खरी-खरी: अन्याय के दौर में देश की अंतरात्मा की आवाज बनकर उभरे हैं प्रशांत भूषण

देश में लोकतंत्र ठप है, नफरत की आग फैली हुई है, राजनीति में धर्म का बोलबाला है। आज का समाज असत्य और अन्याय पर आधारित समाज है जहां संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक परंपराओं पर ताला पड़ चुका है। ऐसे में अब केवल एक ही रास्ता बचा है जो गांधी जी का रास्ता है।

फोटो : Getty Images
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ज़फ़र आग़ा

इतिहास साक्षी है कि जब-जब अत्याचार, आतंक, अंधकार एवं असत्य अत्यधिक बढ़ जाता है तो कहीं- न-कहीं एक किरण फूट पड़ती है और समाज एक नई सुबह की ओर बढ़ने लगता है। भारतीय समाज पिछले छह वर्षों में घोर अत्याचार और अंधकार से जूझता रहा है। इतना ही नहीं, इन छह वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय मूल्यों और सांस्कृतिक परंपराओं के विपरीत देश के लोकतांत्रिक एवं सामाजिक ताने-बाने पर प्रहार किया है।

भारतीय सभ्यता के दो-तीन मौलिक सिद्धांत हैं जिन पर यह समाज सदा टिका रहा है। सर्वप्रथम, भारत में लोकतांत्रिक प्रथा कोई आज की नहीं बल्कि सदियों पुरानी है। आर्यावर्त के समय से ही पीपल के पेड़ों के नीचे यह समाज पंचायतों में सामाजिक सर्वानुमति की प्रथा के जरिये अपनी समस्याएं हल करता रहा। यही कारण है कि सन 1950 में जब वोट के जरिये आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली आरंभ हुई तो इस देश की अनपढ़ जनता को भी उसको स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं हुई। भले ही पश्चिम ने उस समय भारत में लोकतंत्र की सफलता पर सवाल खड़े किए हों लेकिन आज वही पश्चिमी देश भारत को संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानते हैं।

भारत की दूसरी सबसे पुरानी परंपरा इस देश की ही नहीं, स्वयं हिंदू धर्म की उदारता में निहित है। हिंदू सभ्यता ने कभी किसी दूसरे धर्म से अपने को असुरक्षित महसूस नहीं किया। तभी तो संसार का हर छोटा-बड़ा धर्म भारत में न केवल फला-फूला बल्कि उसको संपूर्ण सम्मान भी मिला। तभी तो भारत में मंदिरों के शंख, मस्जिदों की अजान एवं चर्चों तथा गुरुद्वारों के घंटे तथा संगत की आवाजें आज भी एक साथ सुनाई पड़ती हैं। यह भारतीय और हिंदू समाज की सदियों पुरानी उदारता का प्रतीक है।

भारत की तीसरी सांस्कृतिक परंपरा यह रही है कि यहां राजनीति को धर्म से नहीं जोड़ा गया। तब ही तो आर्यावर्त के समय से क्षत्रिय राजपाट एवं ब्राह्मण धार्मिक मामलों के अलग-अलग गार्जियन मान लिए गए थे। इस प्रकार भारत वर्ष ने यूरोप से सदियों पहले अपने यहां धर्म को राजपाट से अलग कर लिया था। ये तीनों मूल्य भारतीय संस्कृति के स्तंभ हैं जिन पर भारतीय समाज सदियों से टिका हुआ है।


परंतु राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने अपनी स्थापना के समय से ही इन तीनों मूल्यों को नकारा और अंततः अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इन तीनों स्तंभों को गिराकर देश में एक संघी समाज की स्थापना की जा रही है। इस संघी समाज में पहला सबसे बड़ा प्रहार लोकतंत्र पर है। मोदी राज में कोई राजनीतिक दल आवाज उठाने में असमर्थ है। कहने को कागज पर हर तरह की आजादी है। परंतु हर दल को चुप रखने के लिए सरकार ने अपने उपाय निकाले हैं जिनसे अब सभी अवगत हैं। इसी प्रकार सिविल सोसायटी को चुप करा दिया गया है। आज मीडिया एवं न्यायपालिका-जैसे लोकतांत्रिक स्तंभों पर प्रश्न चिह्न लग चुके हैं। और तो और, यदि कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर एक ट्वीट भी कर दे तो वह कब जेल चला जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं रह गई है। ऐसे वातावरण को आप घोर अंधकार नहीं तो और क्या कहेंगे!

निःसंदेह भारतवर्ष इस समय ऐसी राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति से जूझ रहा है जिसमें अंधकार के साथ दम घोटने वाली खामोशी है। ऐसे वातावरण में प्रशांत भूषण की आवाज उम्मीद की किरण है जो आने वाली सुबह की ओर एक इशारा भी है। प्रशांत भूषण अभी एक अकेली आवाज है। परंतु यह एक विद्रोह का इशारा भी है। मैं प्रशांत भूषण को गांधी अथवा मंडेला नहीं मानता हूं। मेरे विचारों से उन्होंने पहले ऐसे कदम भी उठाए हैं जिनसे संघ और मोदी की राजनीति को बल मिला। अन्ना आंदोलन को आंखें मूंदकर जो उन्होंने सहयोग दिया, वह मेरी समझ से राजनीतिक भूल थी। दरअसल, अन्ना आंदोलन नरेंद्र मोदी को दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाने की पृष्ठभूमि था। प्रशांत राजनीति की इस बारीकी को नहीं समझ सके और अपनी विद्रोही प्रवृत्ति में अन्ना के साथ बह निकले। परंतु इस समय प्रशांत भूषण जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट से माफी नहीं मांगने पर अडिग हैं, वह केवल अकेली उनकी आवाज नहीं अपितु वह भारतीय अंतरात्मा की आवाज है। बस, यही बात है जो प्रशांत भूषण को भारत के लिए एक नए विद्रोह का प्रतीक बना देती है। जब राजनीतिक प्रतिक्रिया ठप हो, सिविल सोसायटी सिर न उठा सके, मीडिया एवं न्यायपालिका अपनी भूमिका नहीं निभा पा रहे हों, तो ऐसे में प्रशांत भूषण की आवाज एक गूंज बन जाती है जो देश की अंतरात्मा की आवाज प्रतीत होती है।

“यदि मैं इस कोर्ट के सामने से अपना बयान वापस ले लूं जिसको मैं सत्य मानता हूं या मैं कोई झूठी-मूठी माफी मांग लूं तो यह स्वयं मेरी अंतरात्मा की मानहानि होगी और उस संस्था का भी अपमान होगा जिसको मैं अत्यधिक आदरणीय मानता हूं”- प्रशांत भूषण का यह बयान निःसंदेह केवल उनकी अंतरात्मा ही नहीं अपितु देश की अंतरात्मा की आवाज है। यह वही रास्ता है जो गांधी जी ने 1917 में चंपारण आंदोलन के दौरान अदालत के सामने देश को सिखाया था। गांधी जी वह नेता थे जिन्होंने देश को सबसे पहले यह सिखाया कि जब सत्य एवं न्याय के सारे रास्ते बंद हों तो पहले डर छोड़ दो और फिर निर्भीकता से अपनी अंतरात्मा के बताए रास्ते पर चलो। प्रशांत भूषण इस समय उसी गांधीवादी मार्ग पर चलकर अपनी अंतरात्मा का पालन कर रहे हैं क्योंकि सत्य एवं न्याय के सारे मार्ग बंद हो चुके हैं।


देश में जो परिस्थितियां हैं, वे ब्रिटिश शासनकाल- जैसी ही हैं। जैसे उस समय ब्रिटिश शाही खानदान का सिक्का चलता था, वैसे ही इस समय देश में मोदी शाही का सिक्का चल रहा है। उस समय में जिस तरह से सरकार के विरुद्ध हर आवाज एक पाप थी, उसी तरह से आज एक मामूली-सा ट्वीट तक पाप है। आखिर में अंग्रेजों ने भी चुनावी प्रक्रिया आरंभ कर दी थी। वैसे ही इस समय भी चुनाव हो रहे हैं परंतु निर्वाचन आयोग की भूमिका पर इस समय प्रश्न चिह्न है। जब भारतीय निर्वाचन आयोग ही स्वतंत्र नहीं हो तो फिर लोकतंत्र कैसा! फिर आर्थिक दशा भी वैसी ही, जैसी कभी अंग्रेजों के शासनकाल में थी। उस समय देश की सारी दौलत विलायत के खजाने में जाती थी। वैसे ही देश की सारी पूंजी इस समय गिनती के कॉरपोरेट घरानों अथवा पीएम केयर फंड-जैसी योजनाओं के माध्यम से स्वयं प्रधानमंत्री की मुठ्ठी में जा रही है। जैसे अंग्रेज हिंदू-मुसलमान को लड़वाकर अपना राजपाट चला रहे थे, उसी प्रकार मोदी जी भी ‘बांटो और राज करो’ की रणनीति का इस्तेमाल कर अपनी सत्ता चला रहे हैं। जैसे अंग्रेजी राज में नौजवान बेरोजगार था, वैसे ही आज भी भारतीय युवक हाथ में डिग्री लिए सड़कों पर जूते घिस रहा है। देश में लोकतंत्र ठप है, नफरत की आग फैली हुई है, राजनीति में धर्मका बोलबाला है और अल्पसंख्यकों की जान सूली पर लटकी हुई है, क्या इसे आप एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाज कहेंगे! यह एक असत्य और अन्याय पर आधारित समाज है जहां संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक परंपराओं पर ताला पड़ चुका है। ऐसे में अब सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। कहीं से भी अब न्याय की उम्मीद करना बेकार है। अतः अब केवल एक ही रास्ता बचा है जो गांधी जी का रास्ता है और जिस मार्ग को प्रशांत भूषण ने अपनाया है। और वह अंतरात्मा की आवाज का रास्ता है।

गांधी जी ने स्वयं इसी रास्ते पर चलकर और भारतवासियों को इसी रास्ते पर चलवाकर देश को स्वतंत्र करवाया था। इस समय फिर देश संघ की गुलामी का शिकार है। हमको इस गुलामी से केवल गांधी के मार्ग पर ही चलकर निजात मिलेगी। वह मार्ग सत्य एवं अहिंसा का मार्ग है। और उस सत्याग्रह के लिए प्रशांत भूषण की तरह ही आपको निर्भीक होकर अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनना और मानना होगा। प्रशांत भूषण इस समय जिस रास्ते पर चल रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि भारत की आत्मा विचलित है। और उसकी शांति के लिए हजारों क्या, लाखों भारतीयों को प्रशांत भूषण के समान निर्भीकता से जेल की यात्रा के लिए तैयार रहना चाहिए।

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