फरहान अखतर और राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'तूफ़ान' के पंच कुछ और ज़ोरदार होते तो मज़ा बढ़ जाता

राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने अतीत में और भी अच्छी फ़िल्में बनाई हैं। अच्छा काम करने वाले पर हमेशा अच्छा काम करके दिखाने का अतिरिक्त दबाव रहता है। तूफ़ान के पंच कुछ और ज़ोरदार होते तो मज़ा बढ़ जाता।

फोटो: सोशल मीडिया
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तूफ़ान में सारे मसाले हैं। इसे स्पोर्ट्स फ़िल्म कह सकते हैं, हिंदू-मुस्लिम प्रेमकहानी भी है, लव जिहाद की राजनीतिक बात और उसकी निर्रथकता का संदेश है, बाॅक्सिंग के खेल को प्रतीक बनाकर एक आवारा इन्सान की ज़िंदगी को कैसे ऊपर उठने का, बेहतर बनने का मकसद मिलता है, जिंदगी में धूल चाटने के बाद फिर उठ खड़े होने, जूझने और जीतने का हौसला मिलता है , कैसे प्रेम लव जिहाद की कट्टरपंथी सोच पर भारी पड़ता है , ये सारे लोकप्रिय और चर्चित नुस्खे हैं । बहुत अच्छे कलाकार हैं। फ़िल्म ठीक है, लेकिन जिस एक्टर-डायरेक्टर जोड़ी ने 'भाग मिल्खा भाग' जैसी फ़िल्म दी हो, उससे उम्मीदें बढ़ जाती हैं।

फरहान अख़्तर और राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म तूफ़ान यहीं पर स्वाद में कुछ अधूरापन छोड़ जाती है। बाॅक्सर अज़ीज़ अली के केंद्रीय किरदार में फरहान अख़्तर का काम बढ़िया है। मृणाल ठाकुर ने उनकी प्रेमिका, पत्नी और प्रेरणा अनन्या की भूमिका में उन्हें कड़ी टक्कर दी है। फ़िल्म का उत्तरार्ध देखते हुए सलमान ख़ान की फ़िल्म सुल्तान की याद आना स्वाभाविक है। माधवन की फ़िल्म साला खड़ूस भी स्मृति में कौंधती है । मुक्काबाज़ बहुत कमाल की फ़िल्म बनी थी और विनीत ने ग़ज़ब काम किया था।


हुसैन दलाल ने फरहान के दोस्त मुन्ना के किरदार में बहुत अच्छा काम किया है। गली ब्वाय के सिद्धांत चतुर्वेदी और सुल्तान के अनंत शर्मा की याद दिलाते हैं। पटकथा लेखक को हुसैन के साथ न्याय करना चाहिए था। मोहन अगाशे़, विजय राज़, सुप्रिया पाठक जैसे बेहद समर्थ , प्रतिभाशाली कलाकार हाशिये पर ही रह गये हैं, यह अखरता है। छोटी सी लेकिन अहम भूमिका में दर्शन कुमार भी हैं जिन्हें द फ़ैमिली मैन के दर्शक आईएसआई के मेजर समीर के किरदार में देख चुके हैं।

कट्टर हिंदू कोच नाना प्रभु की भूमिका में परेश रावल प्रभावित करते हैं। कट्टरपंथी धार्मिक सोच वाला इनसान जिसकी निगाह में दुबई से डोंगरी तक सब मुसलमान एक जैसे हैं चाहे अज़ीज़ हो या अकरम । कोच के रूप में उसे अज़ीज़ को चेला बनाना और बाॅक्सिंग सिखाना क़बूल है लेकिन बेटी उससे प्यार करे तो साफ़ साफ़ कहता है- यह लव जिहाद है। अपनी कट्टरपंथी सोच के चलते बेटी के लिए भी दरवाज़े बंद कर देता है। अपराधबोध और अकेलेपन की मार्मिकता को परेश ने बहुत अच्छी तरह से अभिव्यक्त किया है।


तीन घंटे से थोड़ी ही कम है फ़िल्म इसलिए कई जगह अनावश्यक खिंचती हुई, झिलाऊ लगती है। ऐसा लगता है लेखक- निर्देशक को कोई भी फ़ार्मूला छोड़ना गवारा नहीं था। अंत में हीरो की जीत के सिए सर्व धर्म प्रार्थना भी करा दी है।

राकेश मेहरा ने अतीत में और भी अच्छी फ़िल्में बनाई हैं। अच्छा काम करने वाले पर हमेशा अच्छा काम करके दिखाने का अतिरिक्त दबाव रहता है। तूफ़ान के पंच कुछ और ज़ोरदार होते तो मज़ा बढ़ जाता।

(अमिताभ श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया है)

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