मृणाल पाण्डे का लेखः समाज को भेड़ों की तरह हांकने की खतरनाक मानसिकता की अनदेखी घातक

आज ज्ञान के क्षेत्र में एक अजीब कट्टरपंथी आक्रामकता घुस आई है, जो भारत को खास नीयत से इकरंगी सभ्यता का देश साबित करने पर तुली है। डंडा भंजाई कर रहे दस्तों के चलते आज भारतीय इतिहास के जटिल प्रसंगों की सुविचारित, सप्रमाण व्याख्या और खुली बहस कर पाना कठिन है।

रेखाचित्रः डीडी सेठी
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मृणाल पाण्डे

कुछ साल पहले जब प्रतिगामी कट्टरवादी सोच अपने पैर पसार रही थी, दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास,ऑनर्स पाठ्यक्रम से हटा दिए गए रामायण विषयक एक लेख पर बड़ा बवाल मचा। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और अनुवादक डॉ. रामानुजन का वह जाना-माना लेख- थ्री हंड्रेड रामायणाज, फाइव एग्जांपल्स एंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशंस (रामायण के तीन सौ विविध रूपों के उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार), भारत और पड़ोसी देशों के अलग-अलग समुदायों में प्रचलित रामकथा के सैकड़ों स्वरूपों पर सारगर्भित चर्चा के लिए मील का पत्थर माना जाता है। यह दिखाता है कि श्रुति और स्मृति पर आधारित मौखिक परंपरा पर चलते आए हमारे विविधतामय देश में मिथकीय इतिहास इकरंगा हो ही नहीं सकता। हर मिथक प्रसंग क्षेत्रीय भाषा और समुदाय में स्थानीय संस्कृति और मान्यताओं से जुड़कर कई रोचक शक्लें ग्रहण करता रहता है।

लेख की शुरुआत ही इस सवाल से होती हैः रामायण के कितने रूप हैं? उस कथा को लेकर, जिसे आम मान्यता के अनुसार शिव ने पार्वती को, कृष्ण ने युधिष्ठिर को, वाल्मीकि ने राम को, कंबन ने दक्षिण भारतीय लोगों को, जैन सूरियों ने जैन धर्मानुयायियों को, तुलसी ने मध्यकालीन अवधी भाषी जनता को, श्रोता को ध्यान में रखते हुए इलाके के समसामयिक संदर्भों से जोड़ते हुए सुनाया है, यह सवाल कतई वाजिब है। यह एक विशाल भूखंड में बहुरंगी ज्ञान और रचनात्मकता की लंबी परंपरा से हमको मुखातिब कराता है।

दक्षिण भारत और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में प्रचलित रामकथा के स्वरूपों के उदाहरण देते हुए रामानुजन दिखाते हैं कि किस तरह रामकथा देश के विभिन्न जाति, लिंग और धार्मिक मान्यताओं वाले समूहों के अनुभवों और मान्यताओं से निथरती हुई लगभग तीन सौ रोचक और परस्पर विरोधी रूपों में सुनी-सुनाई जाती रही है। इनमें से किसी भी स्वरूप को कोई भी समुदाय अपनी नापसंदगी का हवाला देकर जबरन कैसे खारिज करा सकता है?

शासक भले जो सोचते रहे हों, उस समय अकादमिक हलकों में संकीर्णता को अतिवादी सीमा तक राज्याश्रय नहीं मिल सका था। इसीलिए जब एक गुट ने दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक कॉन्सिल पर दबाव बनाकर भावनाएं आहत होने का लचर तर्क देकर लेख को पाठ्यक्रम से हटवा दिया, तो देश के शीर्ष चिंतक, जिनमें विश्वविद्यालय के शिक्षक, कुछ पूर्व उपकुलपति और जाने-माने इतिहासकार भी शामिल थे, ने इसकी बहाली की सफल मांग उठाई। उनके तीन तर्क थे- एक, विश्वविद्यालय की अपनी विशेषज्ञ समिति इस लेख को पाठ्यक्रम में बनाए रखने की सहमति दे चुकी थी, दो- देर रात गए यह फैसला लेते समय अकादमिक कॉन्सिल ने इतिहास विभाग की राय नहीं ली, जबकि खुद कॉन्सिल में कोई इतिहास विशेषज्ञ नहीं था। तीन- प्रकाशक के उस पत्र की अनदेखी की गई जिससे साफ झलकता था कि उन पर इस लेख को हटाने के लिए प्रतिगामी तत्वों का कैसा भीषण दबाव है।


आज दशा बदल गई है। वेदों के लिखे जाने से पहले की हड़प्पाई सभ्यता के दो कंकालों के अवशेष मिलते ही घोषणा हो गई कि यही जातो वेदों की रचयिता थी और उनके परीक्षण में चूंकि योरोपीय समुदाय के डीएनए नहीं पाए गए, अत: साफ है कि आर्य मूलत: भारतीय ही थे, आदि। सच यह है कि सरस्वती के किनारे की इस नागर सभ्यता की रचनाओं या उनके पूजित देवताओं में साम्य का कोई प्रमाण अब तक नहीं मिला। न ही इनका कोई जिक्र वेदों में है। सभी वेदों की ॠचायें मूलत: पशुपालकों की आस्था और भावनाओं से प्रेरित हैं। यह पशुपालक घुमंतू पशुपालकों की सभ्यता से जुड़े थे और हड़प्पा की सभ्यता के खात्मे के कई सदी बाद भारत आकर सरस्वती तट पर बसे।

पर आज ज्ञान के क्षेत्र में एक अजीब कट्टरपंथी आक्रामकता घुस आई है, जो भारत को खास नीयत से इकरंगी सभ्यता का देश साबित करने पर तुली है। और उसके ही दबाव से रोमिला थापर सरीखी विदुषी इतिहासकार से कहा गया कि वह अपना बायोडेटा भेजकर साबित करें कि वह क्या इमेरिटस प्रोफेसर की मानद उपाधि के लायक हैं या नहीं। इस तरह के अधपढ़े और राजनीतिक हलकों से बेजा हस्तक्षेप सहित डंडा भंजाई कर रहे दस्तों के चलते आज भारतीय इतिहास के जटिल प्रसंगों की सुविचारित और सप्रमाण व्याख्या और खुली बहस का आगाज कर पाना बड़ा ही कठिन हो चला है।

हो सकता है कि व्यापक ऐतिहासिक मिथकों में कुछ में पात्रों के चरित्र या घटनाओं के चंद ब्योरे आम धारणा से फर्क हों। संभव यह भी है कि वेदों के बाद बने साहित्य में कालक्रम में मूल कथाओं के पात्र किसी और ही स्थानीय शासक के बारे में प्रचलित दंतकथाओं से जुड़ गए हों। उदाहरण के लिए रामविलास शर्मा लिखते हैं कि “महाकवि निराला जब राम की शक्ति पूजा में रावण की सेना पर लिखते हैं, तो आंखों के सामने आता है मुगल दल।”

बहस इससे नहीं है। पर लंबे शोध और वैज्ञानिक प्रमाणों सहित पढ़ाए-गुने जा रहे इतिहास का बिना इतिहासवेत्ताओं के बीच खुली बहस के इस तरह फटाफट और लगातार हटाया जाना अकादमिक क्षेत्र में विज्ञानविमुख कट्टरपंथिता का अलोकतांत्रिक हस्तक्षेप बढ़ा रही है। यह रोकी न गई तो देश को सारे उच्च ज्ञान के घालमेल को मजबूर करेगी। सारे राज-समाज को केवल एक ही दर्शन, एक ही विधान, एक ही निशान तले भेड़ों की तरह हांकने का यह विकट उत्साह हमको किसी किताब या कलाकृति विशेष पर प्रतिबंध की मांग से लेकर कश्मीर की घेरेबंदी और दलितों पर हो रहे हिंसक हमलों और तथाकथित औनर किलिंग की घटनाओं तक में लगातार दिखाई दे रहा है। डर या दुनियादारी के दबावों से मुंडी छुपा कर संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्ष, लिंग-जातिगत भेदभाव से परे घोषित हमारे लोकतंत्र में इस मानसिकता के खतरों की अनदेखी करना घातक ही होगा।


यह भी गौरतलब है कि हमारे यहां अमूर्त, निराकार बातों के उबाऊ विस्तार पर कभी कोई आपत्ति नहीं उठाई जाती। आपत्ति तो बस तब होती है जब अज्ञान को चुनौती देने वाले सिद्धांत मूर्त और व्यावहारिक उदाहरणों सहित पेश किए जाएं। रामकथा लोक मंगलकारी है यह एक निरापद, निर्विवाद सूत्र वाक्य है जिससे राममंदिर को आम भारतीय के समर्थन को देशभक्ति या उसको चुनौती देने वालों का देशद्रोही होना एक साथ साबित किए जाते हैं। बालिया शंबूक की बात दूसरी है। उसी तरह गर्भवती पत्नी की अग्निपरीक्षा और परित्याग राजधर्म की विवशता है, कह कर अनेक दुनियादार व्याख्याकार अप्रिय सवालों से छूटते रहे हैं। कड़वे सवालों को लेकर आंख बचा जाना और मातृसत्तात्मक समाज रहे केरल के सबरीमला मंदिर में स्त्रियों के जाने पर सदा से रोक लगी है, कहना और उसे चुनौती देने वालों का उग्र विरोध करना बौद्धिक संतुलन का प्रमाण नहीं माना जा सकता।

पर भारतीय मिथक कोष में अप्सराओं और वनवासी तपस्वियों के बीच विवाहेतर रिश्तों की अनगिनत कहानियों के बाद भी विवाहेतर एक साथ रहने और रिश्ते बनाने वाली युवतियों को रखैल तक कहा जा रहा है। यह कैसी मानसिकता, कैसा न्याबोध है? कहा गया है कि लिव इन रिश्तों को अमान्य किया जाए, क्योंकि इससे समाज उच्छृंखल और कामुक, तथा व्यभिचारी बनेगा। पर यह क्या अचरज की बात नहीं, कि जब हमारे सभी उम्र के युवा इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग से तमाम तरह का गुह्यतम (सचित्र) ज्ञान बटन दबाकर हासिल करने में सक्षम हों तब यह खास तरह का दिमाग हर रिश्ते को आज भी सनातन विवाह की कसौटी पर कसना चाहता है?

मालूम हो कि मान्य सर्वोच्च न्यायालय तथाकथित अवैध रिश्ते से पैदा हुई संतान को अवैध नहीं मानता। बल्कि उसे भी पैतृक संपत्ति के हक का अधिकारी मानता है। रखैल शब्द से पैसा देकर बनाए रिश्ते की ध्वनि आती है जो आज खुद कमाने-खाने वाली आत्मनिर्भर युवतियों पर कतई लागू नहीं होती। फिर अगर देश समलैंगिक जोड़ों को यह हक दे चुका है, तो उभयलिंगी जोड़ों को भी यह हक देने में ऐसी ना नुकुर किस आधार पर?

दरअसल इस सब वितंडावाद के पीछे एक अलिखित स्वीकार यह है कि तमाम सामाजिक वर्जनाएं शिशुवत बहू-बेटियों या शिष्यों के लिए ही हैं या होनी चाहिएं। इतने युवाओं को लाठी से हांकने पर तो कुछ दूर जाकर वाल्मीकि और व्यास भी भगाए जाने लगेंगे, कालिदास और जयदेव का तो कहना ही क्या? इस तरह का हठयोग हमारे कुछेक उम्दा विश्वविद्यालयीन परिसरों को भी ज्ञान की अद्भुत बहुलता और उसकी प्रखर चुनौतियों से वंचित कर दे तो हम उच्चतम शिक्षा से संपन्न युवाओं के नाम पर बस एक अपरिपक्व, बेदिमाग और अर्द्धसभ्य भीड़ को ही तैयार करेंगे।

बहस के नाम पर यदि यह मान भी लिया जाए कि पाठ्य पुस्तकों में संकलित लेख यथासंभव उदात्त और मानसिक परिष्कार करने वाले हों, तो भी यह तथ्य अटल रहता है कि मौखिक लोककथाओं और पौराणिक ब्योरों से अविच्छिन्न रूप से जुड़े भारत के प्राचीन इतिहास का हर बड़ा अध्येता कभी न कभी विवादित ब्योरों की दलदल में पैर जरूर रखेगा। अच्छा हो हम छात्रों को पुरातन इतिहास की उच्च शिक्षा तथा शोध के लिए तैयार करते समय अद्यतन उपलब्ध कथाओं के क्षेत्रीय स्वरूपों से भी उनका परिचय कराते चलें, ताकि वे यथार्थ को विभिन्न संस्कृतियों के संदर्भ में देखना और लोकतांत्रिक खुलेपन से परखना सीखें। सुरुचि के नाम पर वर्जनाओं की लंबी सूची बना लेने से तो हम अपने बहुलतामय देश के हजारों साल पुराने विविधतामय इतिहास को नितांत घटिया और अवैज्ञानिक ही बनाएंगे।

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