आकार पटेल का लेख: अगर धुएं वाला बम फेंकने वाले भगत सिंह शहीद तो संसद में वैसा ही करने वाले युवा आतंकवादी क्यों!

भगत सिंह महज 22 साल की उम्र में भारतीयों की आंख का तारा थे। उनके बगावती तेवर, दुश्मन को नुकसान न पहुंचाने की उनकी इच्छा, संसद में फेंके गए सिर्फ फुस्सी बम जिनसे सिर्फ धुआं निकलता था, वह ऐसा ही कृत्य था जिसके द्वारा सबका ध्यान खींचना चाहते थे।

संसद में चल रही कार्यवाही के दौरान दो युवाओं ने धुआं फेंका था
संसद में चल रही कार्यवाही के दौरान दो युवाओं ने धुआं फेंका था
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आकार पटेल

एक तर्कशील देश और एक उचित सरकार को आतंकवादी हरकत और शांतिपूर्ण विरोध, चाहे वह कितना भी जुनून भरा क्यों न हो का अंतर समझने में सक्षम होना चाहिए।

हम ऐसा नहीं कर सकते, यह दो बातों से सामने आता है। पहला तो भारत को कानून है, जो हमेशा से ही खराब रहे हैं लेकिन अब पागलपन की हद को पहुंच गए हैं। और, दूसरा है राष्ट्र और सरकार के बीच फर्क समझने की हमारी योग्यता। हाल की ऐसी घटनाएं जिनके विसतार में जाने की जरूरत नहीं है, इन दोनों ही बातों को आलोकित करती हैं। हमें इन्हें देखने की जरूरत है जो सिर्फ हाल ही में संसद में हुई घटना तक सीमित नहीं है।

पशु वध भारत में आर्थिक अपराध है, न कि कोई धार्मिक अपराध। ऐसा इसलिए क्योंकि संविधान का निर्देशित सिद्धांत इस मुद्दे पर हमें बताता है कि हमारी अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं। संविधान सभा में हुई बहसें इस बात का सबूत हैं कि उस समय के आदर्शन कांग्रेसियों ने देश को बताया कि उस समय भारत कुपोषण का शिकार था क्योंकि बच्चों के लिए पर्याप्त दूध की आपूर्ति नहीं थी। इसे बदलने के लिए जरूरी था कि गौहत्या पर पाबंदी लगाई जाए। पूरी दुनिया में इसका कोई सबूत नहीं मिलता क्योंकि ऐसा कहीं और था ही नहीं। जनसंघ ने अपने शुरुआती घोषणापत्र में ट्रैक्टर के इस्तेमाल का भी विरोध किया था क्योंकि इसका अर्थ था कि बैलों के लिए काम नहीं बचेगा।

गुजरते वर्षों के साथ यह बदल गया। भारत आज प्रचुर मात्रा में दूध उत्पादन करने वाला देश है और दुग्ध उत्पादों को निर्यात करता है। और, ट्रैक्टर कबके बैलों की जगह ले चुके हैं। लेकिन, पशु हत्या का कानून न सिर्फ अभी तक बना हुआ है, बल्कि इसे और कठोर कर दिया गया है। किसी अन्य आर्थिक अपराध में ऐसा नहीं है, लेकिन हमने स्वीकार कर लिया है कि हम इसे लेकर इतने जुनूनी हैं कि हम इस रास्ते से वापस नहीं लौट सकते।

कानून सबूत के बोझ को उलटने के साथ आता है। 2019 में एक गुजराती मुस्लिम पर आरोप लगाया गया कि उसने अपनी बेटी की शादी में गोमांस परोसा और इसके लिए गाय का वध किया। बाद में पुलिस ने अदालत से कहा कि वे यह साबित नहीं कर सके कि ऐसा हुआ था। गुजरात हाईकोर्ट ने न्यायिक पक्ष के आधार पर मुकदमा खारिज कर दिया। शायद कोर्ट इस बात से शर्मिंदा था कि आज भी हमारे पास ऐसे कानून हैं। लेकिन रोचक बात यह है कि आप इन दोनों ही बातों पर तर्क दे सकते हैं। उच्च न्यायालय सजा को खारिज करने में सह था। लेकिन सजा तो एक का नून के तहत ही हुई थी और उस जज ने भी कानून के तहत ही सजा सुनाई थी।


आज अगर आप कुछ भी कहेंगे तो सुरक्षा का खतरा बताकर आपको जेल भेजा जा सकता है, और शायद वर्षों तक जेल में रहना पड़े, क्योंकि युवाओं का एक समूह शायद यही साबित करना चाहता है। आखिर किसकी सुरक्षा और कैसा खतरा? यह कुछ ऐसे मामले हैं जिन्हें समझने के लिए व्यस्क होना जरूरी है, और हम अभी व्यस्क नहीं हैं।

1919 में महात्मा गांधी ने रौलेट एक्ट के खिलाफ अखिल भारतीय हड़ताल का नेतृत्व किया था। इस हड़ताल के समर्थन में अमृतसर के जलियांवाला बाग में भारी भीड़ जमा हुई थी। पंजाब के गवर्नर माइकल ओ’डायर ने दावा किया था कि इससे अंग्रेजी शासन पर खतरा बन गया था और उसने इसके खिलाफ हिंसा का सहारा लेते हुए गुरखा और बलोच रेजीमेंट को आम नागरिकों पर गोली चलाने का आदेश दिया था, जिसमें 300 से ज्यादा लोग मारे गए थे।

इम्पीरियल विधान परिषद के सभी भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद अंग्रेज सरकार ने रौलेट एक्ट पास किया था। अंग्रेजों का दावा था कि इस कानून से हर भारतीय प्रभावित होगा। लेकिन महात्मा गांधी ने इस कानून को राष्ट्र के खिलाफ बताया था।

तो रौलेट एक्ट (अधिक सही ढंग से बताएं तो, अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम, 1919) के बारे में ऐसा क्या था जिसका इतना विरोध हुआ? भारतीय इससे इतने क्रोधित क्यों थे कि वे सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे थे और परिषद में इसका विरोध कर रहे थे?

यह कानून दरअसल कानून के शासन के बुनियादी सिद्धांतों को खत्म करता था। इस कानून के तहत लोगों को बिना किसी आरोप या मुकदमे के हिरासत में लिया जा सकता था और बिना ज्यूरी के मुकदमे के बंद कमरों में मुकदमे चलाए जा सकते थे। इसे वैसे तो प्रशासनिक हिरासत कहा जाता था, यानी किसी को भी बिना किसी अपराध किए ही इस शक के आधार पर जेल में डाला जा सकता था कि वह आने वाले समय में कोई अपराध कर सकता है। अंग्रेजों द्वारा हमारे अधिकारों को कुचले जाने पर जो गुस्सा हमें आता था, वह गुस्सा हमारे ही लोगों द्वारा चलाई जा रही सरकार द्वारा ऐसे कानून हम पर थोपे जाने पर गायब हो जाता है।


जिस यूएपीए के तहत तमाम भारतीयों को जेल में डाल दिया गया है, आतंकवादी और आतंकवाद को परिभाषित नहीं करता है। यह कानून (पाठकों को इसके ताजा संस्करण को समझना होगा) इतना विस्तारित है कि इसमें तमाम भारतीयों को सिर्फ इस आधार पर आतंकवादी कह दिया गया क्योंकि इस कानून का दायरा बहुत ढीला-ढाला है, और इसका विरोध हम सभी को करना चाहिए।

भगत सिंह महज 22 साल की उम्र में भारतीयों की आंख का तारा थे। उनके बगावती तेवर, दुश्मन को नुकसान न पहुंचाने की उनकी इच्छा, संसद में फेंके गए सिर्फ फुस्सी बम जिनसे सिर्फ धुआं निकलता था, वह ऐसा ही कृत्य था जिसके द्वारा वे आम नागरिकों और मीडिया दोनों का ध्यान खींचना चाहते थे।

आखिर वह किस कानून का विरोध कर रहे थे? भगत सिंह ने बम पब्लिक सेफ्टी बिल के विरोध में फेंका था। इस कानून के तहत बिना मुकदमे के लोगों को जेल में डाल दिया जाता था। बिल्कुल यूएपीए की तरह। भगत सिंह इसका बिल्कुल सही विरोध कर रहे थे। जिस तरीके से विरोध कर रहे थे, वह तरीका भी सही था। हम उन्हें इसीलिए शहीद कहते हैं क्योंकि उन्होंने जो किया था वह हम सबके लिए किया था। लेकिन जिन युवाओं ने बिल्कुल वैसा ही किया, और उन्हीं कारणों से किया, हम उन्हें आतंकवादी कह रहे हैं।

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