आकार पटेल का लेख: 'न्यू इंडिया' में कश्मीर के 'भारतीयकरण' के नाम पर कर दिया गया भारत का 'कश्मीरीकरण'

‘न्यू इंडिया’ अपनी किसी भी परिभाषा में यह नहीं बताता कि यह ‘न्यू’ क्यों है, लेकिन फिर भी इसके अपने कुछ निर्देश हैं जिन्हें सरकार ने खुद के लिए तैयार किया है और इसका इस्तेमाल करती है। कश्मीरी सबसे पहले इन सबके साक्षी बने हैं।

यह तस्वीर 26 जनवरी 2021 की है। यानी गणतंत्र दिवस की, लेकिन उस दिन श्रीनगर के लाल चौक पर कर्फ्यू जैसा नजारा था। (फोटो : Getty Images)
यह तस्वीर 26 जनवरी 2021 की है। यानी गणतंत्र दिवस की, लेकिन उस दिन श्रीनगर के लाल चौक पर कर्फ्यू जैसा नजारा था। (फोटो : Getty Images)
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आकार पटेल

चार साल पहले जब कश्मीर से उसका राज्य का दर्जा छीना गया, और कई कदम उठाए गए (क्या समय था वह, सीएए और किसान आंदोलन से पहले का वक्त था वह) तो स्तंभकार प्रताप भानु मेहता ने लिखा था, “बीजेपी को लगता है कि वह कश्मीर का भारतीयकरण कर देगी। लेकिन, इसके बजाए जो होगा, वह यह कि भारत का ही कश्मीरीकरण हो जाएगा। खून और विश्वासघात से लिखी गई भारतीय लोकतंत्र की कहानी...”

कश्मीर का भारतीयकरण नियमित रूप से होता रहा है, यानी स्थानीय लोगों को वहां से विस्थापित करके। मैंने 2 साल पहले एक किताब में लिखा था कि कश्मीर के स्थानीय प्रमुख मनोज सिन्हा की अगुवाई में कश्मीर की उच्च नौकरशाही को आखिर कौन लोग चला रहे हैं:

  •  गृह और राजस्व – शालीन काबरा

  • वित्त – अरुण कुमार मेहता

  • सामान्य प्रशासन और उद्योग एंव वाणिज्य – मनोज कुमार द्विवेदी

  • कानून, न्याय और संसदीय कार्य – अचल सेठी

  • कृषि और सहकारिता – नवीन कुमार चौधरी

  • निर्माण विभाग – शैलेंद्र कुमार

  • संपत्ति विभाग – एम राजू

  • परिवहन – ह्रदयेश कुमार

  • विज्ञान और तकनीक और सामाजिक कल्याण – बिपुल पाठक

  • सूचना और जन संपर्क – रोहित कंसल

  • श्रम एंव रोजगार – सौरभ भगत

  • आवास और शहरी विकास – धीरज गुप्ता

  • खाद्य और नागरिक आपूर्ति, उपभोक्ता मामले, सूचना तकनीक – सिमरनदीप सिंह

  • आतिथ्य और प्रोटोकॉल – इंदु कंवल छिब

  • शिक्षा – विश्वजीत कुमार सिंह

  • वन और पर्यावरण एंव पारिस्थितिकी – सरिता चौहान

    कश्मीरियों के हिस्से में जो विभाग आए थे वे निम्न हैं:

  • आदिवासी मामले – रेहाना बतुल

  • पुष्प कृषि, उद्यान और पार्क – शेख फैयाज अहमद

  • स्वास्थ्य एंव चिकित्सा शिक्षा – अटल डुल्लू

  • स्टेशनरी एंड सप्लाईज़ – अब्दुल माजिद भट

  • ग्रामीण विकास – काजी सरवर

  • सिविल एविएशन – रुखसाना गनी

  • संस्कृति – सरमद हफीज

  • मछली पालन – बशीर अहमद भट

  • उद्यान – एजाज अहमद भट

इस लेख के लिए मैंने उन्हीं वेबसाइट को एक भार चेक किया और पता चला कि स्थितियां वही हैं जो चार साल पहलने 2019 में थीं। अरुण कुमार मेहता, अचल सेठी, संतोष वैद्य, राजीव राय भटनागर, पीयूश सिंगला आदि के नाम वही थे। इससे आपको सही तस्वीर समझ आ गई होगी।

जाहिर है कि कश्मीर में इन बाहरियों के नियंत्रण पर न तो किसी ने टिप्पणी की और न ही इस बारे में खबरें आईं। मीडिया में भी चंद लोगों ने ही इस बात को नोटिस भी किया। जब 2021 में सिविल सोसायटी के एक कश्मीरी सदस्य ने कहा था कि उन्हें गैर-स्थानीय अफसरों से कोई उम्मीद नहीं है, तो उन्हें गांदरबल की डिप्टी कमिश्नर कृतिका ज्योत्सना के आदेश पर जेल भेज दिया गया था। इस पर लोगों में गुस्सा भी दिखा था। 

मैंने जब जम्मू-कश्मीर के चुनाव विभाग की वेबसाइट www.ceojammukashmir.nic.in  को जुलाई 2021 में चेक किया था तो वह चल ही नहीं रही थी और इस वेबसाइट को खोलने पर चेतावनी आ रही थी कि यह असली वेबसाइट  www.ceojammukashmir.nic.in की कॉपी है और इसके जरिए आपका निजी डेटा चोरी हो सकता है। अगस्त 2023 में मैंने फिर से इसे चेक किया तो यह खुली ही नहीं। ऐसा ही कश्मीर के गृह विभाग की वेबसाइट https://www.jkhome.nic.in के साथ भी ऐसा ही हुआ, जिसमें एरर आ रहा था। और भी कई बातें हैं जिन्हें कुछ अच्छे पत्रकार चाहें तो जांच सकते हैं।


इस सबके बीच जैसाकि प्रताप भानु मेहता ने आशंका जताई थी भारत का कश्मीरीकरण भी हो गया। इसके पीछे कुछ तो सरकारी शरारत थी और कुछ यह कि कश्मीर ने ही रास्ता दिखाया। लोकतंत्र उलझा हुआ है और शासन दिखना मुश्किल भले ही इसकी इच्छा ही क्यों न हो क्योंकि अकसर यह नदारद ही होता है। अच्छे शासन के लिए जरूरी है कि नियमों का पालन हो और कानून का शासन हो, लेकिन ज्यादातर सरकारों के लिए, यहां तक के बेहद कुशल सरकारों के लिए भी ऐसा करना आसान नहीं होता। और कश्मीर की सरकार को तो कुशल कहना ही अटपटा है। और जब शासन नहीं चलता तो क्या होता है, लोकतंत्र को ही हटा दिया जाता है, जैसाकि कश्मीर में किया गया।

मणिपुर या गुरुग्राम या उत्तर प्रदेश की ही मिसाल लें। मुकदमे तो दर्ज हो जाते हैं लेकिन उन्हें अंजाम तक पहुंचाना कठिन होता है क्योंकि दोषसिद्धि से ज्यादा मामले तो बरी हो जाने के हैं। ऐसे में न्यायिक प्रक्रिया के बाहर ही लोगों को सजा दे दी जाए। इसीलिए अदालतों की कार्यवाही के बजाए बुलडोज़रों की गड़गड़ाहट ज्यादा सुनाई देती है।

उत्तर प्रदेश में आरोपी अकसर लड़खड़ाते हुए दिखते हैं, क्योंकि उन्हें टांग में गोली मारी गई होती है, और यह भी न्याय का एक तरीका बन गया है। आरोपियों को हिरासत में ही सीधे गोली से भी मार दिया जाता है, कुछ ऐसों को भी जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपनी सुरक्षा की गुहार लगाई हुई होती है। न्यू इंडिया के लिए शासन का यह नया तरीका है, लेकिन कश्मीर तो इस सबका लंबे समय से आदी ही हो चुका है।

लोकतंत्र की जननी का दावा करने  वाला देश दुनिया में सबसे ज्यादा इंटरनेट शटडाउन करने वाला देश भी है, और बीते 6 वर्षों में इस मोर्चे पर शीर्ष पर बना हुआ है। 2014 में जहां सिर्फ 6 बार इंटरनेट शटडाउन हुआ था, वहीं अब इसकी संख्या 100 पार कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट उपलब्धता को बुनियादी अधिकार बताया है, लेकिन सरकारी तौर पर नागरिकों को इंटरनेट की सहज उपलब्धता एक बकवास है।

कितने उदाहरण है कि वीडियो के माध्यम से सरकार की सुस्ती और निकम्मापन सामने आता है, लेकिन सरकार नहीं चाहती कि आप या कोर्ट ऐसे वीडियो देखें। सरकार के लिए इंटरनेट पर पाबदी समस्या का समाधान है। कश्मीर ने इस मामले में भी नजीर पेश की है। और, अगर मणिपुर के या हरियाणा के लोग इससे अब दो चार हो रहे हैं, तो सिर्फ इसलिए कि यह एक मॉडल रहा है।

कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद 17 महीनों तक इंटरनेट बंद रहा (पूरी दुनिया में सिर्फ कश्मीरी बच्चे ही ऐसे थे जिन्हें कोविड के दौरान ऑनलाइन शिक्षा से वंचित रखा गया)। लेकिन हम लोगों को इससे कुछ लेनादेना नहीं, क्योंकि यह तो उनकी समस्या है। अन्यत्र, अपने प्रतिद्वंद्वी को संसद से प्रतिबंधित करना लोकतांत्रिक विरोध को ख़त्म करने का सबसे प्रभावी तरीका माना जाता है। और फिर लोकसभा में बहस से बचना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करने से भी आसान है।


क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री, हमारे प्रिय ऋषि सुनाक, किसी भी चीज़ के बारे में प्रश्नकाल को टाल दें, तो क्या होगा। पूरे संघीय संघीय ढांचे को कुचलने की बात तो सोचना ही असंभव है। वहां ऐसी किसी स्थिति के बारे में सोचना भी असंभव है, लेकिन हमारे यहां इसे बहुत ही बेफिक्री से स्वीकार करते हुए सामान्य मान लिया जाता है।

आखिर प्रधानमंत्री को क्यों उनके काम को लेकर संसद के प्रति जवाबदेह होना चाहिए?

इस सबकी सबसे सुंदर स्थिति यह है कि ये सब इतनी जल्दी हमारे सामने आ गया, लेकिन फिर भी इस पर ध्यान नहीं दिया गया। हम ऐसा ही दिखाते और मानते रहे कि जैसे न तो कुछ बदला है और न ही कुछ हुआ है। ‘न्यू इंडिया’ अपनी किसी भी परिभाषा में यह नहीं बताता कि यह ‘न्यू’ क्यों है, लेकिन फिर भी इसके अपने कुछ निर्देश हैं जिन्हें सरकार ने खुद के लिए तैयार किया है और इसका इस्तेमाल करती है। कश्मीरी सबसे पहले इन सबके साक्षी बने हैं।

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