दुनिया हमारी कहानी पर कितना यकीन करती है?

बड़ा सवाल है कि क्या भारत का पक्ष रखने के लिए दुनिया भर में भेजे गए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कोई अच्छी खबर लेकर लौटेंगे?

2018 के जी-20 शिखर सम्मेलन में वैश्विक नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फोटो - Getty Images)
2018 के जी-20 शिखर सम्मेलन में वैश्विक नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फोटो - Getty Images)
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आशीस रे

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अपनी क्षमता से आगे बढ़कर प्रदर्शन करने का भारत का गौरवशाली अतीत रहा है। हममें से कुछ लोगों के जेहन में हमारे उत्तर-पश्चिमी पड़ोसी के साथ एक और चर्चित टकराव की यादें अब भी ताजा होंगी। वह 1971का साल था।

उस युद्ध में, भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने वाली किसी भी महाशक्ति की बात तो दूर, संयुक्त राज्य अमेरिका का रुख नई दिल्ली के प्रति पूरी तरह से वैरभाव वाला था। इसने भारत को पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) को आजाद कराने से रोकने के लिए बंगाल की खाड़ी में एक खतरनाक नौसैनिक बेड़ा तक भेज दिया था। लेकिन मॉस्को के साथ भारत की मैत्री संधि सुनिश्चित कर रही थी कि सोवियत बेड़े ने अमेरिकियों का पीछा किया और उन्हें रोककर रखा। इतिहास गवाह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को किस साहस और दूरदर्शिता के साथ शिकस्त दी थी।

भारत ने एक पेशेवर, संयम बरतने वाला युद्ध लड़ा, जिसमें पाकिस्तानी अवाम पर गर्मजोशी या नफरत भरी बयानबाजी के लिए कोई जगह नहीं थी। काम पूरा हो गया तो भारत ने युद्ध विराम की घोषणा की। इसके बाद उसने पाकिस्तान को सीधी बातचीत के लिए बुलाया और जुलाई 1972 में ऐतिहासिक शिमला समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते ने दोनों देशों को अपने सभी लंबित मुद्दे द्विपक्षीय रूप से निपटाने के लिए प्रतिबद्ध किया।

दिलचस्प है कि उसके बाद पाकिस्तान के साथ सभी सैन्य झड़पें तब हुई हैं, जब भारत की सत्ता में भाजपा थी। हर बार तनाव कम करने के लिए अमेरिका को भूमिका निभाने की अनुमति दी गई। 1999 की करगिल लड़ाई में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने हस्तक्षेप किया था। 2019 में पुलवामा/बालाकोट प्रकरण (ट्रंप के पहले राष्ट्रपति काल के दौरान) और अब पहलगाम में हत्याओं और ऑपरेशन सिंदूर (ट्रंप के दूसरे राष्ट्रपति काल में) के बाद, अमेरिकी प्रशासन का हाई-प्रोफाइल हस्तक्षेप सामने आया। और ऐसा लग रहा है कि ट्रंप नवीनतम युद्धविराम की योजना बनाने में अपनी भूमिका के बारे में बात करना बंद नहीं करने वाले हैं।

अपने संस्मरण ‘नेवर गिव एन इंच’ में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने 2019 में अमेरिकी मध्यस्थता की पुष्टि की है। इस महीने युद्ध विराम के लिए तो राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप बार-बार प्रचार करते दिखे कि उन्होंने खुद, उनके उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस और विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने किस तरह ‘मध्यस्थता’ निभाई। भक्त जमात और समर्थक भले ही ऐसी किसी मध्यस्थता से इनकार करने के लिए एड़ी-चोटी एक किए हुए हों, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीधे तौर पर इसका खंडन करने के लिए एक शब्द भी बोलने की जरूरत नहीं समझी।


भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा अमेरिकी मध्यस्थता से इनकार सच्चाई से मुंह मोड़ने जैसा है। मामले का निचोड़ यह नहीं है कि भारतीय और पाकिस्तानी डीजीएमओ (सैन्य संचालन महानिदेशक) ने ‘लड़ाई’ समाप्त करने के लिए फोन पर बात की, बल्कि यह है कि वेंस ने मोदी और रुबियो ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ से डीजीएमओ द्वारा हॉटलाइन का इस्तेमाल करने से पहले बात की थी। और यह भी कि, ‘पूर्ण और तत्काल’ युद्ध विराम की घोषणा सबसे पहले ट्रंप ने की थी।

ट्रंप ने तो यहां तक ​​कह दिया कि कश्मीर पर दोनों पक्षों के बीच ‘तटस्थ स्थान पर’ बातचीत होगी, साथ ही यह संकेत देना भी नहीं भूले कि वह इसमें रेफरी की भूमिका निभा सकते हैं। पाकिस्तान के लिए यह सब किसी सुखद अनुभव से कम नहीं था। वैसे भी, भारत द्वारा सिंधु जल संधि (आईडब्ल्यूटी) को ‘स्थगित’ करने के जवाब में उसने शिमला समझौते को निलंबित कर दिया था।

ट्रंप के वक्तव्यों ने न सिर्फ कश्मीर मुद्दे का ‘अंतरराष्ट्रीयकरण’ कर दिया, बल्कि उन्होंने दशकों बाद दुनिया की नजरों में भारत और पाकिस्तान को एक ही स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया, जिसने  वैश्विक धारणा से मुक्त होने में भारत की सफलता पर पानी फेर दिया है।

1966 में स्थापित एक गैर-लाभकारी संस्था, अमेरिकन काउंसिल ऑफ यंग पॉलिटिकल लीडर्स का उसकी वेबसाइट पर दावा है कि वह ‘अमेरिका और दुनिया भर में उभरते नेताओं के लिए अमेरिकी विदेश विभाग के साथ साझेदारी में कई अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम चलाती है’। अमेरिका के प्रति निष्ठा न भी कहें तो यह उसके लिए प्रशंसा भाव पैदा करने के वाले कार्यक्रम के लिए संभावनाशील लोगों को आमंत्रित करती है। 1994 में, अमेरिका समर्थक माने जाने वाले भारतीयों में से चुने जाने की बारी नरेन्द्र मोदी की थी- लेकिन लगता है कि 2002 के गुजरात दंगों में उनकी संदिग्ध संलिप्तता के बाद विदेश विभाग द्वारा अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद अंकल सैम के प्रति उनके मोह में कोई कमी नहीं आई। 

हालांकि, ट्रंप ने व्हाइट हाउस के बरामदे में मेहमान का स्वागत करने की परंपरा से अलग हटकर इस साल फरवरी में मोदी का उस तरह स्वागत नहीं किया था। अपने मौजूदा कार्यकाल में, यह एकमात्र ऐसा अवसर था जब ट्रंप ने किसी को यह सम्मान नहीं दिया था। यहां तक कि यूक्रेनी राष्ट्रपति व्लादिमिर जेलेंस्की, जिनके साथ बाद में हुई प्रेस के बीच एक बहुत बड़ा विवाद भी हुआ था, को भी यह सम्मान मिला।


अमेरिका ने भारत के साथ वैसा नहीं किया जैसा चीन ने इस माह  के चार दिनी सैन्य टकराव से पहले या उसके बीच पाकिस्तान के साथ किया था। यहां तक ​​कि तुर्की और अजरबैजान भी खुलकर पाकिस्तान के साथ खड़े दिखे। 57 सदस्यीय इस्लामिक सहयोग संगठन ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र में तनाव बढ़ाने वाले प्रमुख कारक के रूप में भारत के ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान के खिलाफ निराधार आरोपों’ का हवाला दिया। भारत के लिए इससे भी ज्यादा निराशाजनक बात उसका यह कहना रहा कि- ‘अनसुलझा (कश्मीर) विवाद दक्षिण एशिया में शांति और सुरक्षा को प्रभावित करने वाला मुख्य मुद्दा बना हुआ है।’ दूसरे शब्दों में कहें तो, मोदी द्वारा अरब शासकों के साथ बार-बार गलबहियां करने का कोई लाभ नहीं हुआ है। भारत के साथ रक्षा अनुबंधों के प्रमुख लाभार्थी रूस और फ्रांस ने भी ‘दोनों पक्षों’ से संयम बरतने का ही आह्वान किया। इनमें से कोई भी देश भारत के इस आरोप के साथ खुलकर खड़ा नहीं दिखाई दिया कि पहलगाम में आतंकी हमला पाकिस्तानी राज्य तंत्र द्वारा प्रायोजित था।

सैन्य आदान-प्रदान, जिसमें नए लड़ाकू विमान, मिसाइल, ड्रोन और वायु रक्षा प्रणाली शामिल हैं, पर धूल भी नहीं जमी थी कि ट्रंप ने यह घोषणा करते हुए एक और धमाका कर दिया कि भारत शून्य टैरिफ पर सहमत हो गया है। भारत ने इसका भी खंडन नहीं किया। 

जनवरी में अपने पद पर वापसी के तुरंत बाद, ट्रंप ने उन भारतीयों का एक उदाहरण पेश किया, जो या तो अवैध रूप से अमेरिका में घुस आए थे या अवैध रूप से अधिक समय तक रुके हुए थे, उन्हें जंजीरों में बांधकर देश से निर्वासित कर दिया। यहां तक ​​कि इस पर भी भारतीय प्रधानमंत्री की ओर से किसी तरह का विरोध या एक भी आवाज नहीं उठी।

पहलगाम और ऑपरेशन सिंदूर के बाद विश्व ने जैसी प्रतिक्रिया जाहिर की, उससे लगता है कि भारत के मित्र देशों की संख्या अब गिनी-चुनी रह गई है- अपने पड़ोसियों के बीच तो वह मित्रविहीन है ही, अन्यत्र कहीं भी उसका कोई मित्र नहीं बचा है।

भारत विपक्षी सांसदों सहित अपने सात प्रतिनिधिमंडल 33 देशों में भेजकर क्या हासिल करना चाहता है? एक राष्ट्रीय सहमति का प्रदर्शन, जिसे बनाने के लिए उसने अपने देश में कोई वास्तविक जमीनी प्रयास नहीं किया? दुनिया को तथाकथित ‘नई लाल रेखा’ के बारे में बताना, हर आतंकी घटना के बाद सैन्य जवाबी कार्रवाई करने के अपने अधिकार की दावेदारी जताना? इस बात की संभावना तो कम ही है कि कोई इसे स्वीकार करेगा, लेकिन यह अभ्यास वास्तव में भारत और पाकिस्तान के बीच जुड़ाव को मजबूत कर सकता है, खासकर इसलिए क्योंकि  पाकिस्तान जवाबी हमले में शामिल है।


जाहिर है, साक्ष्य मांगे जाएंगे, खोजी सवाल भी पूछे जाएंगे।

पश्चिमी देश मोदी के इन बहुदलीय राजनयिक मिशनों को यह दिखाने के प्रयास के रूप में देख रहे हैं कि कश्मीर और ऑपरेशन सिंदूर के मसले पर भारत एकजुट है। विपक्षी सांसदों को भी इस अंतर को ध्यान में रखना होगा कि कहीं ऐसा न हो कि वे भी भारत के सैन्य हमले के बाद उठे सभी सवालों से खुद को जोड़ लें- खासतौर से पहलगाम में सुरक्षा चूक और एक महीने बाद भी आतंकवादियों को पकड़ने में विफलता के बारे में।

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