इंसान तूफानों को रोक तो नहीं सकता, लेकिन पेड़ लगाकर तबाही से बच सकता है

तूफान जैसी प्राकृतिक आपदा की तबाही से बचने के लिए पेड़ बहुत जरूरी हैं। समुद्री तूफान के खतरे वाले तटीय इलाकों में कछारी (मैनग्रोव) वनों के पुनर्जनन और पुनर्स्थापना को अतिप्राथमिकता के आधार पर शुरू किया जाना चाहिए और वनों की सघनता बढ़ाने के उपाय होने चाहिए।

फोटोः सोशल मीडिया
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चण्डी प्रसाद भट्ट

चार अक्टूबर 2017 को ‘संवाद समाचार पत्र’ के वार्षिकोत्सव में शामिल होने के लिए मैं भुवनेश्वर (ओडिशा) गया था। चूंकि मैं एक दिन पहले ही भुवनेश्वर पहुंच गया था इसलिए मेरे मित्र डॉ. महेंद्र प्रसाद ने शाम को मेरा कार्यक्रम वहां के प्रतिष्ठित ‘शिक्षा एवं अनुसंधान विश्वविद्यालय’ में रखा था। कार्यक्रम के अंत में विश्वविद्यालय परिसर में पौधरोपण का आयोजन रखा गया था। युवाओं और विद्वतजनों के बीच वृक्षारोपण में सम्मिलित होना मेरे लिए सौभाग्य की बात रही।

यह यात्रा मेरे लिए इसलिए भी स्मरणीय थी क्योंकि ओडिशा में अक्टूबर 1999 में आए 300 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार वाले प्रलयंकारी समुद्री तूफान के 18 साल बाद फिर से भुवनेश्वर गया था। इस तूफान के हफ्ते भर बाद, नवंबर 1999 में मैं भुवनेश्वर में था। उस समय बताया गया था कि तूफान से जो 36 घंटे तक तबाही मची वह प्रभावित लोगों तक पूर्वानुमान के नहीं पहुंच पाने और उससे बचने की कोशिश नहीं कर पाने से मची थी।

एक सप्ताह तक मैंने वहां के परिचित मित्रों के साथ पारादीप, इरसमा, मणिजंगा, तिरतोल, कटक, वाटक-ढेकानाला, पुरी-कोणार्क, आदि स्थानों की यात्रा की थी। एक अनुमान के अनुसार तूफान से सवा करोड़ की आबादी बुरी तरह प्रभावित हुई थी। करीब 20 लाख से अधिक पेड़ जमीदोंज हुए थे और 16 लाख हेक्टेयर से ज्यादा खेती की भूमि, फसल समेत नष्ट हुई थी। भुवनेश्वर में विशाल वृक्ष उखड़ कर नष्ट हो गए थे और शहर उजाड़-सा लग रहा था।

इस बार 18 साल बाद जब मैं फिर से भुवनेश्वर आया, तो शहर में हरियाली तेजी से बढ़ गई थी। शहर को हरा-भरा देखकर तब बहुतअच्छा भी लगा था, लेकिन पिछले ही महीने ‘फणि’ तूफान के बारे में समाचार आया, तो पता चला कि पूर्व सूचना तंत्र के प्रभावी होने के कारण मौतों को रोका जा सका है। मेरे मन में यह सवाल तब भी बार-बार कचोटता रहा कि वहां की हरियाली और पेड़-पौधे कैसे सुरक्षित रहे होंगे? पहले समाचार आया कि तीन व्यक्ति मारे गए हैं, लेकिन अंत में 64 लोगों के मरने की खबर की पुष्टि हुई। ‘फणि’ तूफान से हजारों पेड़ उखड़ गए- दो दशकों की हरियाली एक झटके में समाप्त हो गई।

मेरे सामने भुवनेश्वर का नवंबर 1999 के तूफान का वह दृश्य फिर से ताजा हो गया जब इधर-उधर विशाल उखड़े हुए वृक्षों का जमावाड़ा लगा था। उस समय बताया गया था कि कछारी (मेनग्रोव) वनों को पहले ही नष्ट कर देने के कारण समुद्र में तूफानी लहरों के निर्बाध रूप से अंदर आने में कोई रुकावट नहीं रही। पिछले सालों में कछारी (मेनग्रोव) वनों की बढ़ोतरी की जानकारी ‘वन-स्थिति रिपोर्ट’ (स्टेटस ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट) में देखी जा सकती है। साल 1999 के तूफान के बाद मैं पुरी से कोणार्क भी गया था, जहां समुद्र के किनारे पूर्व में किए गए सघन वृक्षारोपण को उतना नुकसान नहीं हुआ था जितना कि छितरे हुए विशाल पेड़ों को हुआ था।

मुझे साल 2014 में आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम और उसके आसपास के इलाके में ‘हुद हुद’ तूफान से हुआ नुकसान देखने मिला था। वहां छितरे हुए पेड़ तो पानी की मार में उखड़ गए थे, लेकिन जहां घने जंगल थे वहां पेड़ों को एक-दूसरे की मदद के कारण उतना नुकसान नहीं हुआ। विशाखापट्टनम से पाडेरू के बीच जगह-जगह यह दिखाई दिया। यही दृश्य 1990 में आंध्र प्रदेश के समुद्री तूफान में भी देखने को मिला था। बताते हैं कि आंध्र प्रदेश में 1977 के तूफान से लगभग दस हजार लोग मारे गए थे, लेकिन चक्रवाती तूफानों के बारे में पूर्व सूचना तंत्र के विकसित होने के बाद मानव मृत्यु रोकने में अभूतपूर्व सफलता मिली है। यदि कहीं जान का नुकसान हुआ भी है, तो वह जिद और सूचना के न पहुंचने के कारण है।

साल 1990 में पूर्व-सूचना के जारी होने से समुद्र के तटीय क्षेत्रों में मृत्यु संख्या न के बराबर रही, लेकिन एजेंसी एरिया में जहां वृक्षों का पतन हुआ था, वहां भूस्खलन के मलबे में दबकर दर्जनों लोग मारे गए। पाडेरू में परियोजना अधिकारियों ने बताया था कि पाडेरू डिवीजन में 8 से 11 मई के बीच 716 मिलीमीटर बारिश हुई थी और अतिवृष्टि के बाद भूस्खलन से 60 लोग मारे गए थे। वृक्ष- विहीन इलाकों में एक ओर भूस्खलन के कारण भारी तबाही हुई, तो दूसरी ओर अत्यधिक मात्रा में साद (सिल्ट) के बहने से तांडवा रिजर्बायर, पाम्बन जैसे कई बांध साद से पट गए और टूट गए। इन बांधों के आसपास की अधिकतर पहाड़ियां वृक्षविहीन थीं। जहां घना जंगल था, छोटी-बड़ी वनस्पति थी, वहां भूक्षरण एवं भूस्खलन नहीं देखा गया।

एक बात जो प्रशंसनीय है कि पूर्व सूचना मिलते ही 2019 के तूफान के समय ओडिशा में 10 लाख से अधिक लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया था। साल 1999 के तूफान के समय ओडिशा के नवागढ़ गांव में समुद्री तूफान से बचाव और राहत के लिए युवाओं को रेडक्रास द्वारा पूर्व में प्रशिक्षित किए जाने की जानकारी मिली। इस प्रशिक्षित दल के सदस्य संजय कुमार ने तब हमें बताया था कि उनके गांव में एक पक्का आश्रय स्थल बना हुआ है।

तूफान की जानकारी मिलते ही युवाओं के दल ने सायरन बजाकर लोगों को सचेत कर दिया था। गांव के सभी लोग समय रहते आश्रय स्थल पर पहुंच गए थे। कई लोग जो फिर भी तूफान में फंस गए थे उन्हें रस्सी बांध कर बचाया गया। बताया गया कि शरण स्थल में 1442 लोगों को तूफान के दौरान शरण मिल गई थी। इस गांव की दो महिलाओं ने इसी शरणस्थल के भंडारगृह में नवजात शिशुओं को जन्म दिया था।

जाहिर है, इस प्रकार के शरण स्थल तूफान प्रभावित इलाकों की हरेक ग्राम पंचायतों में बनने चाहिए। रेडक्रास द्वारा युवाओं को बचाव से जुड़ी जानकारियों और प्रविधियों में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। स्थानीय स्तर पर इसी टीम को सूचना के प्रचार-प्रसार के साथ आपातकालीन बचाव और राहत कार्य में जोड़ा जाना चाहिए।

कछारी (मैनग्रोव) वनों के पुनर्जनन और पुनर्स्थापना को अतिप्राथमिकता के आधार पर शुरू किया जाना चाहिए और इन वनों के संरक्षण के लिए प्रभावी प्रयास किए जाने चाहिए। वनों की सघनता बढ़ाने के मुक्कमल उपाय किए जाने चाहिए। छोटी और बड़ी वनस्पतियों से वृक्षविहीन इलाकों के लिए अग्रगामी योजना बनाई जानी चाहिए। मनुष्य तूफानों को रोक तो नहीं सकता, लेकिन उनकी मारक क्षमता को अपने दृढ़निश्चय से कम और निष्प्रभावी जरूर बना सकता है।

(लेखक सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् और चिपको आंदोलन के संस्थापकों में से एक हैं)

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