यूक्रेन को लेकर रूस और पश्चिमी देशों की तनातनी के बीच नए शीत युद्ध का प्रस्थान बिंदु हो सकती है शी-पुतिन वार्ता

अमेरिका और यूरोप साबित करना चाहते हैं कि हम दुनिया की सबसे बड़ी ताकत हैं। दूसरी तरफ रूस-चीन खुलकर साथ-साथ हैं। युद्ध कोई नहीं चाहता, पर युद्ध के हालात चाहते हैं। आर्थिक पाबंदियां, साइबर अटैक, छद्म युद्ध, हाइब्रिड वॉर वगैरह-वगैरह चल रहा है।

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प्रमोद जोशी

यूक्रेन को लेकर रूस और पश्चिमी देशों की तनातनी के बीच रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की चीन यात्रा का डिप्लोमैटिक महत्व नहीं है, लेकिन दो बातों से यह महत्वपूर्ण है। एक तो पश्चिमी देशों ने इस ओलिम्पिक का राजनयिक बहिष्कार किया है, दूसरे महामारी के कारण देश से बाहर नहीं निकले शी चिनफिंग की किसी राष्ट्राध्यक्ष से यह पहली रूबरू वार्ता है।

अमेरिका और यूरोप साबित करना चाहते हैं कि हम दुनिया की सबसे बड़ी ताकत हैं। दूसरी तरफ रूस-चीन खुलकर साथ-साथ हैं। युद्ध कोई नहीं चाहता, पर युद्ध के हालात चाहते हैं। आर्थिक पाबंदियां, साइबर अटैक, छद्म युद्ध, हाइब्रिड वॉर वगैरह-वगैरह चल रहा है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अब रूस के साथ चीन है। ताइवान और हांगकांग के मसले भी इससे जुड़ गए हैं। ताइवान को अमेरिका की रक्षा-गारंटी है, यूक्रेन के साथ ऐसा नहीं है। फिर भी अमेरिका ने कुमुक भेजी है।

कल्पना करें कि लड़ाई हुई और रूस पर अमेरिकी पाबंदियां लगीं, और बदले में पश्चिमी यूरोप को गैस-सप्लाई रूस रोक दे, तब क्या होगा? यूरोप में गैस का एक तिहाई हिस्सा रूस से आता है। शीत युद्ध के दौरान भी सोवियत संघ ने गैस की सप्लाई बंद नहीं की थी। सोवियत संघ के पास विदेशी मुद्रा नहीं थी। पर आज रूस की अर्थव्यवस्था इसे सहन कर सकती है। अनुमान है कि रूस तीन महीने तक गैस-सप्लाई बंद रखे, तो उसे करीब 20 अरब डॉलर का नुकसान होगा। उसके पास 600 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है। इतना ही नहीं, उसे चीन का सहारा भी है जो उसके पेट्रोलियम और गैस का खरीदार है।

रूस-चीन बहनापा

क्या यह नया शीत युद्ध है? शीत युद्ध और आज की परिस्थितियों में गुणात्मक बदलाव है। उस वक्त सोवियत संघ और पश्चिम के बीच आयरन कर्टेन था। आज दुनिया काफी हद तक कारोबारी रिश्तों में बंधी हुई है। दो ब्लॉक बनाना आसान नहीं है, फिर भी वे बन रहे हैं। ईयू और अमेरिका करीब आए हैं, वहीं रूस और चीन का बहनापा बढ़ा है। पश्चिम में इस रूस-चीन गठजोड़ को ‘ड्रैगनबेयर’ नाम दिया गया है।

चीन का दावा है कि अमेरिकी बहिष्कार के बावजूद कम-से-कम 32 देशों के शासनाध्यक्ष विंटर ओलिम्पिक के उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए बीजिंग आ रहे हैं। इनमें यूरोप के छह शाही परिवार, मध्य एशिया के पांच, पश्चिम एशिया के तीन, दक्षिण अमेरिका से दो और एशिया, अफ्रीका और प्रशांत क्षेत्र के कुछ और शासनाध्यक्ष हैं जिनमें पाकिस्तान के इमरान खान शामिल हैं।

चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स का दावा है कि पिछले साल हुए टोक्यो ओलिम्पिक में 30 से भी कम शासनाध्यक्ष आए थे। हमारे यहां उससे ज्यादा आएंगे। विंटर ओलिम्पिक का आयोजन चीन ने वैश्विक-शोकेस के रूप में किया है, पर अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा समेत कुछ देशों ने शिनजियांग के वीगुर समुदाय और हांगकांग में मानवाधिकार उल्लंघन की शिकायतों को लेकर बहिष्कार किया है। यह पूर्ण बहिष्कार नहीं है। यानी खिलाड़ी भाग लेंगे, सरकारी प्रतिनिधि भाग नहीं लेंगे। कुछ देशों ने महामारी के नाम पर अपने प्रतिनिधि नहीं भेजे हैं जिनमें भारत, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रिया, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड्स जैसे देश शामिल हैं।


अमेरिकी रुख

आम धारणा थी कि ट्रंप के बाद बाइडेन का रुख चीन के प्रति नरम होगा। यह धारणा गलत साबित हुई। अमेरिकी रुख लगातार कड़ा होता गया है। पिछले साल अलास्का में दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडलों के बीच दो दिन की वार्ता बेहद कड़वे माहौल में हुई। वैसी, जैसी शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ की शुरुआती बैठकें होती थीं। एक समय तक अमेरिका और यूरोपीय संघ विपरीत दिशा में चलते थे, पर बाइडेन ने ईयू को अपने पक्ष में किया। ईयू और चीन के बीच कांप्रिहैंसिव एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेंट (सीएआई) टूट गया। इस समझौते पर सहमति सात साल तक चली बातचीत के बाद जाकर बनी थी।

आज स्थिति यह है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस और चीन मिलकर वैश्विक मसलों पर बोल रहे हैं। अफगानिस्तान को लेकर दोनों की शब्दावली एक है। यह शाब्दिक एकता अमेरिका को लेकर है। दोनों की प्रतिस्पर्धा अमेरिका से है। पर केवल अमेरिका ही कारण नहीं है। चीन को रूसी पेट्रोलियम और कच्चा माल चाहिए, कुछ विशेष रक्षा-उपकरण भी। पर इस मामले में रूस कमजोर पड़ता है।

चीन जो खरीद रहा है, वह कहीं और से भी खरीदा जा सकता है, पर रूस को खरीदार ढूंढ़ने पड़ते हैं। बहरहाल, रूस और चीन के बीच कारोबार 2013 से अब तक दोगुना हो गया है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर अब चीन आक्रामक है और रूस उसका समर्थक। मध्य एशिया के देशों में जो रूसी प्रभाव है, उसका फायदा उठाते हुए चीन ने मध्य एशिया से लेकर अफगानिस्तान तक अपनी पैठ बना ली है। चीन की नजर अफगानिस्तान की खनिज संपदा पर है।

नाटो का विस्तार

रूस चाहता है कि यूक्रेन और बेलारूस पश्चिमी यूरोप के साथ बफर का काम करें। यूक्रेन में दो तरह की आबादी है। बड़े तबके का झुकाव पश्चिम की ओर है। इस वजह से यूरोपियन यूनियन और नाटो में शामिल होने की मांग होने लगी। 2013 में रूस समर्थक राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच ने इस प्रक्रिया को रोकने की कोशिश की, तो उनका विरोध इतना हुआ कि उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा।

यूक्रेन को रूस अपना मानता है, पर नाटो के लगातार विस्तार से उसकी आशंका बढ़ रही हैं। नब्बे के दशक में पहले पूर्वी जर्मनी (जो अब जर्मनी है) इसमें शामिल हुआ, फिर चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड। इक्कीसवीं सदी में बल्गारिया, एस्तोनिया, लात्विया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया, अल्बानिया, क्रोएशिया, मोंटेनेग्रो और उत्तरी मकदूनिया इसमें शामिल हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि भविष्य में यूक्रेन और जॉर्जिया भी इसका हिस्सा बनेंगे। रूस के लिए यह खतरे का संकेत है।

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