मृणाल पांडे का लेख: आजादी, आजाद खयाली और चुप्पी के प्रदूषण से घुटता दम, इतना सन्नाटा क्यों है भाई!

क्या आपने कभी सोचा कि खुशी या गम के मौकों पर, जब नागरिकों को समाज की करीबी सबसे अधिक चाहिए, उस समय चुप्पी से भी दमघोंटू प्रदूषण फैलता है। शोले के अंधे पिता का बस एक वाक्य, ‘इतना सन्नाटा क्यूं है भाई?’ इसीलिए इतने दशकों के बाद भी मर्मवेधी बना हुआ है।

फोटो : Getty Images
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मृणाल पाण्डे

इस 15 अगस्त को देश के लोग दूर से लाल किले पर आजादी का पारंपरिक जश्न वर्चुअल तौर से मनाया जाता देखेंगे। किसी अप्रिय वारदात की आशंका से लाल किले की किलेबंदी कर दी गई है, और बताया जाता है कि अब वहां ‘परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा’ की स्थिति है। पर कुछ अतिविशिष्ट जन कुर्सियों पर सामने बैठे समारोह में भागीदारी करेंगे। काबीना सचिव ने जश्ने आजादी के समारोह में न्योते गए सभी आला अफसरों को कड़ाई से ताकीद कर दी है कि वे यथासमय मौके पर मौजूद हों। बड़े लोग जो करते हैं, शेष समाज उसका अनुसरण करता है। सख्ती, कड़ाई, ताकीद, निगरानी, कड़ी-से-कड़ी सजा जैसे शब्द हमारे मीडिया में भी लगातार बढ़ रहे हैं। और कोई भी खुशी का शुभ मौका हो तो उसके पहले सड़कों पर, धार्मिक स्थलों पर सुरक्षा बैरिकेड लगाना और समारोह खत्म होने के बाद, ‘देश ने अमुक जश्न बड़े उल्लास से मनाया और कहीं से किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं मिला’- यह विरोधाभासी फिकरा भी अनिवार्य तौर से जोड़ना एक रस्मी अनिवार्यता बन गए हैं। सुरक्षा के नाम पर नागरिकों की खुली आवाजाही पर, कहीं भी जमा होकर आपसी बातचीत करने, गले मिलकर जश्न की बधाइयां बांटने, हंसने-बोलने के हक पर ऐसी रोक का रस्म बन जाना एक लोकतंत्र के बारे में क्या कहता है?

अब तक हम ध्वनि प्रदूषण पर काफी कुछ जान चुके हैं। क्या आपने कभी सोचा कि खुशी या गम के मौकों पर, जब नागरिकों को समाज की करीबी सबसे अधिक चाहिए, उस समय चुप्पी से भी दमघोंटू प्रदूषण फैलता है। शोले के अंधे पिता का बस एक वाक्य, ‘इतना सन्नाटा क्यूं है भाई?’ इसीलिए इतने दशकों के बाद भी मर्मवेधी बना हुआ है।

अभिव्यक्ति की संवैधानिक आजादी पर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हमला कोई नई बात नहीं रह गई। नागरिकों, कम उम्र छात्रों और शिक्षा परिसर की कुछ गोष्ठियों में कुछ बेचैन करने वाले विषयों पर प्रत्याशित बहसों तथा कुछ बिन बुलाए आए अनजान लोगों की उकसाऊ नारेबाजी से कुछ साल पहले सरकार अचानक इतना उखड़ गई कि परिसर पुलिस की छावनी बनगए। युवा शिष्यों को मानवाधिकार, संविधान तथा लोकतंत्र का सही मतलब खोलकर समझाते आए कई शिक्षकों तक को संदिग्ध राष्ट्रद्रोही मान लिया गया। कई लोग जेल भेजे गए। अधिकतर के खिलाफ ठोस साक्ष्य नहीं मिलने पर उनको रिहा तो किया गया लेकिन परिसरों में अपने दल के छात्रों के गढ़ों में राजनीतिक मोर्चे खोलकर नए सरदर्द उपजाने की प्रथा शुरू हो गई और छात्र संगठनों के चुनाव आम चुनावों की तरह खर्चीले तथा मरने-मारने का विषय बनने लगे। एक लोकतंत्र में उच्च शिक्षा के जाने-माने परिसरों में वर्षों से होती आई राजनीतिक बहसों को लेकर ऐसी असहिष्णुता अजीब है। क्योंकि आज सत्ता के प्रतिष्ठानों में बैठे कई नेताओं ने खुद परिसरों में छात्र नेता के रूप में पहचान बनाकर अपने राजनीतिक करियर को परवान चढ़ाया है।


विश्व के कई चर्चित भारतीय मूल के आईटी उपक्रमी, राजनेता और ताजा ओलंपिक नतीजे युवा शक्ति के बढ़ते महत्व को रेखांकित कर रहे हैं। ये सभी एक लोकतंत्र की खुली हवा में जनमे और जवान हुए हैं। ऐसी पीढ़ी के हर उफान से ही हमारे लोकतंत्र में कुछ नई तरह की आजाद खयालियां और जनमंचों पर बहस तलबी तथा सूचना के आदान-प्रदान के नए तरीके सामने आएंगे, और आ भी रहे हैं। उनकी रची, उनके द्वारा बड़े पैमाने पर संचालित नई तकनीकी दुनिया भर में जन-बहसों को अतिरिक्त धार तथा श्रोता-दर्शक मुहैया करा रही है। पहले जब डिजिटल मंच नहीं थे तब राजनीतिक दलों का अपनी-अपनी चुनावी रैलियों के लिए बस और वाहन भेजकर भीड़ जुटाना चुनाव का सहज स्वीकार्य अंग माना जाता था। फिर क्या वजह है कि अपने डिजिटल मंचों पर (जो चुनाव काल में टेकीज का समांतर घर बन जाता है), वैचारिक बहस के लिए विभिन्न विचारधारा वाले लोगों को आमंत्रित करने का लोकतांत्रिक महत्व समझने की बजाय उसकी मुश्कें बांध कर चाभी उच्च पदस्थ उम्र दराज सरकारी बाबुओं को थमा दी जाए जिनमें से अधिकतर के दफ्तर में सारा तकनीकी सूचना संचार का काम उनके बड़े-छोटे बाबुओं की फौज ही करती है।

हर नई तकनीकी हमेशा अनेक तरह की संभावनाएं (जिनमें उसके गलत-सलत इस्तेमाल की संभावनाएं भी शामिल हैं) लेकर ही आती है। ट्रेनें, कारें आईं तो नई तरह की यातायात दुर्घटनाएं और तोड़-फोड़, चक्का जाम लाईं। घरों में बिजली, पानी आने लगे तो साथ-साथ बिजली-पानी की चोरी चालू हुई। नई सूचना तकनीकी ही अपवाद कैसे हो? संसदीय बहसों के पार संख्या बल के बूते बिल पारित कराना या मीडिया की अभिव्यक्ति पर सेंसरशिप बड़े बहुमत वाली हर सरकार को आगे जाकर सही जानकारियों से काट देते हैं जिससे उसे ही बड़ा नुकसान होता है। किसी दल या नेता की आलोचना से पूरे गुट की आहत भावनाओं को जोड़ना, कला की सहज राह अवरुद्ध करता है। और उच्च शिक्षा के बहुत मेहनत और अध्यवसाय से उत्कृष्ट बनाए गए केंद्रों में वरिष्ठ पदों पर वैचारिक तौर से अस्वीकार्य मानकर नोबेल विजेताओं तक को हटा कर राजनीतिक आग्रहों के तहत नियुक्तियां करना बाहर तो किरकिरी कराता ही है, परिसरों से प्रतिभा पलायन की राहें भी खोल देता है। अच्छे वरिष्ठ शिक्षकों, प्रतिभाशाली छात्रों का तरह-तरह से अवमूल्यन तमाम जाने-माने आईआईटी तथा आईआईएम सरीखे संस्थानों में फैकल्टी में अपूर्णीय रिक्तियां भी बनवा रहा है जो परिसरों के लोकतंत्र और उच्च शिक्षा, दोनों के लिए घातक है।

हमारी राय में अभी भी जिम्मेदार नेताओं के लिए शैक्षिक परिसरों के सर्वसम्मानित लोगों की मध्यस्थता से सभी आयु वर्गों में बने शक का माहौल मिटाना संभव है। पर छात्र-शिक्षक हों कि धरने पर बैठे किसान, उनके साथ भरोसामंदी की बहाली के लिए सत्ता के शीर्ष से सीधा संवाद और उसका सार्वजनिक प्रसारण जरूरी है। बातचीत के बजाय दमनकारिता अपनाने से तो चुप्पी का प्रदूषण खौफ और शक को गहराता ही है, कम नहीं करता।


लोकतांत्रिक देशों में संविधान हर नागरिक को अपनी आपत्ति अभिव्यक्त करने का हक देता है। इसलिए दुतरफा जनसंवाद और इंटरनेट को बहुमूल्य मंच मिलना चाहिए ताकि सड़क की बजाय वार्ताकक्ष में उस तेजाबी गुस्से का विरेचन हो, जिसे उभरने दिया गया तो वह फट कर भारी तोड़-फोड़ करता है। सोवियत संघ के बखिये जिस तेजी से उधड़े, ट्रंप, बोल्सानेरो और एर्डोगान का पतन इसके सबूत हैं।

एक युवा बहुल और जीवंत लोकतंत्र में राष्ट्रीय मसलों पर सवाल पूछने, जवाब मांगने की बजाय सार्वजनिक चुप्पी का आलम अनुशासित देश का नहीं, जनता के भीतर आ गई अस्वाभाविक मानसिकता और पतनशीलता का संकेत है।

स्वरों की ही तरह शब्द भी जनता और नेता को आपस में जोड़ते हैं। और सुंदर शब्द योजना, एक सुंदर स्वर योजना की तरह ही जनमन तथा आत्मा कितने ही जड़ क्यों नबन चुके हों उनको भीतर तक आंदोलित करती है। अगर बापू का ‘भारत छोड़ो’, ‘करो या मरो’ जैसे जन आह्वानऔर जेपी का नवनिर्माण आंदोलन सफल हुए, वह इसीलिए कि उन्होंने एकजुट होकर बोलने और मन की बात कहने का बल दिया। राष्ट्रीय भय से बनी चुप्पी का ताला तोड़ा। ताला टूटते ही तमाम खतरों के बावजूद देश की आबाल वृद्ध जनता उनसे ऐसे आ जुड़ी जैसे बिछड़ा बछड़ा भाग कर अपनी मां के थन से जुड़ जाता है। हमारे बहुप्रशंसित उच्च शिक्षा परिसर और लोकतांत्रिक मीडिया संस्थान कई दशकों के कठोर त्याग तथा श्रम से बने हैं। हो-हल्लेबाज दमन से तो हासिल कुछ नहीं होता। अलबत्ता कुछ धंधई निठल्लों और फितूरियों को नाहक एक तरह की सम्मानजनक शहीदी मिल जाएगी।

बापू और जेपी के भारत में आज भी लोकतांत्रिक आजादी का असली मतलब होगा कि चुप्पी पर लगी हर अर्गला हटे। सोशल साइट्स और वैचारिकता पर अंतर्कालेजिया बहसों को रोकने के लिए अतिरिक्त कानूनन लाए जाएं।

अगर हमारे नेता सोशल नेटवर्क के औसत पाठक की उम्र को देख कर उनके खिझाने वाले वक्तव्यों से नाहक भड़कना बंद कर दें, तो वे हमारे युवा बहुल लोकतंत्र में पीढ़ियों के बीच खड़े कई अपरिचल के विंध्यांचल सहजता से ढहा सकते हैं। जनजमावड़ों का इतिहास सदियों पुराना है और अथर्व वेद तक जाता है, जब मंत्रदृष्टा ॠषियों ने ब्रह्म से पूछा था, हमारे बाद जनता भला-बुरा कैसे तय करेगी? उत्तर मिला, आने वाले समय में एक जैसे ज्ञान का स्तर रखने वाले लोग एक साथ बैठकर वैचारिक मंथन और प्रश्नोत्तरी से जो सर्वसम्मत मार्ग निकालेंगे, वही सबके लिए उचित होगा।

अगर अपने तर्कों के ऊपर भरोसा है तो यथार्थ से पलायन कैसा?

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