बंदिशों की अगली कड़ी में अब किताबों - पत्रिकाओं पर हमला
पुस्तक पढ़ने की संस्कृति किसी भी समाज को संवेदनशील बनाती है और उसकी दुनियावी समझ को मजबूत करती है। अब सरकार ही किताबों से पाठक को दूर करने पर काम करने लगे तो उस समाज का क्या होगा। नये प्रावधान से हिंदी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं के पाठकों को मुश्किल होगी।

2024 के आखिरी दिनों में भारत सरकार के डाक विभाग ने एक ऐसा काम किया जिससे पुस्तक प्रेमियों को गहरा धक्का लगा है। असल में आजादी मिलने के साथ ही भारत सरकार ने डाक विभाग से पुस्तकों को सामान्य पाठक तक पहुंचाने के लिए एक विशेष प्रावधान किया था। इस प्रावधान में मुद्रित पुस्तकें पंजीकृत डाक से देश भर में कहीं भी भेजी जा सकती थीं। सत्तर के दशक में हिन्द पॉकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना जैसे पाठक प्रिय उद्यमों की सफलता में इस प्रावधान का बड़ा योगदान था।
पिछले एक-डेढ़ साल में इस प्रावधान पर दो बार संशोधन हुए। पहले इसकी दरों में आंशिक बढ़ोतरी की गई और फिर इसे भी जीएसटी के दायरे में ले आया गया। संकेत साफ थे कि सरकार की नज़र अब इधर पड़ चुकी है। नयी व्यवस्था में मुद्रित किताबों को पंजीकृत डाक से भेजने का यह प्रावधान पूरी तरह खत्म कर दिया गया है।
उदाहरण से समझने की कोशिश की जाए। जहां पुरानी व्यवस्था में किताबों का एक किलो वजनी पैकेट लगभग 32 रुपये में भेजा जा सकता था, अब इसके लिए पाठक को 78 रुपये चुकाने होंगे। खास बात यह कि नए में टेरिफ में पंजीकृत पार्सल में आधा किलो तक एक ही दाम है, यानी अगर कोई अल्प मूल्य वाली किताब भी पाठक डाक से मंगवाता है तो उसे 42 रुपये देने ही होंगे। एक पुरानी कहावत याद आती है सोने से अधिक बनवाई महंगी।
16 दिसम्बर को जब कुछ प्रकाशक और लेखक डाकघरों में अपने पैकेट लेकर पहुंचे तब उन्हें पता चला कि डाक विभाग के कंप्यूटर से पंजीकृत प्रिंटेड बुक्स का वह विकल्प ही गायब है जिसके तहत ऐसे पैकेट जाते थे। डाक कर्मचारी भी इसका कारण बताने में पूरी तरह असमर्थ थे। पूरी बात समझने में एक-दो दिन लग गए कि अब यह सुविधा ही बंद हो चुकी है।
सोचना चाहिए कि स्वतंत्रता के बाद तत्कालीन भारत सरकार ने जब किताबों के लिए यह विशेष प्रावधान किया था, उसकी सोच देश में पुस्तक संस्कृति और पठन-पाठन को बढ़ावा देने की कोशिश की ही रही होगी। असल में पुस्तक पढ़ने की संस्कृति किसी भी समाज को संवेदनशील बनाती है और उसे दुनियावी समझ में मजबूत करती है। अगर सरकार ही किताबों से पाठकों को दूर करने की नीति पर काम करने लगे तो उस समाज का क्या हाल होगा।
नये प्रावधान से हिंदी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं के पाठकों को परेशानी होगी। यह उन छोटे प्रकाशकों के लिए कड़ी चुनौती है जो डाक के माध्यम से अपना प्रकाशन व्यवसाय कर रहे थे। सभी छोटे प्रकाशकों के लिए अमेजन जैसे माध्यमों से किताबें भेजना संभव नहीं है। साथ ही ध्यान देना चाहिए कि बेहद महंगी और अविश्वसनीय कोरियर सेवाएं भारत के बड़े शहरों, बड़े जिला मुख्यालयों तक तो जाती हैं लेकिन दूर दराज के ग्रामीण अंचलों में उन्हें इन सेवाओं को पहुंचाने में कोई रुचि नहीं। डाक और कोरियर का अंतर यहां समझ आता है जो मुनाफे और सामाजिक प्रतिबद्धता का अंतर है।
इन नये दामों का एक और पक्ष दूरस्थ शिक्षा से भी जुड़ता है। देश में राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय सहित अनेक विश्वविद्यालय दूरस्थ शिक्षा (डिस्टेंस लर्निंग) प्रदान करते हैं जिसमें विद्यार्थी को समस्त पाठ सामग्री डाक से भेजी जाती है। बढ़ी हुई दरों का सीधा असर गरीब और वंचित लोगों पर पड़ेगा जो स्कूल-कॉलेज जाकर नियमित कक्षा से पढ़ाई नहीं कर सके। बढ़ी दरों के कारण पाठ सामग्री भेजने में इन संस्थानों को अब विद्यार्थियों से अधिक फीस वसूलनी पड़ेगी जो पहले ही विभिन्न कारणों से शिक्षा लेने से रह गए थे। ध्यान देने की बात यह भी है कि विश्व भर में डाक दरों पर सर्वाधिक जीएसटी भारत में लगता है, जो कि संपन्न देश भी नहीं करते। आखिर लाभ कमाने की कोई तो सीमा होगी?
सरकार के इस कदम पर सोशल मीडिया में लेखकों-पाठकों में गहरी नाराजगी व्यक्त हुई है। विख्यात कवि बोधिसत्व ने इस बढ़ोत्तरी पर सोशल मीडिया पर तीखी टिप्पणी में कहा, ‘बुक पोस्ट जैसी सर्विस बंद कर के जनता को न पढ़ने देने का पूरा प्रबंध कर लिया गया है। अब बिना लुटे आप पढ़ नहीं सकते! नौ की लकड़ी नब्बे खर्च वाली स्थिति बना दी गई है। पाठक अब लूट के दायरे में है! सरकार ने लूटने का विधिवत उपाय कर लिया है!’
वहीं लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने लिखा, ‘हमारे यहां पत्रिकाओं व पुस्तकों की सुलभता वैसे ही कम है। जिन्हें पढ़ने लिखने में रुचि है वे उन्हें प्राप्त करने के लिए डाक व्यवस्था पर ही निर्भर रहते हैं। डाक व्यय बढ़ने का उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा- यह बताने की ज़रूरत नहीं है।’
राजस्थानी के प्रसिद्ध लेखक श्याम जांगिड़ ने क्षोभ व्यक्त करते हुए लिखा, ‘मैं मित्रों को प्रिंटेड बुक्स नियम के अनुसार एक सामान्य वजन की पुस्तक पच्चीस रुपए में भेजता रहा हूं। सबसे बुरा असर हमारे राजस्थानी लेखकों पर होगा। क्योंकि हमें अपनी राजस्थानी किताब मित्र लेखकों को डाक से ही भेजनी होती है। क्योंकि प्रकाशक के यहां से कोई नहीं मंगवाता। अत: हमें प्रकाशन की उपस्थिति खुद ही दर्ज करवानी होती है। अब यह नहीं हो पाएगा, अफसोस! न जाने यह सरकार बुद्धिजीवियों के पीछे क्यों पड़ी है! यह काला कानून जनता को जड़ता की ओर धकेलेगा।’
नैनीताल की लेखिका और शिक्षक माया गोला ने लिखा, ‘तानाशाही के लिए पढ़ने की संस्कृति खत्म करना जरूरी है।’ मैथिली और हिंदी के प्रकाशक गौरीनाथ ने लिखा, ‘दरअसल हमारी सरकारों को यह पता चल गया है कि उसकी नीतियों की सर्वाधिक आलोचना लघु पत्रिकाओं और छोटे-छोटे प्रकाशन गृह से निकलने वाली किताबों में ही रहती है। इसलिए इस बार ज्यादा कठोर कदम उठाते हुए पत्रिकाओं के साथ किताब, पम्पलेट आदि तमाम मुद्रित सामग्री को भेजी जाने वाली रियायती डाक सेवा ही समाप्त कर दी गई है। ऐसा करके एक तरफ लघु पत्रिकाओं, छोटे प्रकाशन गृहों और छोटे-छोटे संगठनों से जारी होने वाली मुद्रित सामग्री पर अंकुश लगाने की तैयारी है, तो दूसरी तरफ कॉर्पोरेट घराने की कूरियर सेवाओं को बढ़ावा देने का प्रयास है।’
नयी व्यवस्था की मार उन छोटी पत्रिकाओं पर भी पड़ी है जो बिना विज्ञापनों के धीरे-धीरे निकलती हैं और केवल डाक के सहारे पाठकों तक पहुंचती हैं। लघु पत्रिका कार्यान्वयन समिति ने ऐसी पत्रिकाओं को एक मंच पर संगठित करने का प्रयास किया है। इन लघु पत्रिकाओं को भी पाठकों तक पहुंचने के लिए डाक का सहारा लेना पड़ता है और अब बढ़े दामों के कारण इन पत्रिकाओं को भी मुश्किल होगी। लगातार बढ़ रहे कागज और छपाई के मूल्य के बावजूद ये लघु पत्रिकाएं लागत मूल्य पर ही पाठकों तक उच्च स्तरीय साहित्यिक-सांस्कृतिक सामग्री पहुंचाती हैं।
नयी व्यवस्था में इन्हें अपने दाम बढ़ाने होंगे या बंद ही कर देना होगा। लघु पत्रिकाओं के आंदोलन से जुड़े लखनऊ निवासी आशीष सिंह ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘सच यही है कि जब सरकारी विज्ञापनों को रोककर भी सरकार लघु-पत्रिकाओं को प्रकाशित होने से नहीं रोक पायी, तो अब अगले कदम पर डाक सुविधा ही छीन ली जा रही है। लघु-पत्रिकाओं का गला दबाने की कोशिश का साफ मतलब है कि छोटी और सामान्य आवाजों को कोई मंच न मिले। अब बस सुनना है, सुनाने की सारी गलियों को रूंधा जा रहा है।’
एटा से निकल रही लघु पत्रिका ‘चौपाल’ के संपादक ने कहा, ‘हमारी पत्रिकाओं को कोई सरकारी या गैर सरकारी विज्ञापन नहीं मिलता, तब भी अपनी सीमित आय में जी तोड़ कोशिशों से इन पत्रिकाओं को निकाला जाता है ताकि साहित्य को साधारण लोगों तक कम से कम कीमत में पहुंचाया जा सके। हम प्रेमचंद और निराला के वंशज हैं लेकिन नयी परिस्थितियां लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन ही समाप्त कर देगी।’ ऐसी ही परिस्थितियों में पिछले दस ग्यारह सालों में अनभै सांचा, शेष, सम्बोधन, पहल, अक्सर, कथन, जतन, समकालीन सृजन, अलाव जैसी अनेक पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया है और अब यह नया संकट बाकी पत्रिकाओं पर भी अंतिम मार करेगा।
इधर किताबों के बढ़ रहे आकर्षण के साथ अनेक छोटे-छोटे सेवा प्रदाता अपने स्तरों पर डाक द्वारा किताबें दूर दराज के पाठकों तक पहुंचाने में लगे हैं। सोशल मीडिया के ऐसे समूहों में दिनकर पुस्तकालय और साहित्यारुषि प्रमुख हैं। मराठी में इस तरह का काम करने वाले सैंकड़ों समूह हैं।
छत्तीसगढ़ के कपूर वासनिक लगभग मिशन की तरह जन जन तक किताबें पहुंचाने में जुटे हैं। इन सभी प्रयासों को अब सरकार के नए कदम से धक्का लगना तय है। गांधीवादी और अम्बेडकरवादी साहित्य के पाठकों के लिए तो डाक ही सबसे सुगम रास्ता था, क्योंकि ऐसा साहित्य अब भी बहुत कम दामों में उपलब्ध करवाने के लिए लोग और संस्थान काम करते हैं। अब इन्हें पुस्तक के मूल्य से अधिक डाक का दाम चुकाना होगा। भारत सरकार को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए ताकि देश भर के पुस्तक प्रेमियों को राहत मिल सके।
(पल्लव हिंदी के जाने माने लेखक, ‘बनास जन’ पत्रिका के संपादक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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