बढ़ती सांप्रदायिक नफरत और सार्वजनिक जीवन के अपराधीकरण का नतीजा है किसी महिला से छेड़छाड़ का तमाशा बन जाना

जैसा हम अपने देश में देख सकते हैं, बेलगाम उपभोक्तावाद, धन का महिमामंडन और बेशरम शक्ति प्रदर्शन, या बाजार-सफलताओं ने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, लालच, बेईमान व्यवहार और पवित्र से पवित्र मूल्यों का बाजारीकरण कर दिया है।

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अरुण कमल

हो सकता है कि तब मैंने गली में एक युवती के साथ गुंडों के एक झुंड और भीड़ द्वारा दिनदहाड़े की गई छेड़छाड़ की उस तस्वीर को यह सोचकर नजरअंदाज कर दिया हो कि यह तो अकेली घटना है। लेकिन अब मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह तस्वीर मेरे जेहन में अपने समय के एक प्रतीक के तौर पर बस गई है। हालांकि वह बिहार की तस्वीर थी लेकिन ऐसा कहीं भी हो सकता है। बल्कि सच कहें तो ऐसी घटना देश के विभिन्न हिस्सों में लगभग रोजाना ही हो रही है।

वह कोई ऐसी अलग-थलग घटना नहीं जिसे अपनी याददाश्त से निकाल बाहर कर दिया जाए या पुलिस के कूड़ेदान में डाल दिया जाए। नहीं, बिल्कुल नहीं। यह हमारे बीमार समय को चित्रित करने वाला विशिष्ट लक्षण है और शायद तभी बता रहा था कि आने वाला समय कैसा रहने वाला है। जाहिर तौर पर यह एहसास अंदर तक झकझोर देने वाला है।

अमूमन रोजाना हमें ऐसी घटनाएं सुनने- देखने को मिलती हैं। जो अगर दर्ज हो भी गईं तो उनमें से ज्यादातर को भुला दिया जाता है और हमें यह जानने की इजाजत ही नहीं दी जाती कि बाद में उन गुंडों के साथ क्या हुआ। घटना के बाद क्या हुआ, इसकी परवाह कोई नहीं करता, यहां तक कि घटना और उसकी तस्वीर को प्रकाशित करने वाले अखबार भी नहीं।

यह सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं और न ही किसी क्षेत्र विशेष में होने वाली कोई इकलौती अपवादस्वरूप हो जाने वाली घटना। यह इस बात का संकेत है कि हम सड़ रहे हैं, हमारी सामाजिक और राजनीतिक संरचना सड़ रही है, हमारा देश सड़ रहा है। हम इस तरह मर चुके हैं कि एक महिला का पीछा कर उसके साथ छेड़छाड़ करने का जघन्य अपराध भी हमारे लिए तमाशा बन जाता है। और यह सब बुद्ध की धरती पर हो रहा है। कुछ अपराधी पकड़े जाते होंगे और उन्हें उनकी करनी की सजा भी मिलती होगी लेकिन दिक्कत की बात यह है कि इस तरह के वाकये लगातार हर जगह हो रहे हैं। आए दिन किसी-न-किसी बहाने किसी-न- किसी के साथ हैवानियत की जा रही है।

यह हमारे सामाजिक और नैतिक पतन का एक लक्षण है। यह हिंसा और आतंक का ऐसा चेहरा है जो न केवल पूरी निरंकुशता के साथ हमारे बीच मौजूद है बल्कि इसे अंजाम देने वाले अपराधी और उनके संरक्षक इस तरह की घटनाओं का ‘आनंद’ उठाते हैं। हर जगह यही हाल है। हाल ही में लखीमपुर खीरी में किसानों को कुचल दिया जाना भी उसी सोच का फल है। इंसानी खून में कोई अंतर नहीं होता। खून की प्यासी तलवार सभी को काटती है, उसे फर्क नहीं पड़ता कि किसी दोस्त का सिर गिर रहा है या दुश्मन का। और इसका पहला शिकार वही होता है जो सबसे कमजोर होता है। गली हो या घर का कोई कोना, इसका शिकार औरत ही होती है। पूरी दुनिया में नियोजित हिंसा की पहली शिकार हमेशा महिलाएं होती हैं।


हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन को अपमान, तिरस्कार और हत्याओं के जिस जटिल पैटर्न ने जकड़ रखा है, ये घटनाएं उसकी झलक मात्र हैं और इसका सबसे ज्यादा खामियाजा कमजोरों को उठाना पड़ता है। इसीलिए महिलाएं, बुजुर्ग और समाज कि दबे-कुचले वर्ग के लोग अधिक शिकार होते हैं। हमारी सोच इन सबके प्रति बेरहमी की हद तक क्रूर रही है।

पहले यह माना जाता था कि पूंजीवाद निर्देशित आधुनिकतावाद से नए मानवीय मूल्यों को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन आज हम पाते हैं कि पूंजीवाद या जिसे वे बाजार अर्थव्यवस्था कहते हैं, में हमारे समाज के पारंपरिक मूल्यों के लिए न कोई जगह है और न ही आदर भाव। पूंजीवाद ने ऐसा हिंसक और दुरूह समाज बना दिया है जिसमें सांप्रदायिक नफरत और सार्वजनिक जीवन के अपराधीकरण ने जड़ें जमा ली हैं। इससे बड़े पैमाने पर युवाओं में मूल्यहीनता आ रही है जो इस तरह की अफसोसनाक तस्वीरों और क्रीमी लेयर की नैतिक उदासीनता में दिखती है। यही वह हुड़दंगी युवा वर्ग है जो आम तौर पर विपक्ष का मुकाबला करने, मतदान के दौरान बूथ प्रबंधन और संगठित विरोध प्रदर्शन को तोड़ने में काम आता है। आज की राजनीतिक- आर्थिक व्यवस्था में ऐसे तत्वों की जरूरत हर क्षेत्र में होती है।

उपलब्ध अध्ययन से पता चलता है कि इटली और जर्मनी- दोनों में ही फासीवाद से पहले के दिनों में ऐसी भयानक घटनाएं बड़ी आम थीं। जैसा हम अपने देश में देख सकते हैं, बेलगाम उपभोक्तावाद, धन का महिमामंडन और बेशरम शक्ति प्रदर्शन, या बाजार-सफलताओं ने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, लालच, बेईमान व्यवहार और पवित्र से पवित्र मूल्यों का बाजारीकरण कर दिया है। समाज में आपकी जगह या हैसियत धनबल और बाहुबल से होती है। टेलीविजन, फिल्मों और सोशल मीडिया के जरिये आपके दिमाग में यह बात बैठाई जाती है कि हमारे आसपास कुछ भी अच्छा या पवित्र नहीं बचा। गुंडों और हत्यारों को नायक माना जाता है और वे राजनीति में अपनी जगह बना लेते हैं। वहीं, सभ्य-सुसंस्कृत टेक्नोक्रेट यह हिसाब-किताब लगाते रहते हैं कि कितनी आबादी कम हो जाए कि दुनिया टिकाऊ बन सके।


हम जिस तस्वीर की बात कर रहे हैं, वह एक खास मानसिक स्थिति का प्रतिबिंब है जिसे बड़ी मेहनत से बनाया जा रहा है। केवल क्रूर और पाशविक लोग ही शासन करते और इसके उपभोग से आनंद उठाते हैं। यही मानसिक अवस्था सभी अलोकतांत्रिक, सांप्रदायिक और दमनकारी शासनों को आधार प्रदान करती है। धरती के उस महान हिस्से पर एक महिला को अपमानित किया जा रहा है जहां महिलाओं को देवी के रूप में पूजा जाता है, और कोई भी इसका विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता!

लेकिन लोगों के भीतर गुस्सा और पीड़ा तो जरूर है। आखिरकार कोई अपनी जान जोखिम में डालकर आगे तो आता ही है। कोई तो होता है जो आवाज बुलंद करता है और मामले को दर्ज कराता है! यानी, पतन और नैतिकता के सबसे अंधेरे दौर में भी एक संभावित या वैकल्पिक चेतना जरूर होती है। गुंडागर्दी खत्म होगी। कमजोर और अच्छे लोगों की जीत होगी।

तब महिलाएं भी जीत जाएंगी।

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