मोदी की गलत नीतियों से अकेला पड़ा भारत, जिनपिंग ने इन्हीं कमजोरियों का निर्दयता से फायदा उठाया

जवाहरलाल नेहरू ने कभी सच को नहीं छुपाया जैसा किसी भी लोकतांत्रिक नेता को करना ही चाहिए। इसके उलट नरेंद्र मोदी की बेईमानी देखिए जिन्होंने हाल में चीनी सेना के हाथों हमारे 20 जवानों की शहादत पर कहा कि ‘न तो कोई हमारी जमीन में घुसा और न ही किसी चौकी पर कब्जा किया है।

फोटोः सोशल मीडिया
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आशीस रे

गलवान घाटी को लेकर स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा है। ऐसी खबरें हैं कि भारत 5-7 किलोमीटर चौड़े ‘नो मैन्स लैंड’ के लिए तैयार हो गया है। उपग्रह से मिली तस्वीरें बताती हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन तैनाती बढ़ाता जा रहा है। कुछ विश्लेषक दावा कर रहे हैं कि चीन ने जो निर्माण गिरा दिए थे, वे फिर बन गए हैं। उनका कहना है कि एलएसी पर चीनी सैनिकों की तैनाती 30 फीसदी बढ़ गई है।

इन सबके बीच, चीन का विदेश मंत्रालय भारतीय प्रधानमंत्री के इस बयान का हवाला देते हुए भारत को हमलावर करार दे रहा है कि हमारे इलाके में कोई घुसपैठ नहीं हुई। एलएसी पर चीन की आक्रामकता के कारण न केवल भारत-चीन बल्कि भारत-अमेरिका और भारत-पाकिस्तान संबंधों में भी बड़ा बदलाव आ गया है। उपग्रह से मिली तस्वीरें चीनी सेना के भारी जमावड़े को दिखा रही हैं और इससे एलएसी पर सेनाओं की वापसी के बारे में मोदी द्वारा बड़ी सावधानी से बुना गया भ्रमजाल भी टूट गया है। इस पूरे घटनाक्रम की पृष्ठभूमि पर गौर करना जरूरी हो जाता है।

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अंग्रेजों ने मुगल शासकों की अपेक्षा बेहतर तरीके से भारत को एकजुट किया और इसकी सीमाओं का विस्तार किया। लेकिन तथ्य यह भी है कि जब उन्हें हड़बड़ी में भारत को छोड़ने के लिए बाध्य किया गया तो वे न केवल अपने पीछे विभाजन बल्कि इसकी सीमाओं के आधे-अधूरे काम की विरासत भी छोड़ गए। इन्हीं में चीन के साथ सीमा विवाद भी रहा। स्वतंत्र भारत का जन्म अहिंसक संघर्ष से हुआ इसलिए सैन्यीकरण इसका मंत्र नहीं बन सका।

इसके विपरीत पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का जन्म 22 साल तक चले खूनी गृहयुद्ध के बाद होता है, जिसमें 1.3 करोड़ लोग मारे जाते हैं। जहां मुश्किल से मिली यह आजादी लंबे समय तक अक्षुण रह सके, यह चुनौती दोनों देशों के लिए थी। पर कम्युनिस्ट चीन की सोच में फंसा विदेशी शक्तियों का कांटा निकल नहीं सका (19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान ऐसी तमाम ताकतों ने उसपर राज किया था) और उसमें असुरक्षा की भावना कुछ ज्यादा ही घर कर गई जो आखिरकार सैन्य बाहुबल को मजबूत करने के रूप में बाहर आई।

कम्युनिस्ट भी उग्र राष्ट्रवादी थे और चीनी समाज में व्याप्त इस भावना का उन्होंने उन क्षेत्रों या हितों को फिर से पाने के अपने एजेंड को आगे बढ़ाने में इस्तेमाल किया जो उन्हें लगता था कि उनसे छीन लिए गए, बेशक इनमें आधारहीन दावे भी हैं। स्पष्ट कहूं तो यह सोच वर्चस्ववादी मंसूबों को दिखाती है। चीन का सोवियत संघ, जापान, ताईवान, वियतनाम, भारत और दक्षिण चीन सागर के कई देशों के साथ भूमि या समुद्री विवाद रहा है। दक्षिणी चीन सागर में तो वर्ष 2016 में संयक्तु राष्ट्र के एक न्यायाधिकरण ने चीन के खिलाफ फैसला भी सुनाया था।

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने 1949 में मुख्य भूमि से अपने कुओमिंतांग विरोधियों को बाहर खदेड़ने और उन्हें ताईवान तक सीमित करने के बाद पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) के गठन का ऐलान किया। अस्तित्व में आने के एक साल के भीतर ही पीआरसी ने तिब्बत पर आक्रमण करके इस पर कब्जा कर लिया। इसके बावजूद, तिब्बत पर पीआरसी की संप्रभुता नहीं थी। बौद्ध और आध्यात्मिकता की वह भूमि रक्षाहीन थी और परिणामस्वरूप एक नरम लक्ष्य। भारत के साथ 3,500 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करने वाले तिब्बत पर जबरन कब्जा करने में चीनी अर्थव्यवस्था को कोई बड़ी कीमत नहीं चुकानी पड़ी।

इसके बाद पीआरसी 1913-14 में ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव हेनरी मैकमोहन द्वारा तिब्बत और भारत के बीच खींची गई मैकमोहन रेखा को चुनौती देता है। हालत यह है कि पहले तो चीन इस सीमा रेखा को स्वीकार करते हुए भारत और तिब्बत के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता करता है और जब इसके अनुमोदन की बात आती है तो कन्नी काट जाता है। तिब्बत पर विजय प्राप्त करने के बाद चीन भारत के नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) क्षेत्र के एक महत्वपूर्ण हिस्से को लौटाने की मांग करता है, जिसे अब अरुणाचल प्रदेश के रूप में जाना जाता है और चीन जिसे “दक्षिण तिब्बत” कहता है। इस तरह वह मैकमोहन रेखा को खारिज कर देता है।

गौरतलब है कि अक्टूबर, 1962 में भारत पर आक्रमण के दौरान चीन ने एक वैसे बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया जिसे वह अपना मानता था। निस्संदेह यह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लिए बड़ा झटका था, जिन्होंने एशिया और विश्व में चीन के प्रति एकजुटता तैयार करने में बड़ी मेहनत की थी। ऐसा नहीं है कि नेहरू को माओ त्से तुंग की ओर से पैदा की जाने वाली परेशानियों का अनुमान नहीं था। साल 1954 की ऐतिहासिक पंचशील संधि इस चिंता को स्पष्ट रूप से दर्शाती है, क्योंकि इसके तमाम प्रावधानों के जरिये बीजिंग के हाथ बांधने की कोशिश की गई थी।

इस संधि में “एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के लिए परस्पर सम्मान”, “परस्पर गैर-आक्रमणकारी”, “परस्पर गैर-हस्तक्षेप”, “समानता और परस्पर लाभ” और “शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व” जैसे तमाम प्रावधान ऐसे ही नहीं किए गए थे। दिल्ली में चीन के तत्कालीन प्रीमियर झाऊ एनलाई ने इस समझौते को सहर्ष स्वीकार कर लिया और स्थिति यह है कि आज भी चीन अपने मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स के माध्यम से इस संधि पर दस्तखत को अपनी सदाशयता के उदाहरण के तौर पर पेश करता है।

लेकिन सच तो यह है कि माओ ने नेहरू के साथ विश्वासघात किया। यह याद रखने की बात है कि चीन की सेना नेफा में जितनी तेजी से घुसी थी, अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण उतनी ही तेजी से वापस भी हो गई थी। नेहरू द्वारा गुटनिरपेक्षता को विदेश नीति की बुनियाद बनाते हुए पूरब और पश्चिम में चल रहे शीत युद्ध से बराबर दूरी बनाए रखना उस समय की दोनों महाशक्तियों- अमेरिका और सोवियत संघ को रास नहीं आ रहा था। लेकिन दुनिया में भारतीय प्रधानमंत्री का कद इतना बड़ा था और उनकी सद्भावना, ज्ञान और दूरदर्शिता का इतना सम्मान था कि जब भारत पर संकट आया तो इनमें से कोई भी पीछे नहीं रह सका।

तब मैं दार्जिलिंग के एक आवासीय स्कूल में पढ़ता था और उन दर्जनों लोगों में शामिल था जिन्हें चीन से सटे हिमालयी इलाकों से निकाला गया था। वहां का निकटतम हवाईअड्डा सिलीगुड़ी के पास बागडोगरा में था और वहां पहुंचने पर मैंने एक लाइन से अमेरिकी वायु सेना और ब्रिटिश रॉयल एयर फोर्स के कार्गो विमानों को खड़ा पाया। मुझे उनमें से एक में चढ़ाकर सुरक्षित कोलकाता पहुंचाया गया।

मुझे याद है, एक रात ऑल इंडिया रेडियो पर नेहरू ने “बोमडिला जाता रहा..” शब्दों के साथ बुझी आवाज में अपना संबोधन शुरू किया था। उन्होंने सच्चाई को नहीं छुपाया, जैसा कि किसी भी लोकतांत्रिक नेता को करना भी चाहिए था। इसके विपरीत नरेंद्र मोदी की बेईमानी देखिए जो हाल ही में गलवान घाटी में चीनी सेना के हाथों हमारे 20 जवानों के शहीद हो जाने के बाद कहते हैं कि “न तो कोई हमारी जमीन में घुसा है और न ही हमारी किसी चौकी पर किसी ने कब्जा किया है।”

खैर, वापस मुद्दे पर आते हैं। यह अक्षम्य है कि 1947 तक भारत में राज करने वाला अंग्रेजी शासन चीन से उन मुद्दों की पुष्टि नहीं करा पाता है जिसपर वह सहमत हो गया था- मसलन, मैकमोहन रेखा और यह कि तिब्बत पर उसकी संप्रभुता नहीं है। मामलों को और बिगाड़ दिया ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन की सरकार में विदेश सचिव डेविड मिलिबैंड ने। मिलिबैंड ने 2008 में हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा कि चीन के साथ वह समझ “बीते दिनों की बात” थी और इस तरह ब्रिटेन उस समझौते से मुकर गया, जिसे उसने गंभीर बातचीत के बाद अमली जामा पहनाया था।

तिब्बत पर कब्जा करने के बाद 1950 के दशक में चीन ने झिंजियांग और पश्चिमी तिब्बत को मिलाकर लगभग 1,200 किलोमीटर सड़क का निर्माण किया जिसमें से लगभग 180 किलोमीटर अक्साई चिन से होकर गुजरती थी। 1957 तक भारत को इसका पता भी नहीं था। जानकारी मिलने पर नेहरू ने चीन को बताया कि अक्साई चिन भारत के लद्दाख क्षेत्र का हिस्सा है और इसपर “किसी के साथ बात नहीं हो सकती।”

निःसंदेह, लद्दाख को राजा गुलाब सिंह ने सिख साम्राज्य की अधीनता में जीता था और दो साल तक चले युद्ध के बाद उन्होंने और तिब्बतियों ने 1842 में एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसमें “पुरानी, स्थापित सीमा” को मानने का फैसला किया गया। अंग्रेजों ने 1846 में सिखों को हराया और जम्मू-कश्मीर क्षेत्र पर उनका नियंत्रण हो गया जिसमें लद्दाख भी शामिल था। नई व्यवस्था में गुलाब सिंह शासक बने रहे बल्कि उनका ओहदा अब महाराजा का हो चुका था।

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मोदी की दोषपूर्ण विदेश नीति ने भारत को अलग-थलग कर दिया है। बड़े देशों ने तटस्थता बना ली है। ब्रिटेन का विदेश मंत्रालय बयान जारी करता हैः “हम भारत और चीन को सीमा से जुड़े मुद्दों पर बातचीत के लिए प्रोत्साहित करते हैं। ब्रिटेन चाहता है कि मौजूदा विवाद का शांतिपूर्ण समाधान निकले।”

मोदी शासन में भारी-भरकम रक्षा खरीद के जरिये एक बड़ी ताकत का समर्थन खरीदने की कोशिश हो रही है, बेशक वह हमारी क्षमता में हो या नहीं। इसी कारण रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भागकर मास्को जाते हैं। भारत, चीन से युद्ध की स्थिति में नहीं। ऐसी आक्रामकता आर्थिक तौर पर भी बड़ी नुकसानदायक है।

मोदी ने तो कोविड के हमले के पहले से ही अर्थव्यवस्था की ऐसी की तैसी कर रखी थी। जिनपिंग ने मोदी की कमजोरियों को पहचाना और बड़ी निर्दयता से इसका फायदा उठाया। अब पंचशील की मौत हो चुकी है, डेंग-राजीव काल की परस्पर चहलकदमी पीछे छूट चुकी है और नरसिंह राव के समय की शांति संधि भी गुजरे दिनों की बात हो गई है। भारत और चीन के रिश्तों में बड़ा बदलाव आ चुका है।

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Published: 26 Jun 2020, 7:05 PM