अल्पसंख्यकों पर संघ का बदलता नजरिया कितना सही? मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ भागवत की बैठक मकड़जाल में मक्खी फंसने जैसा
आखिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बातचीत की जरूरत ही क्या थी? न इसका कोई संवैधानिक महत्व है और न ही सरकारी ढांचे में कोई औपचारिक भूमिका।
मकड़ी ने मक्खी से कहा, ‘क्या तुम मेरी जाल में आओगी?’
‘यह बड़ी ही खूबसूरत छोटी सी जाल है जिसकी कभी तुम जासूसी किया करती थी’। (मैरी हेविट, 1829)
हम जिस रास्ते पर बढ़ रहे हैं, उसपर मिलने वाले हिन्दू राष्ट्र या किसी भी दूसरे मुकाम की राह सद्भावना से ही तय की जा सकती है। जाहिर बात है, मैं अगस्त में हुई उस बैठक की बात कर रहा हूं जिसमें सिविल सोसाइटी के पांच जाने-माने मुस्लिम चेहरों की आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत से मुलाकात हुई। बिना शक, इसमें एसवाई कुरैशी और नजीब जंग का कोई गलत मकसद नहीं था। उनके इरादे नेक थे और वे ईमानदारी से अल्पसंख्यकों और हिन्दुत्ववादी ताकतों के बीच सेतु का काम करना चाहते थे। फिर भी यह रणनीतिक तौर पर एक बड़ी चूक थी। गौरतलब है कि मोहन भागवत से मिलने वाले मुस्लिम नेता थे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी, दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति जमीरुद्दीन शाह, वरिष्ठ उर्दू पत्रकार और रालोद नेता शाहिद सिद्दीकी और उद्योगपति सईद शेरवानी।
इस बात को ध्यान में रखते हुए कि ये सभी सार्वजनिक जीवन में अनुभव रखने वाले लोग थे और अपने-अपने प्रोफेशन में शीर्ष तक पहुंचे, इसलिए माना जा सकता है उन्हें बेहतर समझ होनी चाहिए थी। इस बैठक में भाग लेने का निर्णय रणनीतिक दृष्टि से अदूरदर्शी और बचकाना था। सबसे पहली बात तो यह है कि आरएसएस से आखिर बात ही क्यों करें? इसकी कोई आधिकारिक अहमियत तो है नहीं। न इसका कोई संवैधानिक महत्व है और न ही सरकारी ढांचे में कोई औपचारिक भूमिका। यही सवाल जब करण थापर ने एस वाई कुरैशी से किया तो उन्होंने जवाब दिया कि आरएसएस पहले से ही एक मान्य ताकत थी और इसलिए उससे बात करने में कुछ भी गलत नहीं था।
लेकिन मैं इस मामले में अपने वरिष्ठ सहयोगी से इत्तेफाक नहीं रखता। आरएसएस एक वैध संगठन हो सकता है, यह सिंहासन के पीछे की ताकत भी हो सकता है लेकिन इसकी व्यापक स्वीकार्यता संदेह के घेरे में है बल्कि हमेशा रही है। इसे बार-बार प्रतिबंधित किया गया, माना जाता है कि सांप्रदायिक भावना भड़काने में इसे महारत हासिल है, वर्तमान शासन की तमाम ज्यादतियों के पीछे इसका हाथ है और अल्पसंख्यक इसपर भरोसा नहीं करते। यह समझना होगा कि वैधता और स्वीकार्यता में बड़ा फर्क है। ‘वैधता’ कानूनी स्थिति की बात करती है जबकि ‘स्वीकार्यता’ सामाजिक स्थिति की।
आरएसएस से बातचीत करना इस लिहाज से भी गलत फैसला है कि यही वह संगठन है जो मुसलमानों को अंगूठे के नीचे लाने की मौजूदा कोशिशों के लिए जिम्मेदार है और जिसकी शुरुआत उसने बाबरी मस्जिद के खिलाफ आंदोलन से किया जबकि ये सभी पांच तो इसी समुदाय से आते हैं।
सरसंघचालक की दोहरी बात करने के रिकॉर्ड को देखते हुए ये मुस्लिम बुद्धिजीवी उनपर भरोसा कैसे कर सकते थे? बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मोहन भागवत ने कहा था कि आरएसएस किसी अन्य मंदिर के "पुनरोद्धार" का अभियान नहीं चलाएगा लेकिन उसने काशी, मथुरा में मस्जिदों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया है और यह ईश्वर ही जानता है कि वह आगे और किस-किस की बात उठाने वाला है। भागवत एक आम भारतीय डीएनए की बात करते हैं लेकिन इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में मुसलमानों को ‘हिन्दू मुस्लिम’ के रूप में जाना जाना चाहिए। वह मुसलमानों के साथ भारत के प्रामाणिक नागरिक के तौर पर व्यवहार किए जाने की बात करते हैं लेकिन व्यवहार में उन्हें हर मोड़ पर मताधिकार से वंचित करने के प्रयासों से अपनी सरकार को रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं। ऐसे व्यक्ति से उसके कहने पर, उसके कार्यालय में बात करना ‘विशुद्ध समर्पण’ है। और जो लोग आत्मसमर्पण कर देते हैं, उन्हें याचक के तौर पर देखा जाता है। वे किसी संधि या समझौते की शर्तों को तय नहीं कर सकते।
साफ तौर पर ये पांच महानुभाव लेकर तो कुछ नहीं आए, पर दो आश्वासन दे जरूर आए। ऐसा लगता है कि बैठक के एजेंडे पर कोई सहमति नहीं थी। नतीजतन भागवत को "काफिरों" और गोमांस के मामले में सफाई के अंदाज में आश्वासन मिल गए जबकि पांचों को बदले में कुछ नहीं मिला। आरएसएस सुप्रीमो ने बड़ी चतुराई के साथ अपने निकलने की राह पहले ही तैयार कर रखी थी। कुरैशी और जंग के मुताबिक, उन्होंने यह कहकर अपनी बेबसी जताई कि उनकी अपनी सीमाएं हैं। उनका शब्द कोई कानून नहीं है। इसपर करण थापर ने सवाल किया कि ऐसे में भला उनसे बात ही क्यों की जाए? लेकिन इसका संतोषजनक उत्तर नहीं मिला।
ऐसा लगता है कि चर्चा दार्शनिक स्तर पर हुई और इसे विफल होना ही था। बातचीत में वास्तविक जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाने का कोई प्रयास नहीं किया गया जो आज मुसलमानों के लिए मायने रखते हैं जैसे- उनका लगातार उत्पीड़न, सीएए, एनआरसी, हिजाब पर रोक, धर्म संसद का ऐलान, बुलडोजर, अभद्र भाषा, मदरसों को ध्वस्त करना। इनमें से किसी पर मोहन भागवत ने कभी एक शब्द भी नहीं कहा। किसी भी सार्थक बातचीत में उनके सामने ये विषय तो रखे जाते ही, कम-से-कम यह जानने के लिए कि इनपर भागवत का रुख क्या है। लेकिन अफसोस की बात है कि इस मौके को जाया किया गया- लेकिन आखिर क्यों?
करण थापर के इंटरव्यू को देखने के बाद खास तौर पर मुझे लगता है कि कुरैशी और जंग एक तरह के क्षमा भाव में थे और वे मोहन भागवत के दुभाषिए की तरह लग रहे थे। भागवत से किसी तरह का कोई आश्वासन नहीं मिलता लेकिन वे इसके लिए संघ प्रमुख को माफ कर देते हैं। वे ‘उन (भागवत) पर भरोसा करना चाहते हैं’ भले ही वे ‘उनके दिमाग को नहीं पढ़ पाएं’। वे भागवत की शारीरिक भाषा को आश्वस्त (!) करने वाला पाते हैं। तथ्य यह है कि मोहन भागवत ने उन्हें ‘पूरे ध्यान से’ और बिना रोके-टोके सुना जो उनकी ईमानदारी को दिखाता है। वे भागवत के सेंस ऑफ ह्यूमर की भी तारीफ करते हैं (हालांकि मुझे कम-से-कम इसमें आश्वस्त करने वाला कुछ नहीं दिखता)। दोनों वह कहते हैं जो सरसंघचालक ने कहा। यहां तक कि वे वह भी कहते हैं जो सरसंघचालक ने कहा तो नहीं लेकिन उनके हाव-भाव से इन दोनों ने उसे समझ लिया। ये दोनों आशावान हैं लेकिन वास्तव में यहां तो कोई उम्मीद है ही नहीं।
जहां तक मेरी जानकारी है, मोहन भागवत ने इस बैठक के बारे में सार्वजनिक तौर पर एक शब्द भी नहीं कहा है और न ही उन्होंने इस बारे में ही कुछ कहा है कि बैठक में क्या निर्णय लिया गया या उसका निचोड़ क्या रहा जबकि खुद कुरैशी और जंग ने ही करण थापर के इंटरव्यू में इसके बारे में कहा है। उन्हें कुछ कहने की जरूरत ही नहीं क्योंकि उन्हें वह मिला जो वह चाहते थे। उन आश्वासनों और उनकी जमीन पर उतरने की संभावनाओं को छोड़कर मोहन भागवत की बात करें तो इससे उनका उद्देश्य पूरा हो गया। यह उनका पीआर एक्सरसाइज था और हमारे ये पांच मित्र भागवत के लिए अपनी गिरती अंतरराष्ट्रीय छवि को सुधारने का साधन बन गए। इन मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने भागवत को मौका दे दिया कि वह अपने आप को अल्पसंख्यकों की चिंताओं के प्रति संवेदनशील और उनसे बातचीत के इच्छुक विचारक के तौर पर पेश कर सकें। यह अलग बात है कि इनमें से किसी भी खासियत को भागवत अब तक साबित नहीं कर पाए हैं। यही वजह है इस बैठक की भूमिका बनाई गई। यह जानी हुई सी बात है कि एक मक्खी को मकड़ी के जाले में जाने से परहेज करना चाहिए।
(अवय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी और लेखक हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)
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