2014 के बाद का भारत: दूसरे दर्जे के लोकतंत्र में हो रही तीसरे दर्जे की राजनीति 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी ने देश के मौजूदा माहौल में जैसा जहर घोला है, राजनीतिक मतभेद जिस अतिरंजना से पेश किए जा रहे हैं, उसने सार्वजनिक जीवन में प्रचलित सौहार्द के सारे प्रतिमान ध्वस्त कर दिए हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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उत्तम सेनगुप्ता

तो क्या इस खौफनाक दौर में किसी को सभ्य-सुसंस्कृत होने-दिखने के लिए हिम्मती या कुटिल होना होगा! इस सप्ताह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि सदैव अटल पर राहुल गांधी के जाने पर दिखी प्रतिक्रियाओं के दो चरम सिरे तो यही कहते हैं। प्रशंसकों ने जहां इस फैसले को परिपक्व सोच और भविष्योन्मुखी कहकर सराहना की, वहीं भाजपाई आलोचकों को इसमें निचले दर्जे की चालाकी दिखी और वे इसे ‘नाटक’ कहते, हंसी उड़ाकर खरिज करते दिखे। यहां तक कि ऐतिहासिक भारत जोड़ो यात्रा को अब तक नजरंदाज करने वाले राष्ट्रीय राजधानी के अखबारों ने भी अटल समाधि पर हाथ जोड़, श्रद्धा में नतमस्तक खड़े राहुल गांधी की फोटो पहले पन्ने पर प्रकाशित किए तो तय करना मुश्किल हो रहा था कि बीते साढ़े तीन महीने में राहुल गांधी के साथ जुटती और कदम से कदम मिलाकर चलती अपार भीड़ को नजरअंदाज करने वाले अखबार इस भाव को महान राजनीतिक और समकालीन महत्व के लम्हों के रूप में स्वीकार कर रहे हैं या इस फोटो को छापने के पीछे उनका उपहास उड़ाना मकसद है। दरअसल नफरत और अविश्वास पर टिकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की आपसी घृणा और नापसंदगी इतनी गहरी हो चुकी है कि अब कहीं भी, कुछ भी सीधा और सरल नहीं दिखता। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की लंबी पैदल यात्रा पर निकले कांग्रेस सांसद ने क्रिसमस से एक दिन पूर्व ही 7 सितंबर से राष्ट्रीय राजधानी पहुंचने के लिए 2,900 किलोमीटर की पैदल यात्रा पूरी की है। अगले सप्ताह कश्मीर के अपने अंतिम चरण के लिए फिर से शुरू होने वाली यह यात्रा हमारी राजनीति, हमारी प्राथमिकताएं पुनर्परिभाषित करने से पहले ही किसी महाकाव्य सरीखी बन चुकी  है। 

यह भारत जोड़ो यात्रा की उसी भावना के अनुकूल था जो मानता है कि देश को एकजुट रखने की खातिर नफरत और कड़वाहट को खत्म करना पहला कदम होना चाहिए, कि राहुल गांधी ने राजघाट और अन्य समाधियों, पूर्व प्रधानमंत्रियों के स्मारकों पर जाकर सम्मान प्रदर्शन का फैसला किया। दरअसल ऐसे प्रतीकात्मक और स्वाभाविक भाव ही तो हमारे ध्रुवीकृत राजनय और बहुरंगी राजनीति की पहचान हैं- आखिरकार तो राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी संसद में और संसद के बाहर दिवंगत नेताओं की याद और उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए एक साथ आते ही हैं। अब यह सोचने की बात है कि इसे अपार साहस के रूप में देखा जाए या घटिया चतुराई भरी चाल के तौर पर। 


अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ा वह वाकया बहुत चर्चित है जब उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि अपने जीवन के लिए वह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के ऋणी हैं। सर्वविदित है कि बीजेपी के संस्थापक सदस्य अटल बिहारी वाजपेयी को किडनी की बीमारी के लिए विदेश में इलाज की सलाह दी गई थी। राजीव गांधी को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र के लिए भारतीय आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनने पर जोर दिया ताकि वह सरकार के खर्च पर विदेश में इलाज कराने के अवसर का इस्तेमाल कर सकें। यह किस्सा अटल जी ने स्वयं साझा किया था और इसका उल्लेख ‘अनटोल्ड वाजपेयी: पॉलिटिक्स एंड पैराडॉक्स’ पुस्तक में भी है। गौरतलब है कि अटल जी 1984 में अपने गृहनगर ग्वालियर की लोकसभा सीट कांग्रेस प्रत्याशी माधवराव सिंधिया से हार गए थे लेकिन गलाकाट चुनावी राजनीति सद्भावना के आड़े नहीं आई। न तो राजीव गांधी और न ही कांग्रेस ने एक आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में वाजपेयी की विदेश यात्रा से कोई राजनीतिक लाभ लेने की कभी कोशिश की। आज के विषाक्त दौर में तो इसे बड़ी आसानी से ‘मेडिकल टूरिज़्म’ कह दिया जाएगा; और भूलना नहीं चाहिए कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समान रूप से प्रसिद्ध यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी पर झूठा आरोप लगाने से बाज नहीं आए थे कि उन्होंने विदेश में इलाज के नाम पर भारी भरकम सार्वजनिक राशि उड़ाई है जो बाद में निराधार निकला। निश्चित तौर पर वाजपेयी इसके विपरीत शालीन थे। हालांकि वह पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी- दोनों के ही कटु आलोचक थे। 1977 में जब वह जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री बने तो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर संसद की दीवार से गायब देखी जो कभी खुद भी विदेश मंत्री रह चुके थे। उन्होंने नेहरू की फोटो तत्काल वापस लगाने का आदेश दिया। यह बहुत उल्लेखनीय कदम था क्योंकि यह उस आपातकाल के बाद हुआ था जब वाजपेयी अन्य विपक्षी नेताओं के साथ जेल में डाल दिए गए थे। यह एक अलग दौर की बात है जब राजनेता आपस में घोर असहमत होते हुए भी अप्रिय और क्रूर असहमतियों की हद तक नहीं जाते थे। 

राजनीतिक मतभेद और असहमतियां नेताजी सुभाष चंद्र बोस को आईएनए (इंडियन नेशनल आर्मी) ब्रिगेड का गांधी और नेहरू के नाम पर नामकरण करने से नहीं रोक सकीं। हिटलर और मुसोलिनी के साथ नेताजी के ‘रिश्तों’ को गांधी और नेहरू ने कभी स्वीकृति नहीं दी लेकिन इसने नेताजी को भारत छोड़ो आंदोलन को अपना समर्थन देने से तो नहीं रोक दिया। बर्लिन से संदेश देते हुए उन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को ‘अहिंसक गुरिल्ला युद्ध’ बताया था। कांग्रेस में ‘वामपंथी’ बोस ने गांधी की अवज्ञा भले की लेकिन उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ और कस्तूरबा को ‘भारतीयों की मां’ कहने वाले प्रथम व्यक्ति वही थे। गांधी, नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आजाद के बीच मतभेद थे लेकिन समान उद्देश्य के लिए काम करने वाले नेताओं की राह में वे कभी बाधक नहीं बने। ब्रिटिश शासकों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं के बीच रिश्तों में उनका असाधारण पारस्परिक सम्मान हमेशा परिलक्षित होता रहा। इसने नेताओं को ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आह्वान और अत्याचारों का विरोध करने से कभी नहीं रोका और न ही ब्रिटिश साम्राज्य ने स्वतंत्रता संग्राम के दमन के लिए नेताओं को लंबे समय तक कैद में रखने के मामले में कोई ढील बरती। लूट और बर्बादी, क्रूरता और दमन के बावजूद भारतीय नेता उन उत्पीड़कों के साथ एक नागरिक संवाद बनाए रख सकते थे। समायोजन और सहमेल की यह परंपरा आजादी बाद भी दिखी जब नेहरू के नेतृत्व वाले प्रथम मंत्रालय में मुखर आलोचक डॉ आम्बेडकर ही नहीं, आरएसएस और जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे लोग भी मंत्री बने। यह तब भी परिलक्षित हुआ जब इंदिरा गांधी ने 1970 के दशक में इंदर कुमार गुजराल को मास्को में भारत का राजदूत नियुक्त किया और बाद में जनता पार्टी की सरकार और फिर मोरारजी देसाई के बाद चौधरी चरण सिंह ने भी उन्हें राजदूत बनाए रखा। गुजराल 1980 में इंदिरा गांधी के फिर प्रधानमंत्री के रूप में लौटने तक उसी पद पर थे।


जिस देश में सभ्यता को कायरता और कमजोरी के रूप में देखा जाने लगा हो, वहां राजनीति को पतन के गर्त में जाने से रोकना निस्संदेह मुश्किल होता जा रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी ने देश के मौजूदा माहौल में जैसा जहर घोला है, उसे आंकना आसान नहीं है। नेहरू और नेहरू-गांधी परिवार के बारे में मनगढ़ंत कहानियां, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ कभी न मिट पाने वाले घटिया अभियानों के रूप में राजनीतिक मतभेद जिस अतिरंजना से पेश किए जा रहे हैं, ट्रोलिंग का जैसा खाद-पानी उन्हें दिया जा रहा है, उसने भविष्य के किसी संवाद या चर्चा के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी है। बीजेपी की अजीबोगरीब राजनीति ने देश को जिस तरह ‘हम और उनके’ के बीच बांट दिया है, बीजेपी के आलोचकों को जिस तरह देशद्रोही, राष्ट्रविरोधी और भ्रष्ट साबित किया जा रहा है, उसने सार्वजनिक जीवन में प्रचलित सौहार्द के सारे प्रतिमान ध्वस्त कर दिए हैं। सच तो यह है कि इसने विपक्ष के पास विकल्प ही नहीं छोड़े हैं या बहुत सीमित कर दिए हैं। वे या तो खामोश रहकर गालियां और अपमान सुनते-सहते रह सकते हैं, या शालीनता से जवाब देकर निरीह और परास्त लोगों जैसे दिख सकते हैं। ऐसे हालात में यह जहरीली और कुत्सित राजनीति हमारे लोकतंत्र को खोखला कर रही है। दिवंगत विधिवेत्ता नानी पालखीवाला ने भारत को ‘प्रथम श्रेणी के संविधान के साथ दूसरे दर्जे का लोकतंत्र’ कहकर व्याख्यायित किया था। आज यदि वह जीवित होते तो शायद वह ‘और तीसरे दर्जे की राजनीति’ कहकर इसे आगे बढ़ाते। अब हम जब हम बीतते साल को याद करते हुए नए साल की शुरुआत कर रहे हैं, तो हमारे एजेंडे, हमारी इच्छा सूची में ‘प्रथम श्रेणी’, और कहीं ज्यादा जिम्मेदार राजनीति की पुनर्वापसी शीर्ष प्राथमिकताओं में होनी चाहिए।

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