खरी-खरी: अपनी जान और पहचान की हिफाजत के लिए मुस्लिम नेताओं की जज्बाती अपील का सामाजिक बहिष्कार करें मुसलमान

यदि कोई भी मुस्लिम संस्था अथवा नेता या फिर धार्मिक उलेमा यदि कोई और जज्बाती एवं सड़क की राजनीति करते हैं, तो समझ लीजिए कि वह जाने-अनजाने में संघ एवं भाजपा की मदद कर रहे हैं। मुस्लिम समाज को ऐसे हर नेता एवं संघर्ष का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए।

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ज़फ़र आग़ा

अल्लाह बचाए भारतीय मुस्लिम समाज को मुस्लिम नेताओं से। पहली बात तो यह कि मौलाना अबुल कलाम आजाद के बाद स्वतंत्र भारत में कोई मुस्लिम नेता पैदा ही नहीं हुआ। नेता सही मायने में वह होता है जो अपने हित में नहीं बल्कि समाज हित में काम करता है। दूसरी बात, उसके पास दूरदृष्टि होनी चाहिए जिससे वह यह समझ सके कि समाज हित में लिया गया फैसला भविष्य में समाज के हित में होगा कि नहीं। इस कसौटी पर यदि मुस्लिम नेताओं को परखा जाए, तो दोनों आधार पर ये नेता खोटे साबित होंगे। मुस्लिम समाज की बात करने वाले अधिकांश नेता समाज हित में कम और अपने हित में अधिक काम करते हैं। यदि आप उनके द्वारा दिए गए बयान और संघर्षों को परखें, तो उनसे यह पता चलता है कि वे सभी तो मालदार हो गए जबकि उनके फैसले की मुस्लिम समाज को भारी कीमत चुकानी पड़़ी। दूरदृष्टि तो किसी के पास दिखाई ही नहीं पड़ती है। इसका नतीजा यह है कि हर समस्या के समय इसकी कीमत मुस्लिम समाज को चुकानी पड़ती है।

इसके दो उदाहरण सामने हैं। बाबरी मस्जिद का सन 1986 में ताला खुलने के बाद रातोंरात कहीं से बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी उत्पन्न हो गई। एक्शन कमेटी ने मस्जिद की हिफाजत के लिए अत्यंत जज्बाती एवं धार्मिक आधार पर सड़क की राजनीति शुरू कर दी। विश्व हिन्दू परिषद के सड़क पर उतरने से पूर्व ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की ओर से नारा-ए-तकबीर अल्लाह- हो-अकबर की गूंज के साथ बड़़ी-बड़़ी मुस्लिम रैलियां शुरू हो गईं- जिनमें ऐलान किया जाने लगा कि मस्जिद की सुरक्षा के लिए जान दे देंगे। दूसरे शब्दों में उस स्थान पर राम मंदिर नहीं बनने देंगे। अब यह किसी ने नहीं सोचा कि इस प्रकार की जज्बाती एवं धार्मिक रैलियों का हिन्दू समाज पर क्या असर होगा। यह बात संघ और बीजेपी को भलीभांति समझ में आ गई कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की सड़क की राजनीति उसके लिए एक सुनहरा मौका है।

जब बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी धार्मिक आधार पर शोर मचा चुकी, तो अब पहले संघ परिवार की ओर से विश्व हिन्दू परिषद राम मंदिर के हित में मैदान में कूदी। भगवान राम हिन्दू आस्था में सर्वोच्च हैं। उनके जन्म स्थल पर मंदिर नहीं बने, यह हिन्दू समाज का अपमान है। बस क्या था, भारत ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारों से गूंज उठा। इधर, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी अपनी जिद पर अड़ी ही। धीरे-धीरे अयोध्या मामला हिन्दू नाक का सवाल बन गया। फिर भाजपा मैदान में आई। लालकृष्ण आडवाणी जी की रथ यात्राएं शुरू हुईं। देखते-देखते देश में हिन्दू प्रतिक्रिया उत्पन्न हो गई। फिर सन 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई। सन 1986 से 1992 तक होने वाले दंगों में हजारों मुसलमान मारे गए। राजनीतिक स्तर पर भाजपा एक हिन्दू हित की पार्टी स्थापित हो गई। जो संघर्ष बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने शुरू किया था, उसने देश को ‘हिन्दू राष्ट्र’ के मार्ग पर डाल दिया। आज देश मोदी के नेतृत्व में लगभग हिन्दू राष्ट्र हो चुका है जिसका खामियाजा सबसे अधिक मुस्लिम समाज भुगत रहा है। ऐसा ही कुछ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की जिद ने तीन तलाक मामले में किया। उससे भी भाजपा को ही फायदा पहुंचा।


इस इतिहास को दोहराने का कारण पाठक को यह समझाना है कि भाजपा की हिन्दुत्ववादी राजनीति को सफल बनाने के लिए एक हिन्दू विरोधी मुस्लिम पक्ष का होना अनिवार्य है। यह बात नरेन्द्र मोदी के सन 2014 में सत्ता में आने के बाद अधिकांश मुस्लिम समाज की समझ में आ गई। तभी तो उसने मॉब लिंचिंग से लेकर हर मुस्लिम विरोधी मामले पर सड़क की जज्बाती राजनीति बंद कर दी। अभी हाल में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा ईदगाह जैसे मुद्दे पर भी मुस्लिम समाज शांत रहा। लेकिन पिछले दस-पंद्रह दिन में अचानक जमीयतुल उलमा-ए-हिन्द (महमूद ग्रुप), मजलिसे मुशावरत एवं कुछ तथाकथित मुस्लिम बुद्धिजीवी काशी- मथुरा मामले पर मैदान में कूद पड़़े। एक बार फिर वही जज्बाती धार्मिक आधार पर मंदिर विरोधी राजनीति माहौल तैयार करने की कोशिश हो रही है। इसका नतीजा स्पष्ट है। देश में पहले ही मुस्लिम नफरत का सैलाब है। ऐसे माहौल में काशी-मथुरा मामले में भाजपा मिनटों में आग लगा देगी। सन 2024 का लोकसभा चुनाव आते-आते जनता महंगाई-बेरोजगारी भूलकर भाजपा को फिर भक्ति भाव से वोट डालकर देश को पूर्ण रूप से हिन्दू राष्ट्र बना देगी। इसका कुछ श्रेय नासमझ मुस्लिम नेतृत्व को जाएगा जो इन मुद्ददों पर सड़कों की राजनीति के लिए मुस्लिम समाज को उकसा रहा है।

अब सवाल यह है कि क्या मुस्लिम समाज काशी एवं मथुरा जैसी सदियों पुरानी मस्जिदों के मामले पर चुप बैठा रहे। देश की वर्तमान स्थिति में सद्बुद्धि इसी बात में है कि इन मामलों पर जलसे- जुलूस, सेमिनार एवं बयानबाजी से परहेज किया जाए। मुस्लिम समाज के पक्ष की ओर से केवल इतना बयान आना चाहिए कि मथुरा-काशी में न्यायालय का जो फैसला होगा, वह मान्य होगा। हर प्रकार के जज्बाती एवं धार्मिक शोर से बचा जाए। कोई भी ऐसा एक्शन न हो जिससे मुस्लिम समाज की छवि हिन्दू विरोधी की बन सके। नहीं तो बाबरी मस्जिद की तरह अन्य मस्जिदें भी जाएंगी और मुस्लिम समाज की जो दुर्गति होगी, कहना कठिन है। यह बहुत ही कठिन समय है। इस कठिन समय में मुस्लिम समाज को स्वयं अपने पैगंबर हजरत मोहम्मद (सअ.) से सबक लेना चाहिए। मैंने पहले ही लिखा है कि अपने मक्के के जीवनकाल में जिस तरह हजरत मोहम्मद ने केवल सब्र से काम लिया, वैसे ही भारतीय मुस्लिम समाज को सब्र से काम लेना होगा। उस समय हजरत मोहम्मद की रणनीति यह थी कि अभी इस कठिन समय में किसी प्रकार अपना एवं अपने सहयोंगियों का जीवन बचाया जाए। हद यह है कि वह केवल मक्का ही नहीं, खान-ए-काबा भी छोड़ कर जीवन संरक्षण की खातिर मदीना चले गए। इसी प्रकार मुस्लिम समाज की भी रणनीति इस समय केवल सब्र एवं अपने जीवन संरक्षण की होनी चाहिए। बाकी हर चीज का संरक्षण अपने अल्लाहके हाथों में सौंप दें।


इन परिस्थितियों में यदि कोई भी मुस्लिम संस्था अथवा नेता या फिर धार्मिक उलेमा यदि कोई और जज्बाती एवं सड़क की राजनीति करते हैं, तो समझ लीजिए कि वह जाने-अनजाने में संघ एवं भाजपा की मदद कर रहे हैं। मुस्लिम समाज को ऐसे हर नेता एवं संघर्ष का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए। काशी-मथुरा का मामला भी न्यायपालिका पर छोड़ दीजिए। यह तो अब इतिहास ही तय करेगा कि न्यायपालिका ने ऐसे मुद्दों पर कितना इंसाफ किया। मुस्लिम समाज सब्र एवं संयम से इस समय अपने पैगंबर के समान अपने जीवन संरक्षण की रणनीति पर चले और अपने किसी भी एक्शन से हिंदू समाज में मुस्लिम विरोधी प्रतिक्रिया न उत्पन्न होने दे।

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