किसी भी सरकारी फैसले पर सवाल उठाना आखिर राजनीति कैसे! लोकमुक्ति का मार्ग तो राजनीति ही है

राजनीति के अलावा विकल्प भी क्या हैं? क्या हम बिल्ली की तरह आँख मींचकर मान ले कि दुनिया मे सब ठीक है। क्या हम अपने ही देश में वोट डालने के अलावा बाकी समय खामोश तमाशबीन बनकर रह जाएं? क्या हम राजनीति करते हुए भी उसे ’’जनवादी’’ ’’सामाजिक’’ काम का जामा पहनाकर प्रस्तुत किया करें।

फोटो: सोशल मीडिया
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मीनाक्षी नटराजन

व्यवस्था का कहना है कि ’’राजनीति मत करो।’’ उसकी गिरफ्त मे पड़े प्रचार माध्यमों का भी चीख-चीखकर कहना है कि ’’देश जानना चाहता है, आप फलां मुद्दे पर राजनीति क्यों कर रहे है?’’ तानाशाहीपूर्ण तालाबंदी, पैदल लौटते बेहाल मजदूरों की दशा पर सवाल किये जाएं तो कहा जाता है- ’’राजनीति बंद करो।’’ गिरती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी पर बहस की जाए तो कहा जाता है- ’’राजनीति मत करो।’’ अपनी नागरिकता के लिए लड़ा जाए तो कहा जाता है ’’साजिश के तहत राजनीति हो रही है।’’ चीन विवाद पर देश को भरोसे में लेने के लिए कहा जाए तो जवाब है- ’’रक्षा मामलों मे राजनीति मत करो।’’ सड़कों पर निकलने के लिए मजबूर किसान, श्रमिक, विस्थापन को झेलते आदिवासी समुदाय के प्रश्न उठाना ’’शहरी नक्सलवाद’’ और ’’गंदी राजनीति’’ करार कर दी जाती है। पर्यावरण पर बोलना ’’विकास विरोधी राजनीति’’ है। पी एम केयर पर पारदर्शिता की गुहार ’’सस्ती राजनीति’’ है। व्यवस्था का कहना है कि ’’राजनीति मत करो।’’

ऐसे मे क्या हमें कुछ जांच-परख नहीं करना चाहिए? आखिर यह राजनीति क्या है, जिससे सत्तारूढ़ व्यवस्था को इतना परहेज है। उसके बिछाए गए सोने की सलाखों के कैद मे पड़े लोकतंत्र के कमोबेश हर स्तंभ के बड़े वर्ग को भी राजनीति से ऐसा ही गुरेज है। कुलीन वर्ग ’’राजनीति’’ को पिछले पचास सालों से तोहमत मानता है। यहां तक कि राजनीतिक दल भी ’’राजनीति मत करो’’ के दबाव में आकर गुमनाम अपराध बोध से ग्रस्त हो जाते हैं। यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि कैसे उनका फलां फलां कदम राजनीतिक नहीं था। मानो स्पष्टीकरण दे रहे हों।


क्या वाकई राजनीति इतना घृणित कृत्य है? अंग्रेजी में ’’पॉलिटिक्स’’ और हिन्दी में ’’राजनीति’’ के मायने क्या है ? अंग्रेजी मे ’’पॉलिटिक्स’’ शब्द ’’पॉलिस’’ यानि ’’नगर’’, ’’पोलैटी’’ यानि ’’नागरिक’’ से आया है। नागरिकों की लोकनीति, उनके आपसी व्यवहार, सत्ता और उनके बीच का संबंध ’’पॉलिटिक्स’’ है। यही उसका शास्त्रीय मतलब है। अरस्तु ने तो माना कि ’’पालिटिक्स’’ के अलावा मुक्ति का कोई और मार्ग नहीं। आखिर मुक्ति कभी वैयक्तिक होती भी नहीं। वह नीति जो लोक समाज की सामूहिक मुक्ति का आधार बनें, वही वास्तविक अर्थ मे ’’पॉलिटिकल’’ होगी। ’’राजनीति’’ शब्द ’’पॉलिटिक्स’’ से कम खूबसूरत नहीं। वह ’’लोकव्यवहार’’ का फ्रेम तैयार करता है। हम चाहें न चाहें राजनीति की घुसपैठ हर क्षेत्र मे और हमारे घर में है। हम क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, क्या बोलेंगे, क्या सुनेंगे? इन सबके नेपथ्य में कोई न कोई लोकव्यवहार को संचालित करने वाली विचारधारा होगी। यही ’’राजनीति’’ है। हम सब साक्षी हैं कि राजनीति प्रकृति के क्रम में हस्तक्षेप करने या न करने जैसी मानव सभ्यता की नींव से भी जुड़ी है।

यदि हम समझते हैं कि नदियों को अविरल बहने का हक है, हिमालय की बर्फीली चोटियों को मानव अहं से मुक्त रहने का हक है, पहाड़, जंगल, वनस्पति को जीने का हक है, तो हमें राजनीति करनी पड़ेगी। यदि हम समझते हैं कि श्रमिकों को संगठित होकर अपने अधिकार की बात करने का हक है, आर्थिक गैर बराबरी के खिलाफ खड़े होने का हक है, तो हमें राजनीति करनी पड़ेगी। यदि हम चाहते हैं कि किसान को अपनी उपज का मूल्य तय करने का हक मिले, तो हमें राजनीति करनी होगी। यदि हम मानते है कि हर प्राकृतिक और सार्वजनिक संसाधन लोक समाज का साझा है और वो व्यवस्था के धनाढ्य पूंजीपतियों की बपौती नहीं है, तो हमें राजनीति करनी होगी। यदि हम अपने बच्चों की शिक्षा का फैसला किसी और के भरोसे नहीं छोड़ना चाहते हैं, सकारात्मक राष्ट्र निर्माण से परिपूर्ण रोजगार चाहते हैं, स्वास्थ्य का हक चाहते हैं तो हमें राजनीति करनी होगी। यदि हम नफरत और भेद से आजादी चाहते हैं, समता मूलक समाज की स्थापना चाहते हैं, तो राजनीति करनी होगी।


राजनीति के अलावा विकल्प भी क्या हैं? क्या हम बिल्ली की तरह आँख मींचकर मान ले कि दुनिया मे सब ठीक है। क्या हम अपने ही देश में वोट डालने के अलावा बाकी समय खामोश तमाशबीन बनकर रह जाएं? क्या हम राजनीति करते हुए भी उसे ’’जनवादी’’ ’’सामाजिक’’ काम का जामा पहनाकर प्रस्तुत किया करें। इस डर से कि चंद ताकतवर कुलीनों को यह शब्द भद्दी गाली समान लगता है। दूसरा विकल्प हिंसा का शेष रह जाता है। हिंसा का चक्र समाज को दोहन शोषण से कभी मुक्त नहीं कर सकता। ऐसे मे लोकतंत्रात्मक राजनीति के अतिरिक्त क्या लोक मुक्ति का और कोई अहिंसात्मक मार्ग शेष भी है?

यह सही है कि पिछले दिनों राजनीति के नाम पर धनबल, बाहुबल संख्या बल को बढ़ावा मिला है। लेकिन इससे लडॉने के लिए गैर राजनीतिक होना कोई विकल्प नहीं। अपने लोकतंत्र को प्रतिनिधिकता से सहभागिता की ओर ले जाना विकल्प है। सशक्त सहभागितापूर्ण, सहकार और नागरिक साझेदारी का निर्माण विकल्प है। उस सत्य की धुनी रमाने वाले अनंत ’’सत्यान्वेषी’’ ने जीवन भर राजनीति ही की थी। वे मानते थे कि बिना धर्म के राजनीति अनैतिक है। धर्म माने ’’सत्य’’। सत्य की पिपासा उन्हें राजनीति में लेकर आई। राजनीति के अलावा सत्य की खोज का और कोई बेहतरीन जरिया भी नहीं। असल राजनीति, निरपेक्ष अन्वेषण मांगती है। सत्य ऐसे ही खोजा जाता है। ऐसी राजनीति हर एक के मार्ग को सत्यान्वेषण का नूतन प्रयोग मानकर स्वीकारती है। अहं शून्य होकर लोकमुक्ति का प्रयास करती है। इसके बिना ’’मैं’’ से आजादी संभव नहीं।

इस साल की गांधी जयंती पर हमारा संकल्प ये होना चाहिए था कि हम राजनीति करेंगे। लोक निर्माण और लोकमुक्ति के लिए राजनीति को अपना मार्ग बनायेंगे। यही उस फकीर का मार्ग है। ’’वाद’’ ’’वादों’’ की कैद से आजाद ’’मार्ग’’। राजनीति यानि परम ब्रह्म की परछाई को सबमें समरूप से देखने का प्रयास। यह बिना ’’सत्य’’ के संभव नहीं।

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