आकार पटेल का लेख: सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के विपरीत सिरों से एक दूसरे की तरफ बढ़ते पाकिस्तान और भारत

भारत और पाकिस्तान में कोई फर्क नहीं रह गया है, दोनों एक दूसरे की तरफ विपरीत दिशाओं से बढ़ रहे हैं। एक ने सांप्रदायिकता का रास्ता छोड़कर धर्मनिरपेक्षता का पथ चुना है तो दूसरे ने धर्मनिरपेक्षता की राह छोड़ सांप्रदायिकता के रास्ते पर आगे बढ़ना शुरु किया है।

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आकार पटेल

मेरी कॉलम राइटिंग यानी लेख लिखने का शुरुआती दौर कई वर्षों तक पाकिस्तान के अखबारों के लिए था। मैंने कई बार पाकिस्तान का दौरा किया, वहां के विश्वविद्यालयों और लिटरेचर फेस्टिवल्स में भाषण दिए और बीते तीन दशकों के दौरान मैंने उस मुल्क को नजदीक से अध्ययन के माध्यम से देखा और समझा।

मेरे लिए हैरानी की बात यह है कि जहां भारत लगातार धर्मनिरपेक्षता से दूर और हिंदुत्व शैली की सरकार की तरफ बढ़ रहा है, वहीं पाकिस्तान दूसरी दिशा में जाने की कोशिश कर रहा यानी धर्म से दूर होने की जद्दोजहद में है।

1947 में, पाकिस्तान संवैधानिक रूप से एक धार्मिक देश बनना चाहता था। जिन्ना के उत्तराधिकारी के तौर पर लियाकत अली खान का मानना था कि धर्म का कानून और सरकार में एकीकरण मुल्क को एक एक सकारात्मक प्रेरणा देगा। जापान पर परमाणु बम गिराए जाने के कुछ साल बाद ही लियाकत ने कहा था कि इंसानियत यानी मानवता के भौतिक और वैज्ञानिक विकास ने इंसान के विकास से आगे छलांग लगा दी है। इसका नतीजा यह हुआ कि मनुष्य ऐसे आविष्कार करने में सक्षम हो गया जो दुनिया और समाज को नष्ट कर सकते हैं। यह सिर्फ इसलिए हुआ था क्योंकि इंसान ने अपने आध्यात्मिक पक्ष की अनदेखी कर दी थी और अगर उसने अल्लाह (ईश्वर) में अधिक विश्वास बनाए रखा होता, तो यह समस्या नहीं आती।

लियाकत को लगता था कि धर्म से विज्ञान के खतरे कम हुए हैं और मुसलमान के तौर पर पाकिस्तानी नागरिक इस्लामी आदर्शों का पालन करेंगे और दुनिया भर में अपना योगदान देंगे। लियाकत ने कहा था कि मुसलमानों के इस्लामी तौर-तरीकों से जिंदगी गुजारने से गैर-मुस्लिमों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इसलिए उन्हें इसे लेकर कोई समस्या नहीं होनी चाहिए।

मुस्लिम लीग की यही मंशा थी, लेकिन जो कुछ वह एकदम अलग था। सारा फोकस मुसलमानों से हटकर गैर-मुस्लिमों पर आ गया। पाकिस्तान ने संवैधानिक तौर पर गैर-मुस्लिमों के देश का राष्ट्रपति (1060 के दशक में) और प्रधानमंत्री (1970 के दशक में) बनने पर पाबंदी लगादी। इस बीच पाकिस्तान में मुसलमानों को लेकर बने कानून वक्त के साथ बेकार होते गए। मसलन रमजान में रोजा (उपवास) रखने का कानून बेकार ही साबित हुआ क्योंकि वैसे भी उपमहाद्वीप के अधिकांश मुसलमान रमजान में रोजे रखते ही है। इसके साथ ही रेस्त्रां मालिकों और सिनेमाघर चलाने वालों ने भी इसका विरोध किया।

जकात को लेकर लागू किया गया कानून की सभी सुन्नी मुसलमानों के बैंक खातों से हर साल 2.5 फीसदी पैसा काट लिया जाएगा, वहा भी नाकाम हो गया क्योंकि लोग जकात का वक्त आने से पहले ही अपने सारे पैसे बैंक से निकालने लगे। इस कानून को लेकर शियाओं ने एतराज जताया था कि वे तो हर साल अपना पैसा सर्वोच्च नेता को भेजते हैं, तो उन्हें इस कानून से छूट मिल गई थी।


पाकिस्तान में भी वहीं दंड संहिता यानी हमारे यहां की आईपीसी जैसी धाराएं हैं। वहां के लोग भी 302, 420 और 144 जैसी धाराओं से बखूबी वाकिफ हैं। इस मामले में भी कानून बदलने की कोशिश की गई। इस्लाम की शुरआत में कोई जेल वगैरह तो होती नहीं थी और आम तौर पर किसी भी अपराध के लिए हिरासत में लेने या गिरफ्तार करने के बजाए सीधे सजा दी जाती थी। 1980 के दशक में पाकिस्तान ने कानून लागू किया कि अगर कोई चोरी करते हुए पकड़ा जाएगा तो उसके हाथ काट दिए जाएंगे। इसके लिए डॉक्टरों को ट्रेनिंग भी दी गई। लेकिन डॉक्टर तो खुद ही बहुत डरे हुए थे। इतना ही नहीं भारत जैसे कॉमन लॉ में प्रशिक्षित जजों ने भी ऐसा कोई फैसला कभी जारी ही नहीं किया। इस तरह यह कानून भी वक्त की तह में दफ्न हो गया। इसी तरह विवाहेत्तर संबंध रखने पर संगसार (यानी पत्थर मारकर जान लेने) का कानून बनाया गया। लेकिन आज तक किसी को संगसार नहीं किया गया है।

1980 के दशक में ही एक कानून बना था कि जो कोई भी शराब पिएगा उसे कोड़े मारे जाएंगे। लेकिन वह भी खत्म हो गया। 2009 में पाकिस्तान के फेडरल शरीयत कोर्ट ने शराब पीने को अपराध की श्रेणी से हटा दिया और कहा कि यह कोई गंभीर अपराध नहीं है। परवेज मुशर्रफ के दौर में बलात्कार और विवाहेत्तर संबंधों वाले कानून की वापसी तो हुई, लेकिन इसमें शर्त जोड़ दी गई कि अगर पीड़ित सबूत नहीं पेश करे तो इसे दूसरे तरीके से समझा जाए। इसी तरह शरीयत कोर्ट ने बैंकों के ब्याज देने पर पाबंदी की मांग की थी लेकिन इसे भी नजरंदाज कर दिया गया क्योंकि इससे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का कबाड़ा हो जाता।

पाकिस्तान के इस्लामीकरण की आखिरी कोशिश दो दशक पहले नवाज शरीफ के दौर में हुई थी। कथित 15वें संशोधन (जो संसद से पास नहीं हो सका था) के जरिए कुछ कट्टर कानून लाने की कोशिश थी। कुल मिलाकर पाकिस्तान आधा-अधूरा ही इस्लामी देश है और ईरान में भी चूंकि कोई ऐसा सर्वोच्च धार्मिक नेता नहीं है तो वहां भी इस्लामी कानूनों का कोई अर्थ नहीं है। सऊदी अरब में जिस तरह से नैतिक पुलिस है पाकिस्तान में ऐसा कुछ नहीं है क्योंकि पाकिस्तानी भी तो सांस्कृतिक रूप से दक्षिण एशियाई ही हैं, जो स्थानीय परंपराएं मानते हैं।

इस तरह देखें तो पाकिस्तान धर्मनिरपेक्ष होने की कोशिश कर रहा है, वहीं भारत ने इसके विपरीत रास्ता चुना है। हां भारत एक दावा कर सकता है कि उसने पाकिस्तान की तरह किसी उच्च पद पर (राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसे पद) मुस्लिमों के आसीन होने पर संवैधानिक पाबंदी नहीं लगाई है। वैसे भी भारत में राष्ट्रपति का पद तो सिर्फ दिखावे का ही होता है क्योंकि पाकिस्तान की तरह भारत का राष्ट्रपति अपनी मर्जी से संसद भंग नहीं कर सकता, जैसा कि पाकिस्तान में होता रहा है। लेकिन फिर भी देखना रोचक होगा कि भारत में कितने मुसलमान उच्च पदों तक पहुंचते हैं।


आज की बात करें तो 1947 में भारत की आजादी के बाद पहला ऐसा मौका है जब देश के किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री मुसलमान नहीं है। 15 राज्यों के मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है और 10 राज्यों में नाम का सिर्फ एक मुस्लिम मंत्री है जिसे अल्पसंख्यक मामलों का प्रभार दिया गया है। सत्तारूढ़ बीजेपी के 303 लोकसभा सांसदों में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है, वैसे पिछली लोकसभा में भी उसके 282 सांसदों में भी कोई मुस्लिम सांसद नहीं था। अब चूंकि मुख्तार अब्बास नकवी को राज्यसभा का टिकट नहीं मिला है तो कुछ महीने बाद मौजूदा केंद्र सरकार में भी कोई मुस्लिम मंत्री नहीं रहेगा। अब पाकिस्तान की तरह कानून बनाकर अल्पसंख्यकों को सिस्टम से बाहर कर दो या फिर भारत की तरह अपने तौरतरीकों से अल्पसंख्यकों को सिस्टम से बाहर कर दिया जाए, लेकिन अल्पसंख्यकों की अनदेखी वास्तविक है।

कानूनों के नजरिए से देखें तो निश्चित रूप से भारत बहुलवाद से काफी दूर चला गया है। 2015 की शुरुआत से ही बीजेपी शासित राज्यों में गोमांस रखने को अपराध बनाने का काम शुरु हो गया और जिसके नतीजे में बीफ लिंचिंग की एक तर से श्रृंखला शुरू हो गई थी।

2019 में संसद ने एक बार में तीन तलाक कहने को अपराध घोषित कर दिया यानी ऐसा करने वाले पुरुषों को सजा दी जाएगा, लेकिन इसके कोई मायने नहीं थे क्योंकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही एक बार में तीन तलाक कहने को अवैध घोषित कर चुका था। 2018 के बाद से बीजेपी शासित 7 राज्यों ने अंतरधार्मिक विवाहों को अवैध घोषित कर दिया और धर्म परिवर्तन पर पाबंदी लगा दी। इनमें ऐसे दंपति भी थे जिनके बच्चे भी हो चुके थे। लेकिन किसी अन्य धर्म से हिंदू धर्म में परिवर्तन को प्रोत्साहित किया गया। ऐसा मध्य प्रदेश और उत्तराखंड में किया गया। वैसे अभी तक किसी को भी भारत में जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करने के मामले में सजा नहीं दी गई है, इसलिए माना जा सकता है इन कानूनों की जरूरत तो नहीं थी सिर्फ अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए ऐसा किया गया।

2019 में गुजरात ने एक ऐसा कानून बना दिया कि मुस्लिम किसी भी इलाके में बड़ी संख्या में न बस सके, और इस तरह उन्हें हिंदुओं से संपत्ति खरीदने या किराए पर मिलने में पाबंदी लगा दी। स्थिति यह है कि वहां विदेशी तो संपत्ति खरीद भी सकते हैं या किराए पर ले सकते हैं लेकिन गुजरात में गुजराती मुस्लिम ऐसा नहीं कर सकते। कश्मीरियों की तो बात ही क्या करें क्योंकि उन्हें तो सामूहिक तौर पर सजा दी जा रही है और अब तो उसकी कोई बात भी नहीं करता।

असल में बात यह है कि भारत और पाकिस्तान में कोई फर्क नहीं रह गया है, दोनों एक दूसरे की तरफ विपरीत दिशाओं से बढ़ रहे हैं। एक ने सांप्रदायिकता का रास्ता छोड़कर धर्मनिरपेक्षता का पथ चुना है तो दूसरे ने धर्मनिरपेक्षता की राह छोड़ सांप्रदायिकता के रास्ते पर आगे बढ़ना शुरु किया है।

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