी कई वर्षों तक स्पेस रेस में आगे रहा। उसने 1957 में पहला पशु अंतरिक्ष में भेजा, फिर 1961 में पहला मानव यूरी गागरिन भेजा, 1962 में मंगल ग्रह पर पहला प्रोब भेजा, 1963 में पहली महिला अंतरिक्ष में भेजी, 1965 में पहली बार स्पेस वॉक किया, 1966 में चांद पर पहली सॉफ्ट लैंडिंग की और यहां तक कि 1966 में ही जानवरों को चंद्रमा की कक्षा में भेजा और सुरक्षित रूप से वापस लौटाया।


लेकिन अमेरिका स्पेस में एक शानदार उपलब्धि हासिल करते हुए 1969 में चंद्रमा पर मानव को उतार दिया। अमेरिकी अंतरिक्ष प्रशासन निकाय नासा का बजट उस समय अमेरिका की संघीय सरकार के व्यय का 4 फीसदी था।

जब अमेरिकियों ने चाँद पर कुछ और क्रू भेजे, तो स्पेस रेस में लोगों की दिलचस्पी कम होने लगी थी। इसके बाद अमेरिका ने नासा के बजट में कटौती की और वॉन ब्राउन द्वारा विकसित विशाल रॉकेट, सैटर्न वी, को कम क्षमता वाले स्पेस शटल से बदल दिया गया। इस दौरान सोवियत संघ ने चाँद पर उतरने की कोशिशें बंद कर दीं, क्योंकि उनका अपना बड़ा रॉकेट, एन-1 नाकाम हो गया और कई बार दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।

यह अभी भी वह समय था जब जीपीएस और मोबाइल फोन नहीं आए थे और टेलीविजन प्रसारण भी टेरेस्टरियल थे यानी सैटेलाइट से नहीं जुड़े थे। इसका मतलब यह था कि अंतरिक्ष और उपग्रहों में निवेश करने में ज्यादा लोगों की दिलचस्पी नहीं थी, और दशकों तक यही स्थिति रही। तो यह थी स्पेस रेस यानी अंतरिक्ष दौड़ की कहानी।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस रेस की कहानी में कुछ बातें थोड़ी अलग हैं। पहली तो यह कि इसे आगे बढ़ाने में जनहित, राष्ट्रीय गौरव या सरकारी खर्च नहीं जुड़ा हैं। इस मोर्चे पर कॉर्पोरेट जगत ही है जो इस क्षेत्र को आगे बढ़ा रहे हैं।

अमेरिका में एक दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने वाली कंपनियों के पास ऐसा करने के लिए सबसे अधिक संसाधन हैं: गूगल, फेसबुक, एलॉन मस्क, माइक्रोसॉफ्ट और ओपन एआई आदि। इसका मकसद मानव स्तर की कृत्रिम बुद्धिमत्ता हासिल करना है और फिर उस बुद्धिमत्ता को खुद ही खुद को बेहतर बनाने देना है। ऐसा माना जाता है कि पहला कदम, यानी मानव स्तर की बुद्धिमत्ता तक पहुंचने के बाद दूसरा कदम बहुत तेज़ी से हासिल किया जा सकता है।

इस मामले में जो कंपनी दूसरों से आगे निकल जाएगी उसे सबसे ज्यादा लाभ होगा। इस कारण इस पर होने वाला खर्च उन चीज़ों या कारकों पर निर्भर नहीं होगा जिनके चलते अंतरिक्ष दौड़ यानी स्पेस रेस खत्म हुई थी। एआई रिसर्च पर कुल खर्च नासा और सोवियत अंतरिक्ष कार्यक्रम पर किए गए कुल खर्च से कई गुना ज़्यादा है।


दूसरा अंतर यह है कि इस मोर्चे पर राष्ट्रीय सुरक्षा का हित जुड़ा है, क्योंकि अगर चीन डीपसीक की तरह ऐसा एआई विकसित कर लेता है जो वहां पहुंचने वाला पहला देश है, तो अमेरिका को अपने वैश्विक प्रभुत्व के खत्म होने का डर सताने लगेगा। और इसी कारण अमेरिका में, चाहे कोई भी राष्ट्रपति हो, और निश्चित रूप से चीन को पीछे रखने के लिए, अपनी कंपनियों में आगे की प्रगति के लिए दबाव बनाना जारी रखेगा।

ध्यान देने की बात है कि यूरोपीय संघ यूं तो आर्थिक रूप से अमेरिका और चीन जितना ही शक्तिशाली है, लेकिन इस क्षेत्र में कोई गंभीर प्रतिस्पर्धी नहीं है। रूस सहित कोई भी अन्य देश ऐसा नहीं है, जो 60 साल पहले की तकनीकी दिग्गज की छाया मात्र भी हो। यह दौड़ अमेरिका और उसके एकमात्र प्रतिस्पर्धी चीन के बीच है।

स्पेस रेस के उलट, सुपरइंटेलिजेंस विकसित करने की दौड़ दरअसल कोई साइड प्रोजेक्ट नहीं है। यह उन कंपनियों और देशों के मूल हितों से जुड़ा है जहां इस पर काम हो रहा है। इन दो वैश्विक प्रतिद्वंद्वियों के अलावा सभी देश केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि इसके नतीजे किसी तरह उनके अनुकूल हो या, अधिक सटीक रूप से कहें तो, उनके लिए कम प्रतिकूल हो। वैसे भी पिछली दो शताब्दियों में, देशों के बीच तकनीकी अंतर कम हुआ है।

पिछली बार जब उल्लेखनीय अंतर था, तो दक्षिण एशिया, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका के अधिकांश हिस्सों सहित दुनिया का एक बड़ा हिस्सा उपनिवेश बन गया था। बड़ी आबादी वाले देशों का अधिक विकसित और छोटी आबादी वाले देशों पर नियंत्रण हो गया था। चीन ने 1839 में अंग्रेजों के अधीन शुरू होने वाली अपमान की सदी के रूप में काफी कुछ झेला। उसने यह संकल्प लिया था कि वह अब कभी भी ऐसी स्थिति में नहीं आएगा जहां उसे मजबूर किया जा सके, और 2025 में वह वर्चस्व का विरोध करने की क्षमता के साथ सामने है।

एआई रेस और स्पेस रेस में एक और आखिरी अंतर है। हालांकि इन दोनों रेस को लोकतंत्र और सत्तावादी व्यवस्थाओं के बीच एक बड़ी प्रतिद्वंद्विता के हिस्से के रूप में चित्रित किया जा रहा है, यह वर्तमान प्रतियोगिता भी पश्चिम और पूर्व के बीच की है। भारत जैसे विकासशील देशों में लोकतंत्र, ट्रम्प के अमेरिका के प्रति आकर्षित हो सकते हैं, लेकिन ध्यान देना होगा कि यह अमेरिका और एशिया के बीच की प्रतियोगिता भी है।

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