मृणाल पाण्डे का लेखः जब हटेगी घाटी की घेरेबंदी, तो कितना सही निकलेगा हालात सामान्य होने का सरकारी आश्वासन? 

जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने का फार्मूला नए फार्माकोपिया से ईजाद किया गया है। कश्मीर में सुरक्षा का सख्त घेरा है। घाटी शेष दुनिया से कटी है। जब यह घेरेबंदी हटेगी, तो क्या वहां हालात एकदम सामान्य हो जाने का सरकारी दावा सही निकलेगा?

रेखाचित्रः डीडी सेठी
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मृणाल पाण्डे

1947 में जब भारत का बंटवारा हुआ था, तो इसलिए कि भारत की बहुलतावादी नियति को लेकर गांधी के तर्क और स्वराज तथा सत्याग्रह जैसे शब्दों के मायने उन मुसलमानों, खासकर उनके बड़े घरानों के कई भूपतियों, पूर्व सामंतों को स्वीकार नहीं थे। पाकिस्तान बन जाने के बाद भी उनकी हर चंद कोशिश यही रही कि कश्मीर में हिंदू-मुस्लिम विवाद का धरातल सेकुलर भारत की जमीनी सच्चाइयों से न जुड़े।

साल 1989 के आसपास जब बड़े पैमाने पर घुसपैठ करवाई जाने लगी, तो उसका मूल लक्ष्य यही रहा कि न तो वहां आम चुनाव शांति से हो सकें, न ही जम्मू या लद्दाख या शेष भारत के इतिहास और रियासत के आंशिक विलय और प्रधानमंत्री नेहरू के वादे की कोई जीवंत याद घाटी में बसे मुसलमानों और शेष देश की अगली पीढ़ियों में बची रहे। कई वजहों से उनकी यह मंशा घाटी में फलवती होने लगी और पिछले पांच सालों के पीडीपी और बीजेपी के असहज गठजोड़ की टूट ने उस भावना को और गहरा कर दिया। अब उस टूट को जोड़ने के लिए जिस तरह और जैसी कठोर कार्रवाई केंद्र ने की है, उसका संभावित नतीजा उन जानकार लोगों को भी बहुत आश्वस्त नहीं कर रहा जिनको उस इलाके का प्रशासनिक, सैन्य और भारत-पाक की कई बांझ बैठकों का अनुभव है।

2 जनवरी 1952 को जवाहरलाल नेहरू ने कोलकाता के अखबार ‘अमृत बाजार पत्रिका’ को दिए एक वक्तव्य में कहा था, ‘हम इस मसले को (कश्मीर का भारत में विलय) संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए हैं, और हमने उनको अपनी पक्की जुबान (वर्ड ऑफ ऑनर) दी है, कि इसका शांतिपूर्ण हल निकाला जाएगा। एक महान देश होने के नाते हम अपनी जुबान से मुकर नहीं सकते। हमने अंतिम फैसला लेने का अधिकार कश्मीर की जनता पर छोड़ा है और उनका जो भी फैसला होगा हम उसी पर कायम रहने को प्रतिबद्ध हैं।’

यह सही है कि1952 से 1962 के बीच चीन और फिर पाकिस्तान ने उस नेहरू युगीन आदर्शवाद पर गहरी चोट की। पर जब कट्टरपंथी पाकिस्तान का धर्माधारित लोकतंत्र का खाका भी नेहरू की बेटी के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने से ध्वस्त हो गया, तो खुद अटलजी ने उनको दुर्गा कह कर पुकारा था। नई सदी में 9/11 के बाद के नए अनुभव चक्र में बेचारा कश्मीर अनचाहे ही महाशक्तियों के बीच ताकत का पोलो मैदान बनता चला गया।

इस नाजुक समय में भी 2014 के आम चुनावों में नए मीडिया की मदद से कांग्रेस के बहुलतावाद और सेकुलर मूल्यों को विस्थापित करने के लिए मध्यकालीन और आजादी पूर्व के इतिहास के कई प्रसंगों को मिटा कर विभाजन, घाटी के अलगाववाद और इस्लामी आतंकवाद की बढ़त के लिए कांग्रेसी नेतृत्व और इन मूल्यों के पक्षधर मीडिया तथा बुद्धिजीवियों को थोक के भाव कोसने का अजीब क्रम शुरू हो गया। यह तेवर कैसा मिथ्या छलावा था यह 2014 के बाद अनिर्बाध ताकत, चतुराई और गठजोड़ों से हासिल सुरक्षा की तलाश में खुद मुफ्ती परिवार से हाथ मिलाने ने साबित कर दिया। रही-सही कसर 2019 में महबूबा मुफ्ती की गिरफ्तारी और नजरबंदी ने पूरी कर दी।

चलिए कांग्रेस को, उस सेकुलर मीडिया को (जो थोड़ा-बहुत अब भी कनफटा बना हुआ है) मन भर कर कोस लीजिए। पर 2019 में दोबारा और भी बड़ा बहुमत पाने के बाद एनडीए सरकार ने कश्मीर के सरदर्द को खुद अपने मान्य नेता अटलजी के सुझाव से इंसानियत और जम्हूरियत की परिधि में हल करने का फार्मूला क्यों कूड़ेदान में डाल दिया, इसकी वजह?


अब जम्मू-कश्मीर राज्य को दो टुकडों में बांटकर दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने का नया फार्मूला नए फार्माकोपिया से ईजाद किया गया है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कश्मीर के गिर्द सुरक्षा का सख्त घेरा है, अलबत्ता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार वहां सूनी सड़कों पर घूमकर इक्का-दुक्का लोगों के साथ (यथासंभव) बातचीत, हास-परिहास कर रहे हैं। पर घाटी भारतीय मीडिया और नेट से कटी हुई है और बीबीसी जैसे विदेशी मीडिया से जो छवियां छनकर आ रही हैं, जीवन के सामान्य होने का कोई संकेत नहीं देतीं। जब यह घेरेबंदी समाप्त होगी, तो क्या वहां हालात एकदम सामान्य हो जाने का सरकारी आश्वासन सही निकलेगा?

प्रधानमंत्री से दुर्लभ मुलाकात में आप आम काट कर खाते हैं कि चूस कर? आप क्या बटुआ साथ में रखते हैं जैसे बेहूदा सवाल पूछने वाला मीडिया का हिस्सा, झनझनाती पैनल बातचीतों-लेखमालाओं में कह रहा है कि यह गांधी, गौतम बुद्ध का जमाना नहीं जब सुनियोजित आतंकवादी हिंसा के जवाब में दूसरा गाल आगे किया जाता। लोकतांत्रिक सरकार के अधिकार में अकूत हिंसा का हक होता है, जो पत्थर फेंकने वाली किसी भीड़ से कहीं अधिक है। गवर्नर महोदय और डोभालजी का भरोसा कीजिए। भीड़ की हिंसा अनियंत्रित होते हुए भी असीमित नहीं हो सकती, जबकि सरकार की हिंसा नियंत्रित दिखते हुए भी अपने भीतर असीम संभावनाएं धारण किए रहती है। जो भी माकूल जवाब होगा सरकार देगी। आप कुछ नहीं करेंगे, तो आपको कुछ नहीं होगा!

भरोसा करें तो किस तरह? कभी रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षर वाला हजार रुपये का नोट हमसे कहता था, मैं धारक को हजार रुपये देने का वचन देता हूं। उस वादे को रातों-रात निरर्थक बनाना या पहले प्रधानमंत्री की दी जुबान को आज के प्रधानमंत्री द्वारा खारिज करने का कदम किस नैतिक कसौटी पर सही माना जाए? अनिर्बाध ताकत का एक प्रलोभन यह होता है कि मौका मिला है इसे गंवाए बिना ताबड़तोड़ कदम उठाकर अपने को जो भी ठीक लगे वैसा इकतरफा फैसला लागू कर दो।

पर सरकार में संविधान की नैतिकता का पहला साक्षी और न्यायाधीश विवेकवान राष्ट्रपति होता है। उसके बाद राष्ट्रपति के चुने हुए राज्यपाल का नंबर आता है जिसे स्वविवेक के प्रयोग का वह हक संविधान ने दे रखा है जो राष्ट्रपति के पास भी नहीं। अब उसको रातों-रात उपराज्यपाल बनकर खुद अपना वर्चस्व कम कराने वाले कदम का कर्ता और उसका इकलौता निवारणकर्ता बना दिया जाए। क्या यह तर्क संगत है?

भारत में जीवन से अधिक कीमत साख की होती है, जुबान की होती है। सरकार में पहले के प्रधानमंत्री की दी जुबान की साख बनाए रखने का दायित्व उसके परवर्ती प्रधानमंत्रियों पर होता है। संविधान के तहत मंत्रिमंडल के फैसलों का पहला न्यायाधीश विवेकवान राष्ट्रपति होता है, जो लोकतंत्र और संविधान का, संविधान की हर नागरिक को दी गारंटी का प्रधान पहरुआ भी है। उसे हक है कि सरकार का कोई फैसला उसे संविधान के नजरिए से विवादास्पद लगे, तो वह उसे वैसे ही रोक कर पुनर्विचार को लौटाए, जिस तरह कभी राष्ट्रपति जैल सिंह ने (मानहानि विधेयक को) लौटाया था।

आज के समय में भले ही नैतिकता शब्द स्कूली किताबों या किरकिरे धार्मिक प्रवचनों में सिमट कर रह गया है, याद करना बुरा न होगा कि हमारी परंपरा में यहां नैतिकता दार्शनिक फतवा नहीं। मौजूदा चलन के खिलाफ नैतिकता के सवाल ही लोकतंत्र के स्थायी सवाल हैं, जो नेता की साख पर जनता और नेता के बीच भरोसे पर टिका होता है। आज भी चुनावी जनसभाओं या रेडियो, टीवी संबोधनों में शीर्ष नेताओं के जनता को जुबान देने और नेताजी की साख जैसे शब्दों का वजन है। नैतिकता का यही वजन मुनाफा कमाने के इच्छुक बड़ी से बड़ी कंपनियों के उत्पादों को बाजार में ब्रैंडिंग के रूप में राज-समाज में भरोसेमंद बनाता है। इसलिए आज भी भीतरखाने राज, समाज, बाजार सब मानते हैं कि जुबान देकर मुकरने वाले की दुकान कुछ दिन धौंसपट्टी से चले तो चले, अधिक टिकाऊ नहीं साबित होती।


टोयोटा बस को भी धर्म रथ बना कर चुनावी यात्रा करने वाली और धर्म ध्वजा फहराने के नाम पर लिंचिंग को शह देने वाली भीड़ और हर पार्टी के नेतृत्व के लिए आज वेद व्यास की धर्म की व्याख्या खासतौर से गौरतलब है, जिसके तहत धर्म एक अलिखित नैतिक कानून है। (इसीलिए मनु के ग्रंथ को भी धर्म शास्त्र कहा गया)। सारे लोग-बाग (प्रजा) राज्य पर और राज्य उसी धर्म पर आश्रित हैं जो किसी संप्रदाय या कट्टरपंथी मत-मतांतर का नाम नहीं, विश्व के पैर तले की वह चट्टान है जो सब कुछ धारण करती है।

महाभारकार उसी को यह कह कर प्रणाम करता है, ‘नमो धर्माय महते धर्मो धारयतिप्रजा।’ इसलिए जब नेहरूजी ने कश्मीर के लोगों को भारत के साथ विलय के समय अपनी जुबान दी थी, कि राज-काज में हर हाल में उनकी इच्छा सर्वोपरि मानी जाएगी, तो यह कोई लोकलुभावन जुमला नहीं था। यह भारतीय परंपरा से सच्चे मायनों में जुड़े गांधी के शिष्यत्व का ही निर्वाह था।

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