जलवायु परिवर्तन के कारण अर्थव्यवस्था पर बढ़ रहा बोझ, दुनिया में बढ़ता जा रहा आर्थिक असमानता

कुछ वर्ष पहले से ही जलवायु परिवर्तन के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ते अनावश्यक बोझ से सम्बंधित अनेक अध्ययन प्रकाशित किये गए हैं, पर ऐसे अधिकतर अध्ययन में केवल बढ़ते तापमान के प्रभावों का ही आकलन किया गया है।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

एक नए और विस्तृत अध्ययन का निष्कर्ष है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में हरेक वर्ष औसतन 19 प्रतिशत का नुकसान होगा। अमेरिकन डॉलर के सन्दर्भ में यह नुकसान हरेक वर्ष 38 खरब डॉलर तक पहुँच जाएगा। इस अध्ययन में बताया गया है कि वैश्विक स्तर पर तापमान बृद्धि को रोकने के लिए जितने खर्च की जरूरत है, इससे होने वाला नुकसान लगभग 6 गुना अधिक है, यानि तापमान बृद्धि को नियंत्रित करना इससे होने वाले नुकसान की तुलना में बहुत सस्ता है। पर, विडम्बना यह है कि तापमान बृद्धि को रोकने की गंभीर पहल किसी भी देश में नजर नहीं आ रही है। इस अध्ययन को विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठित जर्नल “नेचर” ने प्रकाशित किया है।

कुछ वर्ष पहले से ही जलवायु परिवर्तन के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ते अनावश्यक बोझ से सम्बंधित अनेक अध्ययन प्रकाशित किये गए हैं, पर ऐसे अधिकतर अध्ययन में केवल बढ़ते तापमान के प्रभावों का ही आकलन किया गया है और अबतक के अधिकतर अध्ययन वर्ष 2050 तक वैश्विक सकल घरेलु उत्पाद में 7 से 8 प्रतिशत तक के नुकसान की बात करते हैं। इस मामले में नेचर में प्रकाशित अध्ययन एकदम अलग है और अर्थव्यवस्था में नुकसान को दुगुने से अधिक बताता है। इस अध्ययन के लेखकों के अनुसार इसका सबसे बड़ा कारण है कि इस आकलन में तापमान बृद्धि के साथ ही वर्षा में बदलाव और चरम प्राकृतिक घटनाओं की बढ़ती तीव्रता और आवृत्ति के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान को भी शामिल किया गया है।

अध्ययन के अनुसार हालां कि जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था में औसतन 19 प्रतिशत का नुकसान होगा, पर देशों और क्षेत्रों के अनुसार यह नुकसान भिन्न रहेगा। अमेरिका और यूरोप में जलवायु परिवर्तन के कारण अर्थव्यवस्था में औसतन 11 प्रतिशत का नुकसान होगा जबकि सर्वाधिक नुकसान, 22 प्रतिशत, अफ्रीका और दक्षिण एशिया में होगा। भारत के लिए यह अनुमान लगभग 25 प्रतिशत है। इस अध्ययन में चेतावनी दी गयी है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए यदि देशों का रवैय्या ऐसे ही रहा तो इस शताब्दी के अंत तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में होने वाला नुकसान 60 प्रतिशत तक पहुँच सकता है।

हाल में ही प्रकाशित एक दूसरे अध्ययन के अनुसार पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में यदि तापमान बृद्धि 3 डिग्री सेल्सियस तक होती है, तब वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 10 प्रतिशत की गिरावट होगी। इसके अनुसार यदि तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोका जा सके तब अर्थव्यवस्था में होने वाला नुकसान एक-तिहाई ही होगा। इस अध्ययन में नुकसान का आकलन केवल तापमान बृद्धि और वर्षा में बदलाव के आधार पर ही किया गया है, और पिछले 40 वर्षों के जलवायु से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन जलवायु से सम्बंधित 33 अत्याधुनिक मॉडल द्वारा किया गया है। इस अध्ययन को “नेचर क्लाइमेट चेंज” नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है।


एक ओर जलवायु परिवर्तन के कारण अर्थव्यवस्था पर बढ़ता बोझ दुनिया में आर्थिक असमानता बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन का मुख्य स्त्रोत अमीर देश हैं पर इसका सर्वाधिक प्रभाव गरीब देशों पर पड़ रहा है। वर्ष 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक देश पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित कर रहे हैं। इस अध्ययन को अमेरिका की रिसर्च यूनिवर्सिटी डार्टमौथ कॉलेज के वैज्ञानिक क्रिस काल्लाहन के नेतृत्व में किया गया है और इसे क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। दरअसल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है और वे वायुमंडल में मिलकर पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन करती हैं। इसलिए यदि इनका उत्सर्जन भारत या किसी भी देश में हो, प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है। सबसे अधिक प्रभाव गरीब देशों पर पड़ता है। इस अध्ययन को वर्ष 1990 से 2014 तक सीमित रखा गया है। इस अवधि में अमेरिका में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया को 1.91 ख़रब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा, जो जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में होने वाले कुल नुकसान का 16.5 प्रतिशत है।

इस सूचि में दूसरे स्थान पर चीन है, जहां के उत्सर्जन से दुनिया को 1.83 ख़रब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है, यह राशि दुनिया में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले कुल नुकसान का 15.8 प्रतिशत है। तीसरे स्थान पर 986 अरब डॉलर के वैश्विक आर्थिक नुकसान के साथ रूस है। चौथे स्थान पर भारत है। भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण दुनिया को 809 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा और यह राशि वैशिक आर्थिक नुकसान का 7 प्रतिशत है। इस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण पूरी दुनिया में होने वाले आर्थिक नुकसान के योगदान में हमारे देश का स्थान दुनिया में चौथा है।

इस सूचि में पाचवे स्थान पर ब्राज़ील, छठवें पर इंडोनेशिया, सातवें पर जापान, आठवें पर वेनेज़ुएला, नौवें स्थान पर जर्मनी और दसवें स्थान पर कनाडा है। अकेले अमेरिका, चीन, रूस, भारत और ब्राज़ील द्वारा सम्मिलित तौर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पूरी दुनिया को 6 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है, यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 11 प्रतिशत है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के लिए बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश मुख्य तौर पर जिम्मेदार हैं, पर अफसोस यह है कि जलवायु परिवर्तन से इन देशों में आर्थिक नुकसान कम होता है। इसका सबसे अधिक असर दुनिया के गरीब देशों पर होता है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन से अमेरिका, रूस, कनाडा और कुछ यूरोपीय देशों को आर्थिक लाभ हो रहा है क्योंकि पहले जो जगहें हमेशा बर्फ से ढकी रहती थीं, वहां अब जमीन है। इस जमीन का उपयोग खेती के लिए किया जाने लगा है। पहले बहुत ठंडक के कारण जिन इलाकों में आबादी नहीं रहती थी, वैसे बहुत से इलाके अब रहने लायक हो गए हैं। दुनिया के गरीब देश जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार नहीं हैं पर इसके प्रभाव् से सबसे अधिक संकट में इन्हीं देशों की आबादी है। इस अध्ययन में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि आर्थिक नुकसान के लिए केवल उन्ही पैमाने का उपयोग किया गया जिनका समावेश दुनियाभर में सकल घरेलू उत्पाद के आकलन के लिए किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि जलवायु परिवर्तन द्वारा जैव-विविधता का विनाश, सांस्कृतिक प्रभाव और प्राकृतिक आपदा के आर्थिक नुकसान का समावेश नहीं किया गया है। जाहिर है, इन कारकों का समावेश करने के बाद वैश्विक आर्थिक नुकसान का दायरा और बड़ा हो जाएगा।


अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया के गर्म देश पहले से अधिक गर्म होने लगे हैं, बाढ़ और चक्रवात का दायरा और आवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है और प्रशांत महासागर में स्थित देश बढ़ते सागर तल के कारण अपना अस्तित्व खो रहे हैं। गरीब देश लगातार जलवायु परिवर्तन के अन्तराष्ट्रीय अधिवेशनों में प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुकसान के आर्थिक भरपाई (Compensation for Loss & Damage) की बात अमीर देशों से करते हैं, पर बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश इसपर चुप्पी साध लेते हैं।

एडवांसेज इन एटमोस्फियरिक साइंसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वैश्विक स्तर पर चरम प्राकृतिक आपदाओं की संख्या, तीव्रता और आवृत्ति बढ़ती जा रहे है। इनमें से अनेक आपदाओं के बारे में वैज्ञानिक लगभग दो दशकों से सचेत कर रह हैं पर

अनेक आपदाएं या उनके प्रभाव वैज्ञानिकों को भी हैरान करती हैं। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन के अध्ययन में अभी बहुत कुछ वैज्ञानिकों को खोजना शेष है। पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिक बढ़ाते तापमान की चेतावनी दे रहे हैं पर फरवरी-मार्च के महीनों में ही दुनिया के तमाम क्षेत्रों में भीषण गर्मी से वैज्ञानिक भी हैरान हैं। इसी तरह बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का एक साथ लगभग सभी महादेशों में होना भी वैज्ञानिकों को चौका रहा है। इस अध्ययन में बताया गया है कि वैज्ञानिकों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर नए सिरे से अध्ययन करने की जरूरत है।

जलवायु परिवर्तन पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। दरअसल पूंजीवाद ही दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है, वास्तविक आपदा है। प्राकृतिक आपदाएं तो एक अंतराल के बाद आती हैं, पर पूंजीवाद द्वारा निर्मित आपदाएं तो जनता को लगातार परेशान करती हैं। पूंजीवाद ही सत्ता स्थापित करता है, इसलिए जनता परेशान रहेगी, मरती रहेगी, पूंजीवाद फलता-फूलता रहेगा और दुनिया अस्थिर ही रहेगी। जिस सामान्य स्थिति की हम कल्पना करते हैं, वैसी दुनिया अब कभी नहीं होगी।

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