मृणाल पाण्डे का लेखः इंडिया दुखी है कि विदेश यात्रा नहीं कर सकता, गरीब भूखे तिलचट्टों की तरह पैदल भटक रहे हैं

सामाजिक तौर से संपन्न बनते इंडिया और लगभग 19वीं सदी में जीने वाले हिंदुस्तनवा के बीच का द्वैत कायम है। तनख्वाहें खत्म, मालिकान तालाबंदी का हवाला देकर खुद अपने लिए राहत पैकेज मांग रहे हैं। ऐसे समय में हिंदुस्तनवा के गरीब बीमारों की कौन फरियाद सुने?

रेखाचित्रः अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

जब धरती की सतह पर अचानक कोई बड़ा भूकंप आता है, तो हालात संभलने पर समझदार लोग भूकंप की वजह और संभव निदान खोजने के लिए तांत्रिकों, ओझाओं के पास नहीं जाते। वे वैज्ञानिकों और भूगर्भ विज्ञानियों की तरफ रुख करते हैं, ताकि वे जमीन की कोख में छुपी लाखों साल पुरानी दरारों और उनमें अचानक हुई उस भीषण ऊर्जा के सतह पर बम की तरह फटने की असली वजह जान सकें।

कोविड की महामारी भी एक भूकंप की ही तरह है। तबाही की कोख से जो उफनता लावा बह रहा है, वह दुनिया के देशों की सीमाओं, विश्व राजनय और विश्वयुद्ध के बाद बने संस्थानों का रूपाकार भी देर-सबेर बहुत हद तक बदल देगा। अचानक अफवाहों की बाढ़ आ गई है कि वुहान से छूटा कोविड का विषाणु चीन के द्वारा जान बूझकर बनाया और शेष दुनिया की अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए छोड़ा गया। अमेरिकी राष्ट्रपति जो वैसे भी मिठबोलेपन के लिए विख्यात नहीं हैं, इसे लगातार चीनी वायरस कह रहे हैं। भारत में भी यह मानने वाले कई हैं।

इस बिंदु पर हम अपने दामन में भी तनिक झांक लें तो हर्ज नहीं। पिछले आधे दशक से देश के वातावरण में सांप्रदायिक सद्भावना लगातार कम होती गई है। ऐतिहासिक वजहों से इस उपमहाद्वीप में हिंदू और मुसलमानों के मनों में शक और क्रोध की कई दरारें मौजूद रही हैं। अंग्रेजों ने सायास उस दरार को गहराया और उनके ही समय में पहली बार लोकल मुद्दों पर अलग जातीय गुटों के बीच टकराव को कम्यूनल, यानी सांप्रदायिक नाम देकर बाकायदा सारे भारत की राजनीतिक शब्दावली का हिस्सा बना दिया।

अंग्रेजी हुकूमत ने भारत के लिए गहरे रंगभेदी आधारों पर अपने हित स्वार्थ के तहत एक ऐसी प्रशासकीय और कानूनी मशीनरी रची जिसने नटिेव और गोरे लोगों के बीच हर स्तर पर फर्क कायम किया। महामारी की रोकथाम के नाम पर आपदा प्रबंधन विशेष कानून के तहत प्रशासकों को जो तरह-तरह के कर्फ्यू और नागरिकों की धरपकड़ और उनको जेल भेजने के विशेषाधिकार दिए गए हैं, मीडिया या छात्र संगठनों की देशद्रोह कानून के तहत धरपकड़, सबकी नींव में ब्रिटिश संप्रभुओं के बनाए खास कानून हैं।

इन्हीं नियम कानूनों के प्रताप से 1947 के बाद भी हिंदुस्तान में वे दो समांतर दुनियाएं बनी रहीं जिनको हम इंडिया और (शेष भारत) या हिंदुस्तनवा कह सकते हैं। कोविड की रोकथाम के तरीकों और हस्पतालों, शहरों तथा संदिग्ध इलाकों में नागरिकों के घर सील करने के बाद उस पर गोदी मीडिया, सोशल मीडिया की अफवाहों और प्रशासकीय कार्रवाइयों पर नजर डालें तो वही अंग्रेजी जमाने की सिविल लाइंस/लुटियन्स डेल्ही और सदर बाजार, कटरोंवाली बसासतें जहां मध्य वर्ग, निम्न मध्य वर्ग और किराए की कोठरियों के मजदूर दिखते हैं।

उनके परे टीन टप्पर की अवैध झुग्गियां हैं जो घुमंतू गरीबों का ठिकाना हैं। आर्थिक सामाजिक तौर से संपन्न बनते इंडिया और लगभग 19वीं सदी में जीने वाले हिंदुस्तनवा के बीच का द्वैत कायम है। इस मोटे विभाजन के भीतर भी जातिगत, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय दरारें कायम हैं जिनको वोट बैंक के भूखे नेता मिटने नहीं देते।

जब अचानक चार घंटे के भीतर सारा भारत जनता कर्फ्यू में बंद हो गया तो पहले सूरत, फिर दिल्ली, फिर चेन्नई, अहमदाबाद और मुंबई में हिंदुस्तनवा घर वापसी को छटपटा उठा। लाखों की भीड़ गठरी-मठरी थामे सड़कों पर उतरी, तब जाकर खुशहाल भारत, समृद्ध भारत, स्वच्छ भारत सरीखे सपनों का सतरंगी बगूला फटा और हमको ही नहीं, सारी दुनिया को हमारी वह असलियत दिखने लगी जहां पैदल सैकड़ों मील चल कर आए गरीब क्वारंटाइन में कोठरियों में दोबारा बंद हैं, और फैक्टरी मजदूर हातों में। तनख्वाहें खत्म, मालिकान तालाबंदी का हवाला देकर खुद अपने लिए राहत पैकेज मांग रहे हैं। ऐसे समय में हिंदुस्तनवा के गरीब बीमारों की कौन सुने फरियाद?

इंडिया दुखी है कि वह विदेश यात्रा नहीं कर सकता। उसकी कंपनी काफी समय तक आयात-निर्यात नहीं कर सकेगी। धमन भट्टियों का भट्टा बैठ गया है और बैंक लोन से बिदकने लगे हैं। इतनी बड़ी तादाद में इंडिया के अमीर कभी गरीब दिवालिये जो नहीं हुए। गरीब भूखे तिलचट्टों की तरह पैदल भटक रहे हैं। विपक्ष और देसी-विदेशी मीडिया के अनबिके कर्मियों ने शोर मचाया कि भई, पहले गरीबों, किसानों की सुध लो, तो सरकार ने वह किया जो 6 साल से करती आई है: यानी विज्ञापनों की बाढ़। कहा गया कि अब निजी चिकित्सा क्षेत्र भी इस कल्याणकारी मुहिम से जुड़ेगा।

सार्वजनिक क्षेत्र में पैर पसारने को आतुर बीमा कंपनियों और निजी क्षेत्र के हस्पताल मालिकों ने इसका जोरदार स्वागत किया। लेकिन विपक्ष ही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र के रोग निरोधी दस्तों, चिकित्सकों, जन स्वास्थ्य पर शोध करते रहे संस्थानों और राज्य सरकारों का रवैया ठंडा है। वजह यह कि पिछली जन स्वास्थ्य बीमा- जैसी योजनाएं कोई खास नतीजे नहीं दे सकीं। और आज कोविड के भूकंप के बीच राज्य, जिला स्तर पर सरकारी हस्पतालों में डॉक्टरों को जरूरी सुरक्षा उपकरण या पर्याप्त मात्रा में भौतिक मदद नहीं मिल रही।

बात परवान चढ़ रही है कि महामारी का विकराल आकार देखते हुए सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को निजी चिकित्सा क्षेत्र के हवाले कर दे और उसकी भरपाई सार्वजनिक खजाने से की जाए। कोविड से निबटने के लिए सरकारी कर्मियों के वेतन से पैसा काटा जा रहा है। वह कैसे खर्च होगा, इस बाबत न पूछें। पर जिस तरह फैसले लिए जा रहे हैं और गरीबों की बस्तियों के साथ बर्ताव हो रहा है, उससे कई सवाल उठ रहे हैं। और हर सवाल पूछने वाला राजनीतिक विपक्ष से भी नहीं जुड़ा है।

मसलन, स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत सरकार की तरफ से जिन बीमा कंपनियों को भारी राशि उपलब्ध कराई गई थी, उन्होंने अब तक अपने धारकों में से काफी कम को भुगतान किया। फिर लालफीताशाही के तहत हर गरीब के लिए दवा-दारू या बीमा क्लेम करने के लिए तमाम कागज दिखाना अनिवार्य है। रोग का डर इस कदर हावी है कि शक होते ही रोगियों को सपरिवार समाज से काट दिया जा रहा है। इससे कई गरीब लाभार्थी जरूरत होते हुए भी उपचार के लिए न तो सरकारी इमदाद से लाभ पा सकते हैं, न ही सीधे रोग की जांच को राजी हो रहे हैं। जांच दस्तों पर हमले यही दिखा रहे हैं।

अंग्रेजों ने जो सार्वजनिक चिकित्सा क्षेत्र रचा था, उसमें भी उनके ‘अपनों’ के लिए बेहतर प्रणाली और साफ-सफाई व्यवस्था का विचार था। लेकिन वे यह भी जानते थे कि उनके घरों में काम करने वाले, उनके दफ्तरों के कुली या क्लर्क भी अगर संक्रमण से घिरे रहेंगे तो उनकी अनिवार्य मदद के होने और न होने दोनों तरह से उनका, उनकी मेमसाहबों और बाबा-बेबियों तथा फौजी अफसरों का स्वास्थ्य खतरे में पड़ा रहेगा। लिहाजा चेचक, हैजा या प्लेग- जैसी महामारी की रोकथाम के लिए खास प्रशिक्षित अफसरों, चिकित्सकों के दस्ते और कार्यप्रणालियां तैयार किए गए जो दवा-दारू से जल-मल व्ययन तक की सुचारु कार्रवाई की जिम्मेदारी लेते थे।

आजाद भारत में हमारी सरकारों ने जहां स्वास्थ्य कल्याण ढांचे में अंग्रेजी अस्पतालों का विस्तार किया और पुराने संक्रामक रोग निरोधी कानून और दंड विधान को बनाए रखा, खुद स्वास्थ्य बजट में बहुत मामूली सी बढ़ोतरी की। 2014 के बाद तो कांग्रेसी शासन को गरियाते हए उसके समय में घोषित योजनाओं- राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, एड्स कंट्रोल कार्यक्रमों और नए चिकित्सकीय कॉलेजों की स्थापना का बजट भी 2.8 से 12.5 तक काटा गया।

अतिरिक्त खर्च का बड़ा हिस्सा मुहैया कराने की जिम्मेदारी यह कहते हुए राज्य सरकारों पर डाल दी गई कि स्वास्थ्य कल्याण राज्यों का विषय है। अब फिर वही बात उठने पर गैर एनडीए शासित राज्य साफ कह रहे हैं कि सरकार उनकी निगरानी को केंद्रीय जत्थे भेजने की बजाय महामारी से जूझने के लिए उनके हिस्से की जीएसटी की रकम के साथ पीएम केयर्स सरीखे कोष से भी अतिरिक्त पैसा दे। बस।

शर्मनाक यह भी है कि जब से आप शासित दिल्ली में तबलीगी जमात की बैठक से संक्रमण फैलने का मसला प्रकाश में आया, तब से सड़कों पर पहले से गैर एनडीए सरकारों के खिलाफ जहर उगलने वाली बेचेहरा मशीनरी की हरकतें बहुत बढ़ गई हैं। जो इस सबके विरोध को केंद्र विरोधी देशद्रोही राजनीति बता रहे हैं, क्या वे 1947 से पहले के उस भारत में लौटना चाहते हैं जब देश में लोकतंत्र नहीं था, राजा और प्रजा, अमीर सामंतों और फटेहाल बंधुआ मजूरों के बीच कोई संस्थागत रिश्ता नहीं था और मानसून की ही महामारी का आना जाना भाग्य पर ही निर्भर माना जाता था?

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