अरावली के दर्द नहीं समझा तो टूट जाएगी भारत की रीढ़
अरावली के लोगों और अरावली का दर्द एक ही है। अरावली पर्वत की प्राकृतिक पीड़ा और उस क्षेत्र की मानवीय संस्कृति पर संकट एक साथ आ गया है। इसे रोकने के लिए हमें संकट को समझना होगा और खनन से अरावली को बचाना होगा।

अरावली भारत की एकमात्र आड़ी पर्वतमाला है। भारत की अधिकांश पर्वत श्रृंखलाएं मॉनसून के अनुकूल उत्तर-पूर्व दिशा में फैली हैं, किंतु अरावली इसके विपरीत दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर सीना ताने खड़ी है। इसका यह सीना पश्चिम से आने वाली रेत भरी आंधियों को अपने घने जंगलों में सोख लेता है। यही कारण है कि इसे भारत की रीढ़ की संज्ञा दी जाती है। यह विश्व की एकमात्र ऐसी प्राचीन पर्वतमाला है, जिसमें पुरानी चट्टानों के बीच-बीच में नए-नए रेत के टीले आज भी दिखाई देते हैं।
प्रो. एस एस डावरिया, जो उस समय जयपुर के बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च के निदेशक थे, ने रिमोट सेंसिंग के अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट मेरे द्वारा दाखिल याचिका में सुप्रीम कोर्ट में पेश की थी। उस समय खनन से अरावली में 22 बड़े-बड़े गैप पैदा हो चुके थे। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वेंकटचलैया ने मेरी बात सुनकर और रिपोर्ट देखकर भारत सरकार को निर्देश दिया था कि दिल्ली को इन रेत भरी आंधियों से बचाने के लिए अरावली को संरक्षित किया जाए। उसी के परिणामस्वरूप 7 मई 1992 को भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने अरावली संरक्षण अधिसूचना जारी की थी।
इससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने अरावली को एक समग्र पर्वतमाला मानते हुए इसे बचाने का ऐतिहासिक फैसला सुना दिया था। उस समय लगा था कि अरावली के आंसू पोंछ दिए गए हैं और उसका दर्द न्यायपालिका ने समझ लिया है। लेकिन 20 नवंबर 2025 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और शपथ-पत्रों को पढ़कर दुख के साथ कहना पड़ता है कि “अरावली का दर्द न जाने कोय”।
अब पहाड़ को भी ऊंच-नीच में बांट दिया गया है। केवल 100 मीटर से अधिक ऊंची चोटियां ही अरावली मानी जाएंगी। उससे कम ऊंचाई वाली अरावली नहीं रहेंगी। उन छोटी-छोटी पहाड़ियों को खोज-खोज कर निकालो, जिन्हें हमने 1980 के दशक से बचाने की मुहिम छेड़ी थी।
अरावली के पुनर्जनन के लिए 1986 में हमने गोपालपुर गांव में मेव जाति के लोगों के साथ मिलकर एक बड़ा बांध बनाया था, ताकि पहाड़ियों पर पशुओं की चराई का दबाव कम हो। बांध बनते ही गोपालपुर में पानी लौट आया। जो युवक लाचार, बेरोजगार और बीमार होकर गांव छोड़कर शहर चले गए थे, वे कुओं में पानी देखते ही वापस लौटने लगे। तभी पालपुर गांव के जंसी मीणा मेरे पास आए और बोले, “हमारे सारे कुएं खदानों की वजह से सूख गए हैं। आप हमारे यहां भी जोहड़ बनवा दीजिए।” फिर हमने पालपुर में जंसी मीणा और तिलवाड़ी में छोटेलाल मीणा के नेतृत्व में जोहड़ बनवाए। छोटेलाल उस समय कहा करते थे, “खनन पहाड़ को तो उजाड़ ही रहा है, हम भी उजड़ रहे हैं। आपने जो जोहड़ बनवाया है, उससे हम तब ही टिक पाएंगे जब खनन पूरी तरह बंद होगा।”
तरुण भारत संघ ने दोनों गांवों में जोहड़ बनवाए, लेकिन सारा पानी खदानों में चला जाता था क्योंकि खदानें कुओं से कहीं अधिक गहरी थीं। तब से पानी बचाने की लड़ाई खनन के खिलाफ लड़ाई बन गई। जब सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेश से खदानें बंद हुईं, तो दोनों गांवों के कुएं फिर लबालब भर गए। इसके बाद जंसी मीणा का बेटा ख्याली राम मीणा, महेश शर्मा, गोपी कुमार मलाना ने मिलकर पूरे अरावली क्षेत्र में “अरावली बचाओ यात्रा” निकाली।
पालपुर, तिलवाड़ी, तिलवाड़, वेरवा डुंगरी, बलदेवगढ़, गोवर्धनपुर और मलाना के सरपंच पांचू राम ने प्रत्यक्ष सत्याग्रह करके खनन रुकवाया। मलाना में पाटनी और आर.के. मार्बल जैसे बड़े खान मालिक भी आए, लेकिन जन-सत्याग्रह के सामने उन्हें खदान चलाने की हिम्मत नहीं हुई। उस समय न्यायमूर्ति वेंकटचलैया जैसे निडर न्यायाधीश थे, जो पर्वतमाला और उसमें रहने वाले लोगों का दर्द सुनकर अरावली को न्याय देते थे।
10 अक्तूबर 2025 को मैं बेंगलुरु उनके घर मिलने गया था। उन्हें अरावली की पूरी कहानी याद थी। उन्होंने कहा था, “हमने भारत सरकार और राज्य सरकारों को स्पष्ट आदेश दिया था कि पहाड़ बचाने वालों को खनन माफिया से बचाना सबकी जिम्मेदारी है। राजेंद्र सिंह के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से पहले उच्चतम न्यायालय की अनुमति लेनी होगी।”
उस आदेश ने अरावली की जान और इज्जत बचाई थी। खान मालिकों ने मेरे खिलाफ दर्जनों झूठे मुकदमे दर्ज करवा दिए थे, पुलिस भी परेशान करती थी, लेकिन उस समय पर्यावरण कार्यकर्ताओं की सुरक्षा के लिए कानून था और उसका पालन भी होता था। उस समय पहाड़ का दर्द सुना जाता था, पहाड़ और पहाड़ बचाने वालों की सूरक्षा होती थी। आज नहीं मालूम क्या हो गया है? अरावली की पीड़ा सुनने को कोई तैयार नहीं। जो अरावली की पीड़ा जानते हैं, वे बचाना चाहते हैं, लेकिन बचाने वालों की पीड़ा ही बढ़ती जा रही है।
अरावली तो लोगों और अपने जंगलों की पीड़ा कम करने के लिए आड़ी खड़ी हुई है। इसी कारण राजस्थान के रेगिस्तान की तुलना में अरावली क्षेत्र में कहीं अधिक और नियमित वर्षा होती है। अरावली में सीधी-सीधी दरारें हैं, जिनके माध्यम से वर्षा का पानी सीधे भूजल भंडारों में पहुंचता रहता है। यही कारण है कि चारों राज्यों (राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, गुजरात) में जहां अरावली है, वहां आज भी मीठा और सुरक्षित पेयजल उपलब्ध है। यह पर्वतमाला भूजल का सबसे बड़ा बैंक है। इसलिए कभी दिल्ली के खड़कपुर, हरियाणा के काला अंब, गुरुग्राम-फतेहाबाद-नूंह क्षेत्र को भूजल संरक्षित क्षेत्र घोषित करने की बात चली थी। हरियाणा में जहां पहाड़ियां हैं, वहां मीठा पानी है, बाकी मैदानी इलाकों में खारा।
यही स्थिति अरावली वाले चारों राज्यों में आज भी दिखती है। यदि इन पहाड़ियों में खनन हो गया तो बादलों का संतुलन बिगड़ जाएगा, मौसम चक्र अनियमित हो जाएगा, बाढ़-सूखा बढ़ेगा, फसलें घटेंगी, खाद्य और पेयजल सुरक्षा पर संकट गहराएगा, लोगों में बेचैनी बढ़ेगी। अब “सस्टेनेबल डेवलपमेंट” के नाम पर खनन से विनाश होने वाला है।
यदि हम अरावली की पीड़ा को समझ लें, तो इस संकट को दूर करने की शुरुआत हो सकती है। हमें आज से ही अरावली को जानना और समझना होगा। वह स्वयं ही हमारा दर्द मिटाने का काम करेगी। हमें स्वच्छ जलवायु, खाद्य सुरक्षा, जल सुरक्षा देगी। हमारे गांवों को बेरोजगारी, बीमारी और पलायन से मुक्त करेगी। यह हमें प्रदूषण, पर्यावरण शोषण और अतिक्रमण से मुक्त क्षेत्र की ओर ले जाएगी। लेकिन जैसे ही खनन खुलेगा, जंगल पर अतिक्रमण, जल स्रोतों में प्रदूषण और युवाओं का शोषण फिर शुरू हो जाएगा।
जंगल कटने से मिट्टी का कटाव बढ़ेगा, खेतों में सिल्ट जमा होगा, उपजाऊ जमीन कम होगी। पशुओं के लिए चारा और महिलाओं के लिए पेयजल का संकट गहराएगा। मेरा पुराना अनुभव यही है, जब खदानें चलती थीं, लोग मालिकों के मजदूर बन गए थे, गांव उजड़ने लगे थे। जब खदानें बंद हुई, तो लोग अपनी जमीन सुधारकर खेती करने लगे। अब फिर खदानें खुलीं, तो पहले जैसी बदहाली लौट आएगी।
अरावली के लोगों और अरावली का दर्द एक ही है। अरावली पर्वत की प्राकृतिक पीड़ा और उस क्षेत्र की मानवीय संस्कृति पर संकट एक साथ आ गया है। इसे रोकने के लिए हमें संकट को समझना होगा और खनन से अरावली को बचाना होगा। खनन-मुक्त अरावली न केवल भारत अपितु समूची दुनिया के लिए पर्यावरण सुरक्षा और सतत विकास का सबसे बड़ा वरदान सिद्ध होगी।