मैं शुक्रगुजार हूं कि हिंदुत्व ब्रिगेड ने मेरी मुस्लिम पहचान खोज निकाली: नसीरुद्दीन शाह

ये नफरत के बीज हमारे अंदर कहां से आए? क्या ये बीज बंटवारे के समय से हमारे अंदर उपज रहे थे? क्या हम सच बोल रहे थे, जब हम गाते थे, तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा या खुद को बहला रहे थे?

नसीरुद्दीन शाह (फोटो - Getty Images) और इंसेट में फरीद खान की किताब का  आवरण
नसीरुद्दीन शाह (फोटो - Getty Images) और इंसेट में फरीद खान की किताब का आवरण
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नसीरुद्दीन शाह

पिछले साल युवा कवि-कथाकार और रंगकर्मी फरीद खां की एक किताब आई थी ‘अपनों के बीच अजनबी’। वाम प्रकाशन, दिल्ली से यह किताब ऐसे वक्त में आई जब देश में बहुसंख्यकवाद जोरों पर है और अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेने का सिलसिला सा चल पड़ा है। किताब न सिर्फ इन हालात से उपजे संदर्भों का बयान है बल्कि निजी अनुभवों से निकले निष्कर्षों के साथ एक सार्थक हस्तक्षेप भी। इसमें मुसलमानों से जुड़े तमाम सवालों के तार्किक जवाब हैं तो उनके अंदर की संकीर्णता पर चोट भी। चर्चित अभिनेता नसीरुद्दीन शाह का यह लेख इसी किताब की भूमिका के तौर पर लिखा गया है।

मैं शुक्रगुजार हूं कि हिन्दुत्व ब्रिगेड ने मेरी मुस्लिम पहचान खोज निकाली- यह मैं अल्बर्ट आइंस्टीन के उन शब्दों से प्रेरित होकर लिख रहा हूं जो उन्होंने 1935 के आसपास प्रिंसटन में रहते हुए अपने यहूदी समुदाय पर हुए अत्याचारों को याद करते हुए लिखा था। ये शब्द मैं बहुत गुस्से के साथ दोहरा रहा हूं जब मेरी भारतीय पहचान को पूरी तरह से नकारते हुए मुझे सिर्फ एक मुसलमान की पहचान तक महदूद कर दिया गया है और ऐसा महसूस करवाया जा रहा है कि मुझे उस जगह नहीं रहना चाहिए जो मेरा घर है।

लेकिन मेरे साथ ऐसा कोई नहीं कर सकता है। जिस देश में मेरी पांच पुश्तों ने जन्म लिया और जहां की मिट्टी में वे सभी दफ्न हैं, जहां मैं पैदा हुआ, बड़ा हुआ और मुझे देश से प्रेम करना सिखाया गया, उस देश में अगर जरूरत पड़ी तो मैं अपने हक के लिए लड़ूंगा और सच को सच कहूंगा। पिछले दो सालों के तजुर्बे के बाद मुझे यह बात शिद्दत से समझ में आई कि आपको किसी धार्मिक समुदाय का होने की वजह से सताया जाना, आपकी सामाजिक हैसियत के लिए सताने से कुछ कम नहीं है।

यकीनन मैं अकेला ऐसा संपन्न कलाकार नहीं था जो लॉकडाउन के खत्म होने का इंतजार बिना किसी बाधा के कर सकता था और न ही मैं एकमात्र ऐसा व्यक्ति था, जो अपनी फिल्म इंडस्ट्री के जूनियर आर्टिस्ट, लाइटमैन, मेकअपमैन, स्टंटमैन या किसी भी कार्यक्षेत्र के आवश्यक लोगों के बारे में लगातार चिंता करता था। मैं अक्सर रेस्तरां जाने वाला व्यक्ति नहीं हूं, मगर मैं उनके बारे में सोच कर परेशान रहता था कि बावर्ची, वेटर, सफाईकर्मी या रिक्शा वाले, टैक्सी वाले और सब्जी बेचने वाले अपनी जिंदगी को बचाए रखने के लिए क्या करते होंगे ?

कोरोना के दौरान हमने अपने चारों तरफ मजदूरों के घर लौटने का भयानक दृश्य देखा। थके और सूजे हुए पैरों के असंख्य जोड़े और बोझिल आंखों के साथ उन्हें यह नहीं पता था कि दूसरे वक्त का खाना कहां से आएगा। न जाने ऐसे कितने मजदूर हर जगह फंसे हुए थे। हम मुसलसल अपने टेलीविजन पर पुलिस को देख रहे थे उन मजदूरों को सताते हुए जो निहायत ही कम मजदूरी और अत्यधिक काम के बोझ से त्रस्त हैं जबकि उसी दौरान हमारी दयालु सरकार ने वाशिंगटन स्थित संसद भवन पर होने वाले हमले पर अपनी सहानुभूति प्रकट की, क्रिकेट में ऑस्ट्रेलिया पर भारत की जीत का जश्न मनाने की पर्याप्त उदारता दिखाई।

उनकी इंसानियत देखिए कि नागरिकता देने में हमारे पड़ोसी देश के गैर-मुस्लिम लोगों को जो फुर्ती दिखाई, उसके उलट गजब की बेहिसी दिखाई अपने देश के नागरिकों की भयानक स्थिति पर। मुमकिन है उनका समय चुनावी रणनीति बनाने और फूट डालने के नए तरीके अपनाने में जा रहा होगा।


इस बीच यूपी में ‘योगी-हुड’ का दावा करने वाला एक व्यक्ति एक योजना बना रहा था, जाहिर तौर पर ‘प्रिय नेता’ की मौन सहमति के साथ जिसे वह देश के सामने सबसे ज्यादा जरूरी समस्या मानता था और उसने तेजी से एक नया कानून पेश किया ‘जबरन धर्मांतरण’ के खिलाफ। मानो यह इस समय हमारे देश का सबसे अहम मुद्दा हो।

यूपी के प्रशासन तंत्र ने बिना देर किए किसी भी शादी में बाधा डालना शुरू कर दिया, यहां तक कि एक मुस्लिम जोड़े की भी शादी में बाधा डालने के बाद और उन्हें पूरी तरह से आतंकित करने के बाद, बिना किसी माफी या पश्चाताप के बाद इस तरह छोड़ा जैसे उन पर बहुत बड़ा उपकार किया हो।

अगर एक मुसलमान लड़की हिन्दू धर्म अपना ले तो उसमें कोई दिक्कत नहीं है, आखिर वह अपने ‘वास्तविक’ या ‘पूर्वजों के धर्म’ में वापस आ रही है। वह जबरदस्ती हो रहा हो या जैसे भी। लेकिन सरकार में बैठे लोगों का बस चले तो ‘लव-जेहाद’ के तहत हिन्दू-ईसाई या हिन्दू-पारसी या बौद्ध-मुस्लिम शादी को भी प्रतिबंधित कर दें। या हम यह मान कर चलें कि भगवा ब्रिगेड का गुस्सा सिर्फ मुसलमान मर्दों के लिए है जो उनके मुताबिक भोली हिन्दू लड़कियों को गुमराह कर रहे हैं और भयावह दर से बच्चे पैदा कर रहे हैं? 

इस्लामोफोबिया की आग इतनी बढ़ गई है और इसे एक योजना के तहत बढ़ाया भी जा रहा है कि एक दिव्यदृष्टा पुलिस अधिकारी ने एक स्टैंड-अप कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारूकी को जो इत्तेफाक से मुस्लिम है, इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि ‘उन्होंने हिन्दू भगवान का अपमान नहीं किया था लेकिन करने जा रहे थे।’

इन सब बातों का सबसे परेशान करने वाला पहलू यह है कि जितने जघन्य तरीके से ये सब किया जाता है, उतनी ही बेशर्मी से उसका ढिंढोरा पीटा जाता है। याद कीजिए वह वीडियो जिसमें एक मरते हुए घायल मुसलमान को पुलिस वाले राष्ट्रीय गान गाने को बोल रहे हैं या वह वीडियो जिसमें बाबू बजरंगी जो अभी जमानत पर बाहर है, एक बेबस इंसान की हत्या की शेखी बघार रहा है। उधर, मुनव्वर फ़ारूकी की जमानत बार-बार रद्द की जा रही थी। वह युवक अपने पूरे आदर्शवादी युवा जीवन पर सवाल उठा रहा होगा। हमारे कितने सारे सामाजिक कार्यकर्ता जेल में बंद हैं और जो लोग भीड़ को हिंसा के लिए उकसाते हैं उनको पुरस्कृत किया जाता है। 

कुछ तो है जो सड़ गया है ...।

इससे पहले कि आप यह सोचें कि ये सारी बातें एक हताश और निराश मुसलमान का रुदन है, तो मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि मेरा मुसलमान होना मेरे जीवन में कभी भी महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है। हाल के वर्षों में टोपी और दाढ़ी वाले युवकों और हिजाब में लड़कियों की बढ़ती तादाद मुझे उतना ही परेशान करती है जितना कि ‘विपरीत खेमे’ द्वारा भगवा तिलक और सिर पर पट्टी बांधना।

मैंने खुद की पहचान सिर्फ किसी धर्म से नहीं की जबकि मेरी पैदाइश और परवरिश एक पारंपरिक मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुई है। मेरे मां-बाप जीवन भर मजहब के पाबंद रहे, वो पांचों वक्त नमाज पढ़ते थे, पूरे महीने रोजे रखते और हम तीनों भाइयों को मौलवियों से कुरान पढ़वाते थे, जिन्होंने न केवल अरबी हरूफ और कुरान पढ़ना सिखाया बल्कि अपनी ड्यूटी के दायरे से काफी बाहर जाकर इस बात पर जोर दिया कि पृथ्वी तो समतल है; यह कहना हास्यास्पद है कि यह गोल है और घूमती है, असल में सूरज घूमता है।


उन्होंने हमें बताया कि हूरें जन्नत में ईमान वालों का इंतजार कर रही हैं। लेकिन मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि मैं इन बातों के मोह में नहीं पड़ा। यहां तक कि दस साल की उम्र में भी मुझे लगता कि इतनी सारी बला की खूबसूरत औरतों को इकट्ठा कौन संभाले! इसके अलावा इस खयाल ने और भी हतोत्साहित कर दिया कि ऊपर एक बूढ़ा आदमी बैठा सारी रंगीनियां देख रहा है। क्या लगातार सिर झुकाना, सफाई करना और उसकी अच्छाइयों व रहमतों की तारीफ करते रहना वास्तव में मजेदार होता? साथ ही मैंने यह भी सोचा कि क्या जहन्नुम वास्तव में इतना बुरा हो सकता है, यह देखते हुए कि मेरे सभी दोस्त वहां होंगे!

मुझे मजहबी कायदों को छोड़ने में बहुत वक़्त नहीं लगा- वे ऐसे कर्मकांडों की तरह लगते थे जिन्हें आंख मूंदकर बस करते जाना है, यह जाने बगैर कि वे क्यों बनाए गए। और सभी तरह की प्रार्थनाएं जो मिन्नत-समाजत, इल्तिजा और माफी मांगने के अलावा कुछ भी नजर नहीं आती थीं, मुझे जरूरी नहीं लगीं। इन सबने मुझे विरक्त कर दिया और बीस साल की उम्र में मैंने अपनी मुस्लिम पहचान को छोड़ दिया क्योंकि जिस तरह की जिंदगी मैं जीना चाहता था, उसमें इसका कोई अर्थ नजर नहीं आता था। वैसा ही हुआ। मुझे हमेशा अपने काम में वह संतुष्टि मिली जो मुझे मजहब में कभी नहीं मिली।

इसलिए मुझे बहुत हैरानी हुई जब मुझे पहली बार ‘मुसलमान गद्दार’ कहा गया और अपना बोरिया बिस्तर बांध कर, आप सोच सकते हैं, कहां जाकर रहने को कहा गया होगा। दरअसल मजहब से आजाद होते ही मुझे ऐसे ‘क्लब’ से भी आजादी मिल गई जिसमें किसी और समुदाय के लिए प्रवेश न हो। मुझे कभी भी मुसलमानों से ऐसा कोई विशेष लगाव नहीं रहा, सिवाय इसके कि हमारी जबान और आदतें (मेरे खयाल से तहजीब) एक जैसी थीं। लेकिन उसमें भी मैंने बहुत सारे हिन्दुओं और सिखों को बहुत सारे मुसलमानों से और मुझसे भी बेहतर उर्दू बोलते हुए पाया। अब जाकर हम सब महसूस कर पा रहे हैं जिन्ना के उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बनाने का बुरा असर! इसी के नतीजे में उस पर एक ‘मुस्लिम’ भाषा का ठप्पा लग गया, यहां तक कि भारत में भी कुछ जगहों पर, हालांकि यह अविश्वसनीय लगता है, उर्दू को अब वास्तव में एक विदेशी भाषा की श्रेणी में रखा जाता है। विडंबना यह है कि यह ‘विदेशी’ भाषा इसी देश में विकसित हुई और सिर्फ यहां बोली जाती है!

मुझे गहरा क्षोभ होता है जब मुझे बार-बार अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए यह दोहराना पड़ता है कि हमारी पांच पुश्तों में जिनमें कई सारे पुलिस, फौजी और सरकारी ऑफिसर रहे, कभी भी किसी ने अपने कॅरियर में मुसलमान होने की वजह से रुकावट महसूस नहीं की। मुझे एक हिन्दू से शादी करने में कोई झिझक या दिक्कत नहीं हुई, न ही रत्ना को। मेरी शादी के अड़तीस साल बाद एक भूतपूर्व कैबिनेट मंत्री के जीवन साथी ने सीधे-सीधे मुझ पर लव जेहाद का आरोप तो नहीं लगाया, पर तंज जरूर कसा कि अपने जमाने में आपने अपने धर्म से बाहर शादी तो कर ली लेकिन अब...। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन कोई मुझसे यह कहेगा।


मेरी मां ने सिर्फ एक बार रत्ना के धर्म परिवर्तन के बारे में जानना चाहा था और हमने इंकार कर दिया था, तो उनका जवाब था, ‘हां, मजहब कैसे बदला जा सकता है।’ कुरान का अनुसरण करने वाली उस महिला का यह बयान ज्यादा समझदारी भरा है या नफरत फैलाने वाली यह सोच कि ‘हिन्दू मुस्लिम साथ नहीं रह सकते’, यह फैसला मैं पाठकों पर छोड़ता हूं। मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं, एक हिन्दू के साथ मेरी शादी (दोनों परिवारों द्वारा निर्विवाद रूप से स्वीकृत) जो चालीस साल से टिकी हुई है, इस बात का सबूत है- अगर किसी को सबूत की जरूरत है तो- कि हिन्दू और मुस्लिम एक साथ सिर्फ रह ही नहीं सकते हैं बल्कि उनको साथ रहना भी चाहिए।

ये नफरत के बीज हमारे अंदर कहां से आए? क्या ये बीज बंटवारे के समय से हमारे अंदर उपज रहे थे? क्या हम सच बोल रहे थे, जब हम गाते थे, तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा या खुद को बहला रहे थे?

मुझे यकीन है कि सिर्फ मैं नहीं बल्कि बहुत सारे लोग शाहीनबाग के धरने पर बैठी मुसलमान औरतों पर अपमानजनक आरोप से परेशान हुए होंगे। मैं अकेला नहीं हूं जिसे हैरत हुई यह देखकर कि किस तरह पहले इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को और बाद में किसान आंदोलन को खत्म करने और बदनाम करने की कोशिश की गई।

मैं अकेला नहीं था जिसका खून खौल रहा था जामिया के छात्रों के साथ पुलिस क्रूरता देखकर, जेएनयू पर हमला करने वाले गुंडों को देखकर और उस भीड़ को देखकर जिसने पूरे नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली में दंगे कर दिए। मेरा यह भी अनुमान है कि मैं अकेला आश्चर्य करने वाला व्यक्ति नहीं हूं दिल्ली पुलिस की उस रिपोर्ट पर जो उसने फरवरी, 2020 में हुए दिल्ली दंगे के बाद दी थी। कोई इतना भी नादान नहीं होगा कि मान ले कि मुसलमानों ने अपने ही घर और दुकान जलाए, अपने सगे और रिश्तेदारों को मारा और मस्जिद तोड़ी।

क्या किसी मस्जिद पर एक भगवा झंडा फहराना उतना ही अपमानजनक नहीं है जैसे कि हम कोई धार्मिक झंडा फहराएं लाल किले पर? वैसे भी, कब से लाल किला इतना पवित्र हो गया- क्या इसे उन ‘विदेशियों ने नहीं बनाया था जिन्होंने देश को लूटा है?’ इन सब में सबसे खतरनाक बात यह है कि केन्द्र सरकार को इसकी परवाह ही नहीं है कि हर बात के लिए अल्पसंख्यकों को जिम्मेदार ठहराकर (सभी साक्ष्य विपरीत होते हुए भी) उनके प्रति भेदभाव का खुलेआम प्रदर्शन किया जा रहा है- यह उन्हें मुख्यधारा से दूर करने की एक और कोशिश है। जब उनको कोविड-19 फैलाने के लिए जिम्मेदार ठहराने की योजना नाकामयाब हो गई, तो आग भड़काने की नई चाल चली गई।

महामारी, सरकार के लिए सीएए के विरोध प्रदर्शनों को खत्म करने के लिए एक वरदान के रूप में आई थी लेकिन किसान बहुत कठोर मिट्टी के बने थे। दिल्ली की सीमाओं पर जो कुछ हुआ वह कल्पनातीत है। प्रदर्शनकारियों के धैर्य और प्रशंसा के बावजूद आंदोलन के तहत होने वाली कुछ ज्यादतियों पर घबराहट हुई थी। एक धूर्ततापूर्ण चाल के तहत उन ‘हिंसक बर्ताव’ और ‘राष्ट्र ध्वज के अपमान’ के लिए सिखों को बदनाम करने की कोशिश हुई। कब से सिख दुश्मन नंबर 2 बन गए?

1982 में जब मैंने और रत्ना ने शादी का फैसला किया था और अपने से बड़े एक घरेलू दोस्त जिनका अतीत भी कुछ ऐसा ही था, से मशविरा किया तो उन्होंने हमें इत्मीनान दिलाया था कि कोई राजनैतिक या धार्मिक अड़चन नहीं होगी लेकिन शायद हमें सिर्फ सामाजिक अड़चन हो; मसलन, दीवाली ज्यादा जरूरी है या ईद, क्या घर में शराब की इजाजत होगी, हमारे बच्चों को कौन सी धार्मिक शिक्षा मिलेगी, क्या हमारे घर में हिन्दू संस्कृति होगी या मुस्लिम, वगैरह-वगैरह। हमें इस बात का गर्व है कि हमारे घर में शुरू से ही कोई धार्मिक व्यवस्था नहीं है, दीवारों पर कोई प्रतीक नहीं है (सौंदर्य कारणों से बुद्ध की एक सुंदर लकड़ी की मूर्ति के अलावा)।


हमारे बच्चों का कोई धर्म नहीं हैं लेकिन हमने उन्हें सब बताया है, हालांकि मैंने उन्हें मजहबी रस्मों को लेकर अपने आग्रह उन्हें नहीं बताए हैं। हमारे यहां दीवाली और ईद- दोनों ही त्यौहार पूरे उत्साह से मनाया जाता है, एक धार्मिक विधि से नहीं बल्कि एक पारिवारिक जलसे की तरह। हम नमस्ते और सलाम-अलैकुम उतनी ही पाबंदी से इस्तेमाल करते हैं और प्रार्थना के नाम पर हर चीज के लिए आभार प्रकट करते हैं। हमारे बच्चे अंतर्धार्मिक विवाह के अभ्यस्त थे, वे हैरान हो गए थे यह जानकर कि असल में मुस्लिम-मुस्लिम या हिन्दू-हिन्दू की भी शादी होती है।

हमें विश्वास था कि हम एक-दूसरे से शादी करके एक स्वस्थ मिसाल कायम कर रहे हैं; खासकर इसलिए भी कि हमने सामाजिक मुद्दों को आसानी से पार कर लिया। हमें उम्मीद ही नहीं थी कि एक ऐसा फरमान भी आएगा जो न केवल एक अंतर-धार्मिक वैवाहिक संबंध के विचार को अकल्पनीय बना देगा बल्कि वास्तव में हिन्दू-मुस्लिम सामाजिक संपर्क को भी झकझोरने का प्रयास करेगा, जिसकी अभिव्यक्ति हमें उस प्रस्तावित निर्देश में स्पष्ट दिखाई देती है कि रेस्तराओं को अब घोषणा करनी होगी कि वो जो मांस परोस रहे हैं वो झटका है या हलाल ?

ऐसा लगता है कि हमारे प्रिय बुजुर्ग पूरी तरह गलत थे।

मैं और मेरा परिवार यह देखकर हैरान है कि किस तरह से नफरत बढ़ाने वाले लोग खुलेआम ये सब कर रहे हैं और हम जैसे लोग खुद को ‘गद्दार’ करार दिए जाने का इंतजार।

कुछ समय पहले मेरे भाई ने मुझे एक चिट्ठी लिखी थी जो काफी परेशान करने वाली थी। जाहिर सी बात है, हम दोनों की परवरिश एक सामान हुई है, हालांकि वह मेरे विपरीत धार्मिक विचार के इंसान हैं। वह लिखते हैं- ‘अचानक से हमारे दोस्तों को हमारा मुस्लिम होना दिखाई देने लगा है, अगर हम इस सरकार की जरा भी बुराई करते हैं तो हमें गद्दार घोषित कर दिया जाता है। परेशानी की बात यह है कि यह बदलाव सिर्फ कुछ चंद लोगों में नहीं देखा जा रहा है जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सके।

मेरे छात्र जीवन में जब मैं आईआईटी में था, तब हमारे दोस्तों में विभिन्न संस्कृतियों के लोग थे, भारत का एक छोटा रूप था जिसमें बंगाली, सिख, पंजाबी, मलयाली, गोवन, तमिलियन और एक यूपी का भईया (मैं), कई लोग थे। भारत के सभी धर्म के लोग हिंदू, सिख, ईसाई, मुस्लिम,  जैन, पारसी- हम सब खुशी-खुशी मिलते थे, 2018 तक जब हमारा पचासवां स्नातक मिलन हुआ। उसके बाद से चीजें बदल गई हैं। लोग आपस में बात नहीं करते हैं, वरना आज जो कुछ भी भारत में हो रहा है उसके बारे में सबके अंदर गहरे बैठी बात उभर कर निकल आती है। मैं अभी तक इस सदमे और झटके से उबर नहीं पाया हूं।

मुझे उनके अहसासात से हमदर्दी है, हालांकि मैंने अभी तक उनके जैसा महसूस नहीं किया है। मेरे बहुत से दोस्त हैं जो बीजेपी के जबरदस्त समर्थक हैं और प्रधानमंत्री के भक्त; हमारे बीच वैचारिक मतभेद के बावजूद एक-दूसरे के प्रति इज्जत बरकरार है। देखने की बात यह होगी आखिर कब तक? 


मेरे भाई अब भारत में नहीं रहते, वे इस चिंताजनक स्थिति से बच गए। शायद यह बहुत निराशाजनक और जल्दबाजी वाली बात हो लेकिन हम धीरे-धीरे एक फासिस्ट राष्ट्र में तब्दील होते जा रहे हैं। हम साफ-साफ देख सकते हैं कि नस्ल की शुद्धता और श्रेष्ठता के बारे में किस तरह से बातें हो रही हैं; किस तरह से पुलिस को खुली छूट है; सरकार समर्थक नफरत फैलाने वालों और मॉब लिंचिंग करने वालों को या किस तरह से पढ़े-लिखों और ईमानदार पत्रकारों और सामाजिक विकास के कार्य में लगे कार्यकर्ताओं को परेशान किया जा रहा है; विश्वविद्यालयों में दखल दिया जा रहा है; इतिहास फिर से लिखा जा रहा है।

असहमतियों को दबाना, डराना, अपने चुने हुए ‘दुश्मनों’ पर मुकदमे चलाना, कुछ मीडिया वालों को समर्थन देना और कुछ के गले घोंटना, काल्पनिक आंतरिक शत्रुओं का निर्माण और यह माहौल बनाना कि बहुसंख्यकों को खतरा है; जो अपराध वो कर रहे हैं, उसके लिए दूसरों पर आरोप मढ़ना और एक ऐसे नेता को जन्म देना जो अचूक, अविनाशी और सर्वज्ञ है; जो अपने बारे में प्रशंसा पसंद करता है, और अपना नाम ऐसे लेता है जैसे स्वयं से इतर किसी महान व्यक्ति का नाम ले रहा हो; साफ दिख रहा है कि सत्ता में बैठे नेताओं ने फासिज्म का अध्ययन अच्छे से किया है लेकिन अच्छा होगा अगर उन्होंने यह भी अध्ययन किया हो कि इतिहास में ऐसे नेताओं का क्या हश्र हुआ था।

आखिर आइंस्टीन भी हिटलर के ऐसे हश्र का पूर्वानुमान नहीं कर पाए थे।

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