इंडिया बनाम भारत: प्राइम मिनिस्टर ऑफ भारत, बताइए यह गंभीर मुद्दा है या फिर महज़ मज़ाक!

क्या जिन्ना 'इंडिया' नाम चाहते थे क्योंकि सिंधु (इंडस) के आसपास का क्षेत्र पाकिस्तान में था? क्या इंडोनेशिया चाहता था कि हिंद महासागर का नाम बदलकर 'इंडोनेशियाई महासागर' कर दिया जाए? क्या सीआईआई को सीबीआई (भारतीय उद्योग परिसंघ) के नाम से जाना जाएगा?

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ए जे प्रबल

इंडिया बनाम भारत को लेकर बीते करीब 48 घंटों के दौरान कानफाड़ू और बेतुके शोर में तब्दील हो चुका है। मीडिया सांस लिए बिना इस पर गला फाड़ रहा है, तो अकबकाए मंत्री कुछ भी बोल रहे हैं। इस सबसे देश का अच्छा खासा मनोरंजन हो रहा है। बीजेपी के मंत्री सवाल के जवाब में लड़कपन वाले सवाल ही दागते हैं कि ‘आखिर भारत का विरोध कर कौन रहा है?’ भारत से आखिर दिक्कत क्या है? क्या हम भारत के नागरिक नहीं हैं? क्या हम भारत सरकार के मंत्री नहीं हैं? और कुछ तो बौद्धिकता का चोला ओढ़कर सवाल पूछने वाले को समझाते भी हैं कि जाइए संविधान पढ़िए, इतिहास पढ़िए।

लेकिन सिर्फ रिकॉर्ड के लिए बता देना उचित है कि विवाद दरअसल नाम को लेकर है ही नहीं। इसकी शुरुआत परंपरा को तोड़ने की बचकाना हरकत से हुई है। संविधान का सबसे पहला अनुच्छेद ही कहता है कि, “इंडिया दैट इज़ भारत इज़ ए यूनियन ऑफ स्टेट्स...यानी इंडिया जोकि भारत है राज्यों का संघ है...” लेकिन बाकी पूरे संविधान में इंडिया का ही इस्तेमाल किया गया है न कि भारत का। यहां तक कि संविधान के हिंदी संस्करण में भी, जिसे संविधान सभा ने स्वीकृत किया था, लिखा है, ‘भारत अर्थात इंडिया’...यानी ये दोनों नाम अनुवाद में एक दूसरे का विकल्प हैं।

तो, फिर ऐसे में राष्ट्रपति भवन द्वारा जारी आमंत्रण में अंग्रेजी में क्यों लिखने की जरूरत पड़ी प्रेसिडेंट ऑफ भारत, जबकि परंपरानुसार तो प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया ही लिखा जाता रहा है? हिंदी में राष्ट्रपति को हमेशा से भारत के राष्ट्रपति ही कहकर संबोधित किया जाता रहा है और अधिकांश भारतीय अंग्रेजी में इंडिया और हिंदी में भारत कहने में सहजता महसूस करते हैं।

इसी सर्कस के बीच प्राइम मिनिस्टर ऑफ भारत ‘आसियान-इंडिया समिट’ में हिसा लेने के लिए बुधवार को इंडोनेशिया रवाना हुए हैं। दरअसल विवाद की जड़ में नाम नहीं है, बल्कि जिस समय यह सब शोर हो रहा है वह और बिना किसी तर्क के अचानक परंपराओं से मुंह मोड़ लेना है।

इस पूरे मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री भी एक तरह से बगले ही झांकते नजर आ रहे हैं। यहां तक कि एएनआई की एडिटर इन चीफ स्मिता प्रकाश के साथ इंटरव्यू में विदेश मंत्री एस जयशंकर भी बस बुदबुदा के ही रह गए इस मुद्दे पर। उन्होंने इतना भर कहा, “इंडिया, दैट इज़ भारत...यह संविधान में है। मैं सभी से आग्रह करूंगा कि वे इसे पढ़ें...जब आप भारत कहते हैं, तो एक तरह से यह एक अर्थ है और एक समझ है जो इसके सात आती है...और यही संविधान में भी परिलक्षित होता है...”


कुछ समझ में आया इस सबसे? जयशंकर से सवाल तो यह पूछा जाना था कि आखिर अंग्रेजी में लिखे आमंत्रण में बदलाव क्यों किया गया है और सात दशक पुरानी परंपरा को क्यों छोड़ा गया है। यह सवाल पूछा गया या नहीं, नहीं पता, और अगर पूछा गया तो उन्होंने क्या कहा, यह भी नहीं पता। सवाल यह भी पूछा जा सकता था कि क्या इंडिया नाम अलग किस्म का अर्थ, समझ या भाव प्रकट करता है।

जयशंकर से यह सवाल भी पूछा ही जाना चाहिए कि उन रिपोर्टों के बारे में उनका क्या विचार है जिनमें कहा जा रहा है कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्नाह इंडिया नाम नहीं चाहते थे क्या इसे कांग्रेस ने इस्तेमाल किया था। जिन्नाह को शायद लगता था कि इंडिया नाम जो है वह इंडस रिवर (सिंधु नदी) के आसपास के इलाके को प्रकट करता है, जिसका बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में है।

बहरहाल जब इंडिया और भारत का मसला आया और अचानक भारत नाम के पक्ष में खड़े होने का आदेश मिला तो बीजेपी नेता और पार्टी की आईटी सेल ने धड़ाधड़ काम शुरु कर दिया और इंडिया नाम में तमाम किस्म की खामियां निकालना शुरु कर दीं। बीजेपी के एक सांसद हरनाथ सिंह हैं, उन्होंने न्यूज एजेंसी पीटीआई से कहा, “ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इंडिया की व्याख्या ऐसी जगह के तौर पर की गई है जहां गरीब और अशिक्षित लोग रहते हैं। अंग्रेज (ब्रिटिश) जानबूझकर गुलाम देशों के लोगों को  इंड या इंडिया कहते थे।”

कयासों का भी जबरदस्त दौर चल रहा है और कहा जा रहा है कि मोदी सरकार देश के औपनिवेशिक नाम को त्यागना चाहती है। इन कयासों को हवा मिली है सरकार के उस ऐलान से जिसमें संसद का पांच दिवसीय विशेष सत्र 18 सितंबर से बुलाया गया है। 18 सितंबर वही तारीख है जब 1949 में संविधान सभा ने संविधान के अनुच्छेद 1 को लंबी बहस के बाद स्वीकृत किया था।

इसके अलावा मोदी सरकार के संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी ने संसद के विशेष सत्र की घोषणा करते हुए एक्स पर जो पोस्ट लिखी थी, उसमें अमृतकाल का जिक्र किया था। इसके अलावा राष्ट्रपति भवन से आमंत्रण जारी हुआ, वह आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान के बाद सामने आया जिसमें भागवत ने कहा था कि देशवासियों को इंडिया नाम छोड़कर सिर्फ भारत का ही इस्तेमाल करना चाहिए।

वैसे बता दें कि 2015 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि देश का नाम बदलने की उसकी कोई योजना नहीं है। उसने कहा था कि देश इंडिया और भारत दोनों नामों से जाना जाता है और संविधान का अनुच्छेद 1 इसे स्पष्ट भी करता है। इसी मुद्दे पर 2020 में भी एक जनहित याचिका भी दायर की गई थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था।


दरअसल देश का नाम बदलने के लिए संविधान संशोधन करना होगा और संभवत: उसे राज्य विधानसभाओं से भी पास कराना होगा। सिर्फ संसद में एक प्रस्ताव लाकर ऐसा नहीं किया जा सकता है।

इस विवाद के बीच ही एडमिरल (रिटायर्ड) अरुण प्रकाश ने एक बात को याद किया है। उन्होंने कहा है कि 1960 में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकार्णो ने इंडियन ओशन (हिंद महासागर) का नाम बदलने का फैसला लेते हुए इसे इंडोनेशियन ओशन नाम देने की कोशिश की। लेकिन इस विचार को बाद में त्याग दिया गया। हाल ही में चीन ने ऐलान किया कि ‘इंडियन ओशन सिर्फ इंडियंस का ओशन नहीं है।’ तो क्या हम अब सागर पर भी दावा ठोक दें क्योंकि पूरी दुनिया में अकेला इंडियन ओशन ही है जिसका नाम एक देश के नाम से जुड़ा हुआ है।

टिप्पणीकारों का मानना है कि देश का नाम इंडिया से भारत में बदलने से एक किस्म का अराजक माहौल पैदा हो जाएगा और इससे भी बढ़कर दुनिया भर में भारत की जो एक भारी ब्रांड वैल्यू है, वह खत्म हो जाएगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा प्रधानमंत्री, जिसने एक झटके में 83 फीसदी नोटों पर पाबंदी लगा दी थी और बिना प्रभावों के बारे में सोचे एक सख्त लॉकडाउन लगाया दिया था, क्या वह एक और ऐसे ही बेतुके फैसले को लागू करने से कतराएगा?

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