महत्वपूर्ण आश्रम, दिलचस्प आश्रमवासी जैसे शिवजी की बारात थी गांधी के साथ

गांधी कहते थे, ‘यह शंभु की बारात है या पागलखाना लेकिन मैं इसका सरदार हूं।’ मीराबहन ने भी इस पद का प्रयोग कुछ खीझ के साथ किया है। तब वह वर्धा में रह रही थीं और गांधी ने वहीं डेरा डाल दिया था। उनकीन मंडली तब उसी परिसर में आ गई जहां मीरा रहती थीं।

फोटो: सोशल मीडिया
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अरविंद मोहन

यह एक दिलचस्प पक्ष है जिसकी शुरुआत भी दिलचस्प ढंग से हुई। गांधी की मुंहबोली बेटी मीराबहन की आत्मकथा ‘द स्पिरिट्स प्रिलग्रिमेज’ पढ़ते हुए एक जगह ‘शंभुमेला’ शब्द पर मन अटक गया। मीराबहन ने यह पद साबरमती के आश्रमवासियों के लिए लिखा है। लगा, कुछ गलती तो नहीं है क्योंकि इस पद से शिवजी की बारात की ध्वनि आ रही थी। ज्यादा सफाई के लिए इसी किताब का हिन्दी अनुवाद ‘एक साधिका की जीवन यात्रा’ पढ़ा। अद्भुत और विपुल गांधी साहित्य के अनुवादक रामनारायण चौधरी आश्रमवासी ही थे और अनुवाद की क्वालिटी के क्या कहने। खैर। उनके अनुवाद में बात और साफ लगी और आगे चलने पर गांधी का अपना ही एक उद्धरण ऐसा मिला, ‘आशा तो यही रखी गई थी कि आश्रम बनेगा लेकिन बन गया शंभुमेला। मेरा भाग्य ही ऐसा रहा है। अपने आश्रम की खोज मुझे अपने अंदर ही करनी पड़ेगी।’ बल्कि गांधी यह भी कहते थे, ‘यह शंभु की बारात है या पागलखाना लेकिन मैं इसका सरदार हूं।’

मीराबहन ने भी इस पद का प्रयोग कुछ खीझ के साथ किया है क्योंकि जब यह इस्तेमाल हुआ, तब वह वर्धा में रह रही थीं और गांधी ने अपना साबरमती आश्रम छोड़कर वहीँ डेरा डाल दिया था। मीरा तो बजाज जी के सहारे वर्धा के आसपास के गांवों में कई तरह के प्रयोग व्यक्तिगत स्तर पर ही चला रही थीं लेकिन गांधी ने साल भर में देश को आजाद न करा सकने पर आश्रम न लौटने की सार्वजनिक घोषणा के तहत साबरमती छोड़ा था। और उनकी मंडली तब उसी परिसर में आ गई जहां मीरा रहती थीं और जो बाद में मगनवाड़ी नाम से विकसित हुआ। इतने सारे नए और ‘अजीब’ लोगों के आने से वहां चिल्ल-पों मची रहती थी। मीराबहन के पास के कमरे में एक ऐसे सज्जन थे जिनको नींद में चलने की आदत थी और जब उनके साथी उनको पकड़कर ले जाते थे तो खूब हल्ला होता था। गांधी का रक्तचाप भी उसी दौर में बढ़ा पाया गया और फिर उनको डॉक्टरी सलाह पर दक्षिण के नंदी पहाड़ियों के बीच आराम करना पड़ा। लेकिन गांधी को अपने इस ‘शंभुमेला’ से कुछ शिकायत रही या आश्रम में कोई अवांछित आ गया हो, ऐसा लगता नहीं।

पर तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की कार्यशैली, तरह-तरह की प्रतिभा और तरह-तरह की जीवन शैली के चलते जरूर उन्होंने अपनी इस फौज को यह दुलार का नाम दिया हुआ था। बल्कि इस फौज में जो ज्यादा ‘असामान्य’ लोग थे, उनको गांधी ढूंढ़कर लाए थे या वे गांधी के काम और विचार से आकर्षित होकर आए थे और गांधी उन्हें सबसे ज्यादा मान-सम्मान देते थे। किसी के लिए वह कहते थे कि ‘उनके रहने से आश्रम पवित्र होता है’, तो किसी को वह ‘आश्रम की शान’ बताते थे। यूं तो गांधी के आश्रमों में रहे काफी सारे लोगों ने वहां के जीवन को अलग-अलग ढंग से याद किया है लेकिन काका साहब कालेलकर के दबाव में वहां के लंबे समय के वासी, मैनेजर और जीवन भर गांधी का काम (खासकर गोसेवा का) करने वाले बलवंत सिंह जी ने ‘बापू का आश्रम परिवार’ नाम से एक बड़ी और महत्वपूर्ण किताब लिखी है जिसमें आश्रम के करीब डेढ़ सौ वासियों के प्रत्यक्ष अनुभव और उनके बारे में ज्ञात चीजों का उल्लेख बहुत सुंदर और संतुलित ढंग से किया गया है। और इससे इस शंभुमेला का असली रूप दिखाई देता है।


आश्रम में कई क्रांतिकारी भागकर या जेल से छूटने पर पहुंचे। बाबा पृथ्वी सिंह तो रेल से हथकड़ी में ही भागकर यहां पहुंचे। फिर जब आए तो गांधी ने उन्हें समर्पण कराया और लगातार लिखा-पढ़ी करके अंत में वायसराय के दखल से छुड़ाया। फिर वह उनकी शादी मीरा बहन से कराना चाहते थे जिन्होंने यह प्रस्ताव न माना। एक क्रांतिकारी छोटेलाल की चर्चा भी जरूरी है जो वर्षों गांधी के हरफनमौला सहायक थे। जिस काम में जरूरत हो, वह वहां खप जाते थे। वह गांधी के सबसे विश्वस्त सहयोगियों में हो गए थे और अपनी बीमारी में आश्रमवासियों से सेवा कराने की ग्लानि के चलते जिन्होंने एक रात कुंए में छलांग लगा दी थी।

ऐसे ही वेदों के विद्वान परचुरे शास्त्री को कोढ़ होने के बाद जब उनके परिवार समेत सबने त्याग दिया तो वह गांधी के आश्रम में पहुंचे। उन्होंने गांधी के सामने अपनी दो इच्छाएं जाहिर कीं कि मैं आश्रम में रहना और यहीं मरना चाहता हूं। गांधी ने उनसे कहा कि आप आश्रम में जरूर रहिए लेकिन हम आपको मरने नहीं देंगे। शास्त्री जी के लिए एक अलग झोपड़ी बनी जहां गांधी रोज दोनों शाम उनके पास बैठकर शास्त्रों की चर्चा करते थे और अपने हाथों से उनके घावों को साफ करते हुए उनके शरीर की मालिश करते थे। उनका शरीर इतना गल गया था कि हर आदमी उसे छूना नहीं चाहता था लेकिन गांधी जी ने यह काम लंबे समय तक किया।

और यह काम उनको कितना प्रिय था या जरूरी लगता था, इसका एक किस्सा नारायण भाई ने लिखा है। उन दिनों गर्मियों में राजधानी शिमला शिफ्ट हो जाती थी। वायसराय के बुलावे पर गांधी जब शिमला गए तो नारायण देसाई को भी लिए गए। युवा नारायण खुश थे कि सेवाग्राम की गर्मी से कुछ समय राहत मिलेगी। पर जब बातचीत जल्दी पूरी हो गई तो शास्त्री जी के चलते गांधी तीन दिन पहले ही वापस आ गए और नारायण भाई को उनके साथ वापस आना पड़ा। जब एक बार ऊब कर शास्त्री जी ने उपवास से देह त्याग की इजाजत मांगी तो गांधी ने कहा कि आपको इजाजत है लेकिन यह बात साथ ही याद रखिए कि जब उपवास छोड़ने का मन हो तो बिना झिझक उपवास छोड़िए और जैसे हैं, वैसे रहिए। आपके रहने से हमारा आश्रम पवित्र होता है। ऐसा हुआ भी कि शास्त्री जी को बीच उपवास में जीने की इच्छा हुई और उन्होंने उपवास छोड़ा। बाद में वह मनोहर जी दीवान द्वारा चलाए जाने वाले कुष्ठ आश्रम में चले गए जहां उनकी मौत हुई।

पर आश्रम के सबसे विलक्षण वासी थे जयकृष्ण दास भंसाली जो दर्शन के जबरदस्त विद्वान और उससे भी ज्यादा हठी थे। वह कभी अध्यापक रहे थे और ज्यादातर आश्रमवासी उन्हें भंसाली भाई नाम से जानते थे। उनका मानना था कि आध्यात्मिक साधना के लिए शरीर का दमन जरूरी है। इन्द्रियों का जितना ज्यादा दमन होगा, ईश्वर से मिलन और दर्शन उतना आसान हो जाएगा। पांच साल ईश्वर की खोज में रहे और इस दौरान श्मशान में ही सोते थे। और इसी सोच से उन्होंने बोलना बंद कर दिया था। वे तख्ती से संवाद करते थे। 1920 में ही गांधी के आश्रम आ गए थे। और जब मौन तोड़ा तो संयम को पुख्ता करने के लिए उन्होंने लोहार से अपने मुंह पर लोहा ठुकवा लिया था। सिर्फ एक नली के सहारे वह आटा घोलकर पीते थे जिसमें नीम की पत्तियां भी मिली होती थीं। वह गांधी के अलावा किसी से बात भी न हीं करते थे। जब गांधी का असर बढा और मुंह खुला तो बारह बरस बंद रहने के चलते अधिकांश दांत खराब हो चुके थे। गांधी उन्हें पकी रोटियों के लिए तो राजी न कर सके लेकिन अब वह धूप में सूखी रोटियां खाने लगे थे।


गांधी के कहने पर ही उन्होंने चरखा चलाना सीखा तो दिन भर चुपचाप चरखा ही चलाते थे। सेवाग्राम में रहने के दौरान वह बच्चों को पढ़ाने भी लगे। तब गांधी के कहने पर वह दूध, फल और सब्जी खाने लगे। पर वह धूप में ही बच्चों को पढ़ाते थे क्योंकि उनका मानना था कि ज्ञान के लिए इतनी तपश्चर्या जरूरी है। धीरे-धीरे उनकी राजनीतिक रुचि भी जगने लगी और वह अध्यात्म से लेकर हर तरह के सवालों का जबाब देने लगे। तब भी ज्यादातर संवाद लिखकर ही करते थे। लोग उनको देखने और सवाल पूछने आते थे। गांधी उन्हें भी आश्रम की शान बताते थे। बयालीस में आश्रम में हुई इतनी हलचल और गिरफ्तारियों का उन पर कोई असर नहीं हुआ बल्कि गांधी के न रहने पर वह सेवाग्राम से उठकर वर्धा चले गए और मंदिर के चबूतरे पर बैठकर चरखा कातते रहते थे। तभी यहां एक घटना घटी। मंदिर में किसी बात पर हल्का हंगामा हुआ और दारोगा ने सबको धुनवा दिया। इसमें एक बच्चे को ज्यादा चोट लगी। इससे बिगड़े भंसाली भाई ने उसे बहुत बुरा-भला कहा और यह भी कहा कि क्या तुम्हारे बच्चे नहीं हैं! संयोग से उसी शाम दारोगा का बच्चा अचानक मर गया। शहर भर में इसकी चर्चा रही।

इसी तरह जब चिमुर में महिलाओं पर जुल्म हुआ तो वह बहुत उद्वेलित थे। कुछ कांग्रेसियों ने उनको और उकसा दिया और कहा कि दिल्ली में वायसराय की एक्जक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों (जो तब केन्द्रीय मंत्री वाली हैसियत रखते थे) के घर के सामने धरना दिया जाए। उन्होंने दिल्ली पहुंचकर श्री अणे के बंगले के सामने अनशन शुरू किया। बलवंत सिंह साथ गए। अणे जी ने कह दिया कि ऐसी घटनाएं हो ही जाती हैं। इस जबाब से भंसाली जी और भड़क गए। सात-आठ दिन बाद पुलिस उन्हें उठा ले गई और वर्धा ले जाकर छोड़ दिया। अब वह वहां से पदैल ही चिमुर चले गए और मध्य प्रांत के मुख्यमंत्री खरे के खिलाफ उपवास शुरू किया। उनका उपवास चर्चित हुआ और 63 दिन चला। गांधी उनसे मिलने को बेचैन थे लेकिन सरकार ने उनको जेल से नहीं छोड़ा। पर अंत में चिमुर कांड खरे की विदाई का एक बड़ा कारण बना। भंसाली जी इसके बाद नागपुर के पास टाकली गांव चले गए और अपना अड्डा बनाया। एक लड़की को वह बेटी की तरह मानते थे और उसके इर्द-गिर्द ही उन्होंने खादी और हरिजन सेवा के अनेक कार्यक्रम चलाए। उनकी इतनी चर्चा हो गई थी कि साधनों का अभाव नहीं रहा और गांधी जो कहते थे, वही भंसाली भाई साबित करके गए।

विद्वता में धर्मानंद कौसाम्बी शास्त्री जी और भंसाली भाई से कम न थे लेकिन अपने जीवन के आखिरी दौर में ही वह भी चर्म रोग से परेशान होकर आए। अपने दौर में बौद्ध ज्ञान और पाली के दुनिया के सबसे बड़े जानकार माने गए कौसाम्बी ने काफी कुछ लिखा और देश-विदेश में अध्यापन किया था। वह गुजरात विद्यापीठ में भी रहे थे। बाद के नामी मार्क्सवादी इतिहासकार डी. डी. कौसाम्बी उनके पत्रु थे। लेकिन पत्नी की मौत के बाद वह बेटा और बेटी से अलग रहते थे और अपनी ही दुनिया में रहते थे। जब वह बरहज स्थित बाबा राघव दास के आश्रम पर थे, तब उनके पूरे शरीर में पित्ती जैसा उभरा। गांधी ने उन्हें अपने आश्रम में बुला लिया और खुद का इलाज शुरू किया। इससे कभी राहत, तो कभी बीमारी वापसी का क्रम चलता रहा। कौसाम्बी भी गांधी के अलावा बहुत कम लोगों से बात करते थे। बयालीस में जब सब लोग जेल गए तो उन्हें इस बात का बहुत पछतावा था कि जब देश को जरूरत है तो शरीर साथ नहीं दे रहा है।

बाद में बीमारी से तंग आकर उन्होंने गांधी से इस बात की इजाजत मांगी कि उपवास करके प्राण दे दूं। इजाजत मिलने पर उन्होंने धीरे-धीरे खाना- पीना कम किया। उनको बौद्ध तंत्र और योग का भी बहुत अच्छा ज्ञान था और उन्होंने ‘आनापान’ साधना की थी जिससे मनुष्य अपनी अंतिम श्वांस को पहचान जाता है। जब उनको अपना अंत पास आता दिखा तो उन्होंने आश्रम के भरोसेमंद साथी बलवंत सिंह को कहा, मेरा अंतिम संस्कार पुराने कपड़ों में ही हो, बाकी कपड़े धुलाकर किसी और के काम आएं। उन्होंने अपनी सारी चीजें आश्रम को दान दे दीं, सिर्फ एक घड़ी अपने बेटे के लिए रखी। बेटी बारबार बंबई से आना चाहती थी लेकिन उसे आने नहीं दिया। गोवा में एकांत में की गई अपनी साधना के संस्मरण उन्होंने लिखवाए थे। उसे उन्होंने काका साहब और वारेरकर जी को पहुंचाने को कहा और बलवंत जी से कहा कि आज रात बारह बजे के बाद मैं मरूंगा इसलिए मेरे पास रहना। रात ढाई बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। वह मुश्किल से दस मिनट बेहोश हुए होंगे। विनोबा ने वैदिक मंत्रों के साथ उनका अंतिम संस्कार कराया। गांधी का मानना था कि उनकी मौजदूगी से आश्रम पवित्र हुआ।


एक बड़ी विभूति तो स्वयं विनोबा भी थे जिनकी चर्चा पहले हुई है और वह भी शुरू से आश्रम में थे लेकिन गांधी के अलावा बहुत कम लोग उनकी प्रतिभा के बारे में जानते थे। लेकिन यह बात और महत्व की है कि उनके दोनों छोट भाई बालकोवा (बालकृष्ण भावे) और शिवाजी भावे भी आश्रम में रहे और तीनों भाई आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत निभाते रहे। बाल्कोवा बहुत बढ़िया गाते थे और कुछ समय उन्होंने मूर्तिशिल्प भी सीखा था। इसी तरह विनोबा के बचपन के चार दोस्त भी आश्रम में रहे और उनकी चौकड़ी नामी थी। सबसे अलग-अलग जिम्मेवारियों का निर्वाह किया और गांधी ने जो काम दिया, खुशी-खुशी और पूरे मनोयोग से पूरा किया। रघुनाथ श्रीधर धोत्रे जमनालाल बजाज जी के साथ रहे और बाद में गांधी सेवा संघ के मंत्री (सचिव) थे। फिर गांधी स्मारक निधि के मंत्री रहे। गोपाल राव काले बाद में सक्रिय राजनीति में भी आए। चौथे सदस्य थे बाबाजी मोघे।

इन आश्रमों को संभालने का कौशल मगनलाल गांधी में सबसे ज्यादा था जो दक्षिण अफ्रीका के आश्रमों को भी चला चुके थे। वह गांधी के भतीजा थे। पर अचानक हुई उनकी मौत से गांधी एकदम व्याकुल हो गए थे। तब एक अन्य भतीजे नारणदास गांधी ने चीजें सभालीं। बलवंत सिंह, सुरेन्द्र जी, छोटेलाल जी, लक्ष्मीदास आसर, रमणिकलाल मोदी, गंगाबहन, छगनलाल और काशीबा, रावजी भाई पटेल जैसे लोगों ने आश्रम का, आश्रमवासियों का, गांधी के कार्यक्रमों- जैसे, खेती, बागवानी, गोसेवा, मधुमक्खी पालन, खादी, ग्रामोद्योग, स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रयोगों का, खर्च और चंदे के पाई-पाई का हिसाब रखने जैसे कामों के जरिये गांधी को मदद की और इसी में अपना जीवन समर्पित कर दिया। खादी और चरखे वाली गंगा बहन तो रही हीं और खादी का प्रशिक्षण देती रहीं लेकिन एक और गंगा बहन (विधवा) भी आश्रम में रहीं और बीमार लोगों की सेवा करते-करते बड़ी उम्र में सुशीला नायर की प्रेरणा से डॉक्टरी पढ़ गईं और खूब काम किया।

बलवंत सिंह जी जैसे लोग तो गांधी के बाद भी आश्रम की गतिविधियों के पूर्ववत चलने के लिए जिम्मेवार थे। और बाकी लोग भी गांधी के न रहने पर जहां गए, वहां उन्हीं का काम सौ फीसदी निष्ठा के साथ करते रहे। और इन आश्रमों तथा कार्यक्रमों से कितने स्त्री-पुरुष माटी की मूरत से इस्पाती आदमी बनकर निकले, यह बहुत बड़े हिसाब की मांग करेगा।

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