आकार पटेल का लेख: लॉकडाउन के आर्थिक प्रभाव को क्या समझ पाएगा भारत, आंकड़े तो आते ही नहीं सामने

भारतीय अर्थव्यवस्था की एक बड़ी समस्या है भरोसेमंद आंकड़ों का न होना। सिर्फ बेरोजगारी के आंकड़े ही सीएमआईई से मिल जाते हैं। ऐसे में लगातार तीसरे लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान को कैसे समझा जाएगा, क्योंकि आंकड़े तो सामने आते ही नहीं हैं।

फोटो : Getty Images
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आकार पटेल

आधुनिक अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की समस्याओं में से बड़ी समस्या है भरोसेमंद आंकड़े। यह वह बात है जिसे सरकार और प्रधानमंत्री ने भी स्वीकार किया है और उन्होंने इसे बदलने की कोशिश भी की है, लेकिन कोई कामयाबी नहीं मिली है। आखरि यह समस्या कितनी बड़ी है, इसे संक्षिप्त में कुछ इस तरह समझा जा सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था का बड़ा आधार अनौपचारिक क्षेत्र है। अनौपचारिक क्षेत्र का अर्थ है कि इसमें होने वाली आर्थिक गतिविधियों पर सीधे टैक्स नहीं लगता, हो सकता इसमें बहुत से काम-धंधे पंजीकृत भी न हों। वह सारे काम-धंधे जो पारिवारिक श्रम इस्तेमाल करते हैं, पानवाला, सब्जीवाला, छोटे दुकानदार, मजदूर, मजदूरों के ठेकेदार, किसान, घरेलू सहायक याना काम वाली बाइयां, छोटे ट्रेडर, कुछ प्रोफेशनल आदि , यह सब अनौपचारिक क्षेत्र में ही आते हैं। सरकार द्वारा पेश 2018-19 के आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि 10 में से 9 भारतीय कामगार अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। यानी यह औपचारिक क्षेत्र के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रासंगिक और अहम है।

हालाँकि, हमें यह भी पता नहीं है कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का आकार क्या है। निस्संदेह, इसकी प्रकृति के अनुसार, कर के भुगतान या विनियमित होने के मामले में राज्य के साथ इसका गहरा जुड़ाव नहीं है और इसलिए सरकार को इसके अस्तित्व का पता नहीं है। दूसरा मुद्दा यह है कि इस अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में से कुछ औपचारिक पक्ष पर भी काम करती हैं। कुछ छोटे व्यवसाय बड़े व्यवसायों के लिए आपूर्तिकर्ताओं के रूप में काम करते हैं जो औपचारिक हैं और टैक्स आदि भरते हैं। कई छोटे व्यवसाय आंशिक रूप से कर भुगतान और आंशिक रूप से विनियमित होते हैं। इन सब आंकड़ों को इकट्ठा किया जाता है, और इसलिए भारत में आर्थिक विकास का अनुमान मुश्किल है।

भारत की जीडीपी, या हमारे देश द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का कुल मूल्य, मुख्य रूप से औपचारिक क्षेत्र के डेटा से प्राप्त होता है। इस डेटा का तब उपयोग किया जाता है और यह माना जाता है कि उनका अनौपचारिक क्षेत्र के साथ एक संबंध है और इस प्रकार एक राष्ट्रीय आंकड़ा अनुमानित है।

औपचारिक क्षेत्र, हालांकि यह बहुत बड़ा नहीं है, इसमें उच्च आवृत्ति डेटा जैसे ऑटोमोबाइल की बिक्री सहित अच्छा डेटा है। हर महीने की पहली तारीख के आसपास मारुति और बजाज जैसी कंपनियां पिछले महीने में अपने डीलरों को बेची गई कुल वाहनों की संख्या सामने रखती हैं। 1 मई को, मारुति ने घोषणा की कि उसने अपने इतिहास में पहली बार लॉकडाउन के कारण अप्रैल में शून्य बिक्री हासिल की थी, और शायद उत्पादन में भी शून्य के काफी करीब थी।

लेकिन ऐसे सटीक और निरंतर सामने आने वाले संकेतक अधिकांश अर्थव्यवस्था से अनुपस्थित हैं जिसका मतलब है कि हम सिर्फ अंदाजा लगाकर काम चला रहे हैं। यह एक समस्या है और यही कारण है कि प्रधानमंत्री और सरकार में अन्य लोग इसे बदलना चाह रहे हैं, हालांकि उन्हें भी सफलता नहीं मिली है। तो इस समय यह प्रासंगिक क्यों है? आइए हम वर्तमान संकट की तुलना उस तरह से करें, जैसे कि विमुद्रीकरण या नोटबंदी, जिसकी घोषणा 8 नवंबर, 2016 की रात को की गई थी।


दिसंबर मध्य के आसपास यह स्पष्ट हो गया था कि नोटबंदी से आर्थिक कठिनाई होगी और कई छोटे व्यवसायों का सफाया हो जाएगा। सरकार ने इस बात से इनकार किया कि ऐसा होगा और अपने विरोधियों को ऐसे आंकड़ों के साथ सामने आने की चुनौती दी, जिससे यह साबित हो सके कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को अस्थायी रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया है, स्थाई रूप से कहना तो दूर की बात है।

लेकिन सरकार के आलोचकों के पास यह आंकड़े थे ही नहीं, क्योंकि यह किसी के पास नहीं थे। अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्र पर इसका शुरु में असर नहीं पड़ा और जीडीपी के आंकड़े भी मोटा-मोटी वहीं आए जो नोटबंदी से पहले थे। पहला संकेत यह था कि आयात के मोर्चे पर कुछ बहुत ही बड़ी गड़बड़ थी। वह सारा माल जो भारत दूसरों से आयात कर रहा था, वहां नोटबंदी के बाद बहुत ज्यादा बढ़ गया। इसका कारण साफ था कि नोटबंदी से पहले तक जो कंपनियं ये माल सप्लाई करती थीं, उन्हें जबरदस्त नुकसान हुआ था और बंद हो गई थीं ,जिसके चलते भारत की निर्भरत विदेशी माल पर बढ़ गई थी।

इसका मतलब यह भी था कि भारत में खपत का भी नुकसान होगा क्योंकि कंपनियों को बंद करने से रोजगार का नुकसान होगा। लेकिन इस मोर्चे पर सरकार के पास आंकड़े नहीं थे। इसके लिए सरकार घर-घर जाकर सर्वे करती है, लेकिन एनआरसी के बवाल के बीच यह भी खतरे में पड़ गया है। इसकी कोई संभावना नहीं है कि आने वाले समय में भी हमें सरकार की तरफ से बेरोजगारी के सही आंकड़े देखने को मिलेंगे। सिर्फ निजी क्षेत्र, विशेष रूप से एक कंपनी है, सीएमआईई जो अपने सैकड़ों फील्ड एजेंटों और रियल टाइम डेटा के साथ भारत में बेरोजगारी पर सबसे विश्वसनीय आंकड़े सामने रखती है।

सीएमआईई के आंकड़े साफ बताते हैं कि भारत में बेरोजगारी बढ़ रही थी, और 2019 के चुनाव तक यह उस ऐतिहासिक स्तर पर थी जहां पहले कभी दर्ज नहीं हुई थी। इसके बाद नोटबंदी से हुए नुकसान का तीसरा संकेत औपचारिक जीडीपी के आंकड़ों पर भी सामने आ ही गया, क्योंकि व्यवसायों का सफाया हो गया और लोग बेरोजगार हो गए, खपत कम हुई।

औपचारिक क्षेत्र के माध्यम से सरकार द्वारा मापी गई भारत की जीडीपी विकास दर जनवरी 2018 और जनवरी 2020 के बीच हर तिमाही में गिरना शुरू हो गई थी। क्यों? क्योंकि विमुद्रीकरण ने इसे उन तरीकों से कमजोर किया जो संरचनात्मक हैं।

इस बार, तीन चीजें हैं जो अलग हैं। पहला यह कि आर्थिक झटका इससे ज्यादा गंभीर है जितना कि नोटबंदी में था। दूसरा यह कि यह लंबे समय तक चलने वाला होगा, न केवल इसलिए कि विघटन विशाल है और यह भी कि यह वैश्विक है, बल्कि दोबारा भरोसा स्थापित होने में वक्त लगेगा। तीसरा, डेटा शुरू से ही स्पष्ट हो जाएगा।

औपचारिक क्षेत्र, अप्रैल में पूरी तरह से बंद हो गया और मई से सीमित होकर, ऐसे परिणाम सामने रखेगा जिससे साफ होगा कि अर्थव्यवस्था सिकुड़ चुकी है। लगातार दो तिमाहियों में नकारात्मक विकास दर सामने आना आर्थिक मंदी की तकनीकी परिभाषा है, और पहली बार हमारी पीढ़ी इस मंदी को सामने देख रही है।

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