'न जाने साथ चलते हैं कितने ही घोंसले, हर सफर में एक घर बस जाता है'
सुकमा में मिले गरम भात की महक, उंगुलियों में भाप की ताप और बड़वानी में भादल गांव का संगीत, कदमों की थिरकन साथ रहती है। श्रीनगर के घर में बिताई बेहद सर्द शाम में अपनेपन की गर्माहट साथ रहती है।

हाल ही में कार्य समिति की बैठक में पटना जाना हुआ। इधर काफी अरसे से काम के सिलसिले में कहीं जाना पड़े, तो साथियों, पुराने सहपाठियों के घर पर ठिया जमाने की कोशिश रहती है, जहां कुछ पल पुर सुकूनी में बिताए जाएं। उस माहौल में समाया जाए। फिर उस घर का बहुत कुछ अपने भीतर समेटकर लौटती हूं।
अब न जाने कितने ही घोंसले मेरे साथ चलते हैं। गिनती याद नहीं। सुकमा के गांव में मिले गरम भात की महक, उंगुलियों में भाप की ताप अब भी साथ रहती है। मध्यप्रदेश के बड़वानी में भादल गांव का संगीत, कदमों की थिरकन साथ रहती है। श्रीनगर के घर में बिताई बेहद सर्द शाम में अपनेपन की गर्माहट साथ रहती है। ऐसे ही इस बार पटना गई, तो बहुत कुछ साथ लाई।
दुनिया बहुत करीब होती जा रही है। बहुत बातें होती हैं। फेसबुक, इंस्टा, वाट्सएप। न जाने और किस-किस के जरिये। मगर कोई किसी को तसल्ली से नहीं सुनता। नेट के जरिये की गई मुलाकात तो ऑन लाइन है, मगर रूबरू मिलना ऑफ लाईन। ऐसा भी माना जाने लगा है कि किसी के घर पर ठहरना शिष्टता नहीं है। निजता पर असर पड़ता है। असुविधा होती है। बावजूद इसके कि हर मध्यमवर्गीय घर में गेस्ट रूम बनने लगा है।
तब पटना रेलवे स्टेशन पर उतरकर किसी हम ख्याल साथी के घर जाना बहुत मधुर अनुभव था। मकान के दूसरे मंजिल पर घर था। बोगनवेलिया के फूलों की छतरी के नीचे स्निग्धता से इस्तकबाल हुआ। मेरी उनसे कुछ साल पहले मुलाकात हुई थी। पर कभी-कभी एक मुलाकात काफी होती है, कुछ जोड़ने के लिए।
ऊपर उनके आशियाने में प्रवेश करते समय पुराने फिल्मी तराने कानों को थपका रहे थे। पता चला कि विविध भारती चलता रहता है। मुझे लगा था कि कारवां बज रहा होगा। अमूमन पुराने तरन्नुम के शौकीन अब वही सुनते हैं। पर यहां चिर परिचित विविध भारती सुनाई दे रही थी। घर में ऐसा लगा नहीं कि पहली बार आई हूं। जैसे हर चीज की जगह घर ने खुद बता दी। कुछ खोजना नहीं पड़ा। जैसे मैंने नहीं, घर ने दस्तक दी हो। दीवार पर मुक्तिबोध की कविता फ्रेम मे टंगी थी। मेरी एक अन्य सहेली का बहुत साल पहले दिया कपड़े का तोता साथ वाले कमरे में था। उसके मटमैलेपन में अब भी सहेली की गंध समाई हुई थी। उस गंध को सहेजकर रखा गया था। फिर उन्होंने अपना ‘जंगल’ दिखाया। उनके घर की छत पर उगाया गया बेतरतीब उपवन। जहां पौधे, बेल, कुछ पेड़ लगाए गए हैं। उनकी संभाल होती है। उनको पोसा जाता है, पाले बगैर। सब वैसे ही है, जैसे वे हो सकते हैं। उन्हें बेतरतीब होने का हक है। हक जताने पर उन्हें छांटा नहीं जाता। कुछ पेड़ तो बस चिड़ियों के लिए लगाए हैं। पेड़ -पौधों को मोहल्लों में नहीं बांटा था। प्रकृति का उपनिवेश नहीं हुआ।
मुझे मेरे यार पिलखन की बरबस याद हो आई। तीन मूर्ति पुस्तकालय के प्रांगण में पिलखन का पेड़ है। कांच की खिड़की के पास बैठकर पढ़ते समय उस पर नजर पड़ ही जाती थी। फिर परिसर का विकास होने लगा, तो जाना बंद कर दिया। एक दिन पिलखन की याद आई। जाकर देखा तो सीमेंट-कंक्रीट के उस विकसित उद्यान में वह बहुत देर तक नहीं दिखा। निराश होकर लौट ही रही थी कि एक पुराने साथी ने मुझे देखकर पहचाना। वही मुझे पिलखन दिखाने ले गए। बस उस दिन मैं उसे अपने साथ ले आई। अब हम साथ रहते हैं। एक दूसरे के मन आंगन में, बिना किसी रोक-टोक।
पटना की छत में उस दिन पता चला कि गंगा रिवरफ्रंट की भेंट चढ़ गई है। कोई फ्लाईओवर बना है। वैसे पुलों के खंडहर पर फ्लाईओवर सजाए जाते हैं। वे संबंधों के पुल, जो शहर में टूटते हैं कि स्मार्ट सिटी बन सके। सीसीटीवी कैमरा लग सके। बहरहाल, गंगा उत्तर की ओर धकेली गई है। रिवरफ्रंट की बदौलत। उत्तराखंड तो वैसे खिसक रहा है।
कई बातें हुईं। सिर्फ जुबानी नहीं। अंतस का सैलाब भी उमड़ा, खामोश सिसकियों के साथ। कार्य समिति की बैठक में मिले कुछ दूसरे साथियों के पूछने से पहले मन किया कि पूछें, “पार्टनर! तुम्हारी पॉलीटिक्स क्या है इन दिनों?” वे क्या जानेंगे कि मुक्तिबोध का फ्रेम अब मेरे मन के खूंटे पर टंग रहा है। बैठक तो जैसे होती है, हुई। बाहर सदाकत आश्रम की पुरानी कर्मचारी मिली। 2016-17 में मेरे प्रवास पर भुजिया रोटी खिलाती थी। मैं तब वहीं रुका करती थी। उसे गले लगाया। बाकी तो बहुत कुछ बदल गया था। सामने अब गंगा माई नजर नहीं आतीं, जैसे तब आती थीं। विकास हुआ है।
लौटने से पहले मैं फिर घर गई। लौटने का मन नहीं था, पर जाना तो था। खाने का डिब्बा साथ था। रेलगाड़ी में बैठते ही डिब्बा खोला। सत्तू का पराठा, आलू की भुजिया, अचार की मुंह में पानी भर देने वाली महक से कंपार्टमेन्ट भर गया। और भी कई भीनी महक घर से साथ हो ली थी। मुझे एक धुन सुनाई देने लगी। याद आया कि ये धुन कहां से साथ हो ली है। सुबह घर में घुसते ही विविध भारती में हौले से बज रहा था-
“दो घड़ी वो जो पास आ बैठे
हम जमाने से दूर जा बैठे।”