संकट की इस घड़ी में याद रहे भाईचारे और एकता की अपनी साझी विरासत

जब बाबर भारत में आया और खानवा के युद्ध में राणा सांगा ने उससे टक्कर ली तो राणा की ओर से लड़ने वालों में हसन खां मेवाती और महमूद लोधी के नाम प्रमुख थे। बीकानेर के राजपरिवार को संकट की घड़ी में शेरशाह सूरी के यहां शरण मिली। ऐसे कई तथ्य हैं, जो हमारी साझी विरासत का सबूत हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

प्रश्न - मथुरा-वृंदावन क्षेत्र के मंदिरों के लिए एक हजार बीघा जमीन का दान किसने किया था?

उत्तर - सम्राट अकबर ने।

प्रश्न - अयोध्या का मशहूर हनुमानगढ़ी का मन्दिर बनाने के लिए जमीन का दान किसने किया?

उत्तर - अवध के नवाब सफदरजंग ने।

प्रश्न - महाभारत का पहला फारसी अनुवाद किसने करवाया और इसके खूबसूरत चित्र किसने बनाए?

उत्तर - यह अनुवाद (अबुल फजल के भाई) कवि फैजी की देखरेख में सम्राट अकबर ने करवाया। इसके खूबसूरत चित्र दरबार के हिन्दू-मुस्लिम चित्रकारों ने मिलकर बनाए।

ऐसे तथ्य हमारी साझी विरासत का पुख्ता प्रमाण हैं। इन विरासतों को हम याद करते हैं तो हमारे सामने उभरती है एक तस्वीर जो भारत में किसी मुस्लिम राजा के शासन से पहले की तस्वीर है। आठवीं शताब्दी में अरब देशों से कुछ जिज्ञासु भारत आए हुए हैं और यहां के बौद्ध और हिन्दू विद्वानों से बातचीत कर रहे हैं और बहुत लगन से उनके विचार ग्रहण कर रहे हैं। ये इन विद्वानों द्वारा दिए कुछ ग्रन्थों को बगदाद ले जाते हैं, जहां इन पर बहुत चर्चा होती है और इनमें से बहुत कुछ ग्रहण किया जाता है।

याकीबी ने अगली शताब्दी में लिखा कि हिन्दू चिन्तन-मनन में बहुत आगे पहुंच चुके हैं और उनकी ब्रह्मसिद्धान्त नामक पुस्तक से अरब विद्वानों के अलावा ईरान और यूनान के विद्वान भी लाभान्वित हुए हैं। एक अन्य अरब इतिहासकार काजी सैद ने लिखा कि सब लोग हिन्दुओं को विद्वता और शिक्षा का संरक्षक मानते हैं। इस तरह राजा और शासक तो बाद में आए, संस्कृति का आदान-प्रदान बहुत पहले ही आरंभ हो चुका था।

जब बाबर भारत में आया और खानवा के युद्ध में राणा सांगा ने उससे टक्कर ली तो राणा की ओर से लड़ने वालों में हसन खां मेवाती और महमूद लोधी के नाम प्रमुख थे। मेवात के लोक-गीतों में आज तक इस दोस्ती को याद किया जाता है -

यह मेवाती वह मेवाड़ी, मिल गए दोनों सेनाणी

हिन्दू, मुस्लिम भाव छोड़, मिल बैठे दो हिन्दुस्तानी

बीकानेर के राज-परिवार को संकट की घड़ी में शेरशाह सूरी के दरबार में शरण मिली। हुमायूं को संकट के दिनों में अमरकोट के राणा ने शरण दी और वहीं अकबर का जन्म हुआ। फतेहपुर सीकरी में अकबर ने इबादत खाना (प्रार्थना भवन) बनवाया, जहां हिन्दू-मुस्लिम, जैन, ईसाई, पारसी सब धर्मों के अनुयायी और विद्वान धार्मिक विचारों के आदान-प्रदान में हिस्सा लेते थे। अकबर ने अनेक मन्दिरों को जमीन दान दी और अन्य तरह से उनकी सहायता की। उसने विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के आपसी भाईचारे और मेल-मिलाप पर काफी जोर दिया।

अकबर ने अनुवाद का एक बड़ा विभाग खोला जहां गीता, रामायण, महाभारत, अथर्ववेद और बाईबल का अनुवाद फारसी में हुआ। अकबर ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों चित्रकारों को संरक्षण और प्रोत्साहन दिया।

अकबर के समकालीन राणा प्रताप ने मुस्लिम सेनापति को महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी, सिंधी मुस्लिमों को जागीर दी और मुस्लिम चित्रकारों को संरक्षण दिया। अकबर और प्रताप दोनों अपनी जगह महान थे पर उनमें दोस्ती न हो सकी। उनके उत्तराधिकारियों ने इस कमी को पूरा किया। जहांगीर और अमरसिंह में समझौता हो गया।

शिवाजी ने अपनी सेना में मुस्लिमों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया और सदा इस्लाम धर्म को पूरी इज्जत दी। दूसरी ओर दक्कन के अनेक मुस्लिम शासकों की सेना में मराठों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सोलहवीं शताब्दी में दक्कन क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण शासक अली आदिल शाह था जिसे लोग सूफी कहते थे। वह हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई धार्मिक लोगों से धर्म के बारे में विचारों का आदान-प्रदान करता रहता था। उसने बहुत अच्छी लाइब्रेरी बनाई जिसमें संस्कृत के विद्वान वामन पंडित को नियुक्त किया।

उसके उत्तराधिकारी इब्राहीम आदिल शाह द्वितीय को ‘गरीबों का दोस्त कहा जाता था। धर्म में सहिष्णुता के कारण उसे जगत गुरु भी कहा जाता था। वह संगीतज्ञों का बहुत बड़ा संरक्षक था और अपनी नई राजधानी नौरसपुर में उसने बहुत से संगीतकारों को एकत्र किया। अपने गीतों में उसने कई बार सरस्वती देवी की वन्दना की है। कई हिन्दू मन्दिरों और संतों को उसने संरक्षण दिया।

अवध के नवाबों ने अयोध्या के मन्दिरों की कई तरह से सहायता की और अयोध्या के एक तीर्थ-स्थान के रूप में निखरने में उनकी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। अवध के नवाबों के शासन काल में शान्ति-समृद्धि का एक दौर आया जिसमें यहां एक विशिष्ट लखनवी संस्कृति विकसित हुई। नवाब सफदरजंग का सबसे ऊंचा अधिकारी एक हिन्दू नवल राय था जो नवाब के लिए लड़ते हुए खुदागंज नामक स्थान पर मारा गया।

इस भाईचारे और एकता की विरासत की ओर ध्यान न देकर कुछ कट्टरवादी और सांप्रदायिक तत्त्व केवल भड़काने वाली बातों को फैलाते हैं जिनमें केवल असत्य होता है और वे उनके सही संदर्भ भी नहीं देते हैं। इन तत्त्वों से सावधान रहते हुए साझी संस्कृति और भाईचारे को मजबूत करना ही राष्ट्रहित में है।

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