जब साझेपन को मिटाया जाएगा, तो अपनत्व का भाव कैसे बचेगा

देश में आज जो विचारधारा इतिहास के गहन निरपेक्ष अध्येताओं, शोधकर्ताओं को औपनिवेशियों का पिछलग्गू, टुकड़े-टुकड़े आदि उपमाओं से नवाजती है, उनसे पूछना होगा कि औपनिवेशी इतिहास अध्ययन की परंपरा के मौजूदा वाहक कैसे हो गए हैं?

यंगून में बहादुरशाह ज़फर की कब्र पर म्यांमार यात्रा के दौरान पुष्पांजलि अर्पित करते पीएम मोदी। लेकिन भारत मेें
उन्हीं की तस्वीर को छिन्न-भिन्न करना
बताता है कि देश में क्या कुछ हो रहा है।
यंगून में बहादुरशाह ज़फर की कब्र पर म्यांमार यात्रा के दौरान पुष्पांजलि अर्पित करते पीएम मोदी। लेकिन भारत मेें उन्हीं की तस्वीर को छिन्न-भिन्न करना बताता है कि देश में क्या कुछ हो रहा है।
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मीनाक्षी नटराजन

15 दिसंबर को कोल्हापुर शहर के एक रेस्तरां में लगी अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की तस्वीर को उग्र दक्षिणपंथी युवकों के समूह ने उतारा और छिन्न-भिन्न कर दिया। यह समूह पहले ही चेतावनी दे चुका था। उनका कहना था कि औरंगजेब के वंशज की तस्वीर नहीं लगाई जा सकती। गौरतलब है कि मान्यवर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी म्यांमार यात्रा के दौरान यंगून स्थित ज़फ़र की कब्रगाह पर गए थे। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह भी वहां जा चुके हैं। मौजूदा व्यवस्था ने ‘ज़फर’ को परम देशभक्त होने का प्रमाण भी दिया था। वे देशभक्ति के प्रमाणीकरण के स्वयंभू मठाधीश हैं। फिर क्या हुआ? 

वह विचारधारा जो यह मानती है कि मुगल शासक हमारे नहीं थे। उनकी विरासत हमारी नहीं है। उनका इतिहास हमें कलंकित करता है। उस इतिहासकाल के पुनर्लेखन की कोशिश निरंतर जारी है। इस जोश में पुनर्लेखन ऐतिहासिक पुनर्गठन में तब्दील हो गया। जैसे हल्दी घाटी के युद्ध का इतिहास बदल गया। रामदेव पीर की विरासत का सत्य बदल गया। उस विचारधारा की ही प्रतिनिधिक व्यवस्था आज काबिज है। वह महज इतिहास को छुपाना, तोड़ना, मरोड़ना नहीं चाहती। यह कोई अभिजात्य शोध का हिस्सा नहीं है। वह तो इतिहास का इस्तेमाल भय और नफरत को जिंदा रखने के लिए करना चाहती है, वरना केवल औरंगाबाद, इलाहाबाद जैसे शहरों का नाम नहीं बदला जाता। चूंकि इतिहास के उन पन्नों का सुविधाजनक दोहराव करना है जो नफरत को सुलगाते रहे, इसलिए विभाजन पर प्रदर्शनी स्थापित की जाती है।

मौजूदा व्यवस्था औपनिवेशिक हुक्मरानों के पदचिह्नों पर चलते हुए इतिहास का मजहबी वर्गीकरण कर रही है। जेम्स मिल वह इतिहासकार थे जो कभी भारत नहीं आए। मगर उन्होंने भारत का इतिहास लिखा। पहली बार इतिहास का सांप्रदायिकरण हुआ। प्राचीन समय को हिन्दू मध्यकाल को मुस्लिम कहकर स्पष्ट रेखाएं खिंची गईं। यह औपनिवेशी हुक्मरानों की ‘फूट डालो राज्य करो’ की नीति का ही विस्तार था। इसके बाद ‘हिन्दू’ शब्द का अर्थ सिमट कर रह गया। यह भी मान लिया गया कि प्राचीन समय के एक बड़े कालखंड में सारी राजसत्ता इसी एक मान्यता को मानती थी।

उस खंड की विभिन्नता और इंद्रधनुषी कलेवर का इससे ज्यादा अपमान नहीं हो सकता जबकि उस समय के सबसे प्रबल शासक सम्राट देवनामप्रिय अशोक बौद्ध विचार के थे। उनके दादा चंद्रगुप्त मौर्य संभवतया अंतिम दिन में जैन फलस्फे को मानने लगे थे। चार्वाक की नास्तिक लोकायत परंपरा, घोषाल का आजीविक (प्राचीन दर्शन परंपरा) विचार आदि अनेक मत को मानने वाले मौजूद थे। इन्हीं जेम्स मिल ने चतुराई से ब्रिटिश हुकूमत को आधुनिक काल कहकर गौरवान्वित किया। यानी भारत को उसकी कथित जाहिलियत से उबारने का महान कार्य औपनिवेशियों ने किया था।


आज जो विचारधारा इतिहास के गहन निरपेक्ष अध्येताओं, शोधकर्ताओं को औपनिवेशियों का पिछलग्गू, टुकड़े-टुकड़े आदि उपमाओं से नवाजती है, उनसे पूछना होगा कि औपनिवेशी इतिहास अध्ययन की परंपरा के मौजूदा वाहक कौन हो गए हैं? 

खैर, जिस लंबे कालखंड को अंधकार का युग बताया जा रहा है, क्या उसका अध्ययन और विमर्श जरूरी नहीं। यह तो मानना होगा कि राजसत्ता में नागरिक हक जैसी कोई कल्पना नहीं थी। नागरिकता का विकास राजसत्ता में संभव नहीं है। वहां केवल प्रजा हो सकती है। असंख्य राजा, बादशाह हुए। उनमें से कई लोकपालक हुए होंगे, तो कई सत्ता लोलुप रहे होंगे। औरंगजेब के धर्म संबंधी विचारों की कट्टरता पर कोई संदेह नहीं है। लेकिन उसने बादशाह के तौर पर बनारस समेत कई क्षेत्रों के मंदिरों को ढहाया, तो गोलकुंडा पर कब्जा लेने के बाद वहां की एक मस्जिद को भी तोड़कर, संपत्ति को राजसात किया। कुछ मंदिरों को फरमान देकर पोषित भी किया। मगर जजिया जैसे भेदभावकारी कर लगाकर सदा के लिए विषमता के बीज भी बो दिए। मगर क्या सारे बादशाह ऐसे ही थे? अव्वल तो मध्यकाल में केवल इस्लाम को मानने वालों की ही राजसत्ता नहीं थी। इस काल में प्रसिद्ध पाल, काकतीय, चोल भी शासक थे। विजयनगर में कृष्ण्देवराय और उनके वंशजों की मजबूत राजशक्ति भी थी।

दिल्ली सल्तनत, दक्खन, बंगाल, जौनपुर, अवध के सभी शासकों को मुगल कहना इतिहास के अल्पज्ञान का ही द्योतक है। अलग-अलग वंश के इन शासकों के बीच अनेक मत थे। हर एक की कार्यप्रणाली भी एकदम अलग थी। जौनपुर के शरकी सुल्तान समावेशी विचारों के लिए जाने जाते थे। बंगाल के गयासुद्दीन आजमशाह ने नए तालीम केन्द्र स्थापित किए। एक प्रतिनिधिमंडल चीन भेजकर बौद्ध धर्म को जानने का प्रयास किया। चूंकि तब तक भारत में बौद्ध मत सिमट गया था। अलाउद्दीन हुसैन ने चैतन्य महाप्रभु का सम्मान किया। चौदहवीं सदी में कश्मीर के जैनुल आबिदिन, पंद्रहवीं सदी में मालवा के हुशंग शाह हमारी तहजीबी ताने-बाने में सौहार्द को बुनने के लिए जाने जाते हैं। दक्खन में इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय पंढरपुर को दान दिया करते थे। उनके नव रसों को समर्पित ‘किताबे-नौरस’ देवी सरस्वती के आह्वान से शुरू होती है। उन्हें उनके ज्ञान और समावेश के प्रयासों के चलते जगद्गुरु और अबला बाबा कहा जाता था। आज हमने उसकी राजधानी बीजापुर का भी नाम बदल दिया और सूफियों द्वारा स्थापित फूलों की नगरी गुलबर्गा का भी नाम बदल दिया। 

बहादुर शाह ज़फ़र के ही पूर्वजों पर लौटते हैं। निःसंदेह वह औरंगजेब के वंशज थे। मगर वह दारा शिकोह और अकबर के भी वंशज थे। वही दारा शिकोह जिन्होंने पंडित लाल दयाल से उपनिषदों को जाना। ‘सिरर-ए-अकबर’ के नाम से 108 उपनिषदों का फारसी में तर्जुमा कराया। इसी तर्जुमे को पाश्चात्य जगत ने पढ़ा। उपनिषदों की महिमा को समझा और फिर मैक्स म्यूलर जैसे शोधकों ने स्वयं भी शोधन किया। दारा शिकोह ने ‘मजमा-ए-बहरीन’ के नाम पर दो विचारों सूफी और वेदान्त के संगम पर बेहतीन किताब लिखी। अकबर और उनके ‘सुलह कुल’ जिसमें हर मजहब को मानने वाले अपना विचार रखने आते थे, इतिहास में दर्ज है।


बहादुर शाह ज़फ़र कोई बड़े सेनाधिपति नहीं थे। मुगल शासन का प्रभाव क्षीण हो चुका था। वह अकबर द्वितीय और हिन्दू रानी लालबाई की संतान थे। मगर ज़फ़र स्वयं लिखते थे, सूफी विचार को मानते थे। मुगल घराने में कई अरसे तक होली मनाई गई। ज़फ़र ने होली पर भी गीत लिखा- ‘बहुत दिनन में हाथ लगे हो, कैसे जाने देऊं। आज मैं फगवा ता सै कान्हा, फेंटा पकड़ (कर लेऊं’। वह पूरी तरह से भारतीयता में रचे-बसे थे।  

जब मेरठ की छावनी से क्रांतिकारी सिपाही 11 मई, 1857 को दिल्ली पहुंचे। लाल किले में जाकर बादशाह से अगुवाई का निवेदन किया, तो शुरुआती दुविधा के बाद उन्होंने कुछ कदम उठाए। सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए एलान बंटवाए। क्रांति के प्रति संबद्ध होते हुए फरमान जारी किए। जयपुर, जोधपुर आदि अन्य राजाओं को पत्र लिखकर यह भी आश्वासन दिया कि कंपनी की हुकूमत खत्म हो जाने पर वह तमाम शाही अख्तियारात और हकूक देशी नरेशों के समूह को सौंप देंगे। हालांकि उन्हें कोई समर्थन नहीं मिला। जब धोखे से उनको कैद कर लिया गया, बेटों के सर कलम किए गए और रंगून भेज दिया गया, तब उनका कवि हृदय रो पड़ा- ‘कितना बदनसीब है जफर, दफ्न के लिए, दो गज जमीं भी न मिली कूए-यार में’।  

अब नफरत की सियासत उनकी तस्वीर को भी रहने नहीं देना चाहती। सवाल यह है कि यदि हमारी गंगा-जमनी तहजीब के तार  तार-तार किए जाएंगे, हमारे साझेपन से एक समुदाय की विरासत को हठपूर्वक मिटाया जाएगा, तो उस समुदाय के लिए अपनत्व का भाव कैसे अक्षुण्ण रहेगा? भारत सबका आशियाना है। फिर कुछ प्रतीक हम सब के हैं। उनसे महरूम होकर क्या हम अतुलनीय रह पाएंगे? 

(मीनाक्षी नटराजन पूर्व कांग्रेस सांसद हैं)

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