भारतीय प्रवासी भी अब मोदी सरकार के निशाने पर, मोदीराज की नीतियों के तहत भारतीय प्रवासी झेल रहा है निगरानी!
मोदीराज की नीतियों के तहत भारतीय प्रवासी समुदाय लगातार निगरानी झेल रहा है, उन्हें और भारत में रह रहे उनके परिवारों को धमकियां दी जा रही हैं।

एक वक्त था जब सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते दुनिया हसरत से भारत की ओर देखती थी। लेकिन हाल के सालों में यह ‘सॉफ्ट पावर’ तेजी से खत्म हुई है। एक ऐसा देश जिसे कभी लोकतांत्रिक बहुलवाद का प्रतीक माना जाता था, आज उसकी तुलना सत्तावादी शासनों से की जा रही है। इस बदलाव का स्पष्ट संकेत नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा ‘अंतरराष्ट्रीय दमन’ का बढ़ता इस्तेमाल है।
‘अंतरराष्ट्रीय दमन’ से आशय अपने प्रवासी और निर्वासित लोगों को डराने, चुप कराने या नुकसान पहुंचाने के लिए सरकार के इशारे पर की जाने वाली कार्रवाई से है। यह रणनीति आमतौर पर चीन, रूस, उत्तर कोरिया और ईरान जैसे सत्तावादी शासन अपनाते हैं, लेकिन भारत द्वारा इस तरह की रणनीतियों का बड़े पैमाने पर किया जा रहा इस्तेमाल बताता है कि उसकी लोकतांत्रिक जड़ें खोखली हो रही हैं। यह प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत की घरेलू और विदेश नीतियों की दिशा पर भी असहज सवाल खड़े करता है।
उत्तरी अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में इसके बढ़ते प्रमाण मिल रहे हैं कि भारतीय सरकारी संस्थाएं और उनसे जुड़े लोग, मौजूदा सत्ता की बुराई करने वालों पर नजर रख रहे हैं, उन्हें परेशान कर रहे हैं और उन्हें अवैध ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें असहमति जताने वाले शिक्षाविद, अल्पसंख्यक अधिकारों की वकालत करने वाले ऐक्टिविस्ट, और हिन्दू राष्ट्रवादी नीतियों के खिलाफ बोलने वाले भारतीय प्रवासी सिख, मुस्लिम, ईसाई और दलित शामिल हैं।
इन लोगों को जान से मारने की धमकी दी जा रही है, उनकी निगरानी की जा रही है और यहां तक कि भारत में उनके परिवारों को खुले शब्दों में धमकियां दी जा रही हैं। कई मामलों में, उन्हें अपने ओसीआई (ओवरसीज सिटीजन ऑफ इंडिया) का दर्जा रद्द करने, वीजा देने से इनकार करने और भारत में उनके परिजनों को नतीजे भुगतने की धमकी की वजह से चुप रहने का दबाव झेलना पड़ रहा है।
ऐसी कोशिशें जिस संस्थागत तालमेल के साथ की जा रही हैं, वह खास तौर पर चिंताजनक है। भारतीय राजनयिक मिशन न केवल ऐसी गतिविधियों को अनदेखा कर रहे हैं, बल्कि वे अक्सर इनमें सक्रिय रूप से भागीदार होते हैं। कुछ मामलों में तो वाणिज्य दूतावासों ने विरोध प्रदर्शनों और बैठकों की निगरानी की, विरोध करने वालों को चेताया और सत्तारूढ़ दल के प्रति वफादार प्रवासी समूहों के साथ मिलीभगत की। ऐसा नहीं कि इस तरह की कार्रवाई ‘अति उत्साही’ अधिकारी अपनी ओर से कर रहे हों, बल्कि वे विदेशों में की जा रही सरकार की आलोचना को दबाने के लिए तैयार किए गए एक बड़े सरकार समर्थित पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं।
मोदी सरकार के समर्थकों का तर्क है कि ताकतवर पश्चिमी देश भी अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए विदेशों में अभियान चलाते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और इजराइल का विदेशों में गुप्त अभियानों और खुफिया गतिविधियों का लंबा इतिहास रहा है। हालांकि, यह अंतर न केवल इस्तेमाल किए गए तौर-तरीकों में है, बल्कि उनके लक्ष्यों में भी है। पश्चिमी ताकतें शायद ही अपने प्रवासियों, विदेशों में रहने वाले अपने नागरिकों, छात्रों, पत्रकारों या शांतिपूर्ण राजनीतिक ऐक्टिविस्टों के खिलाफ कार्रवाई करती हैं। अपनी तमाम खामियों के बावजूद पश्चिमी लोकतंत्र अब भी संस्थागत जवाबदेही के ढांचे के दायरे में काम करते हैं। खुफिया एजेंसियां अगर अपनी हदों को पार करती हैं, तो उन्हें कानूनी चुनौती, मीडिया की जांच-पड़ताल और संसदीय निगरानी का सामना करना पड़ता है। मोदीराज में देश की सरकारी कार्रवाइयां उन शासनों से ज्यादा मिलती-जुलती हैं जो विपक्ष को अपराधी ठहराती हैं और अपनी तानाशाही को देश की सीमाओं से परे ले जाती हैं।
मोदी सरकार का न केवल देश में, बल्कि विदेशों में भी नैरेटिव को नियंत्रित करना प्रमुख राजनीतिक उद्देश्य बन गया है। कभी ‘भारत का गौरव’ कहा जाने वाला प्रवासी समुदाय अगर सरकार की पसंदीदा छवि के अनुरूप व्यवहार नहीं करता, तो उसे दुश्मन की तरह देखा जाता है। जो अपनी आवाज उठाते हैं, उन्हें उनकी वैचारिक या राजनीतिक स्थिति की परवाह किए बिना, राष्ट्र-विरोधी, जिहादी या खालिस्तानी करार दिया जाता है। मानवाधिकारों, धार्मिक स्वतंत्रता या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर मोदी सरकार के रिकॉर्ड को सार्वजनिक रूप से चुनौती देना अब न केवल ऑनलाइन ट्रोलिंग को आमंत्रित कर सकता है, बल्कि डिजिटल और शारीरिक, दोनों तरह के खतरों से युक्त समन्वित उत्पीड़न को भी।
मोदी सरकार के अंतरराष्ट्रीय दमन अभियान ने प्रवासी भारतीयों में भी फूट डालनी शुरू कर दी है। प्रवासी समुदायों की निगरानी की जा रही है, भारतीय दूतावासों और उनके प्रतिनिधियों की ओर से धमकाया जा रहा है और उनके खिलाफ अभियान चलाए जा रहे हैं, जिससे समुदायों में दरारें दिखाई देने लगी हैं। बड़ी संख्या में प्रवासी समुदाय के लोगों का - खासकर युवा, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील- मोदी सरकार के सत्तावादी तरीकों के कारण मोहभंग हो चुका है। उनका सामना ऐसी सत्ता से हो रहा है जो प्रवासियों से अपने लिए वफादारी की अपेक्षा तो करती है लेकिन उनके नागरिक अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकती।
हिंदुत्ववादी संगठन अब भी अपना प्रभाव बनाए हुए हैं, लेकिन उनके खिलाफ प्रतिरोध बढ़ रहा है। छात्र समूह, शैक्षणिक संघ, सिविल सोसाइटी गठबंधन और भारतीय मूल के मानवाधिकार ऐक्टिविस्ट अब मोदी सरकार के अंतरराष्ट्रीय दमन के सबसे मुखर और संगठित आलोचक हो गए हैं।
प्रवासियों के खिलाफ मोदी सरकार के इन हथकंडों के नतीजे गंभीर होने वाले हैं। किसी भी देश के लिए, किसी विदेशी सरकार को अपनी सीमाओं के भीतर डराने-धमकाने वाले अभियान चलाने की अनुमति देना उसकी संप्रभुता और नागरिक आजादी को कमजोेर करता है। पश्चिम में कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने पहले ही उन लोगों को चेतावनी जारी कर दी है जिन्हें खतरा माना जा रहा है, और कई सरकारों ने इस बात पर संसदीय तरीके से विचार करना शुरू कर दिया है कि ऐसे विदेशी हस्तक्षेप की सीमा क्या हो सकती है। लोगों को यह बात समझ में आ रही है कि यह सिर्फ मानवाधिकार नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है।
भारत के लिए इसकी कीमत और भी ज्यादा है। नई दिल्ली की अंतरराष्ट्रीय वैधता क्षीण हो रही है। रणनीतिक साझेदारियां, खासकर पश्चिमी लोकतंत्रों के साथ, सिर्फ साझा आर्थिक हितों पर ही नहीं, बल्कि साझा मूल्यों पर भी निर्भर करती हैं। जब भारत अपना तानाशाही चेहरा दिखाता है, तो एक लोकतांत्रिक साझीदार के रूप में उसकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आ जाती है; खुफिया सहयोग प्रभावित होता है; इसके कानूनी परिणाम बड़ा खतरा बन जाते हैं। यूं ही नहीं भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अमेरिका और कनाडा की यात्रा से बच रहे हैं।
देश हो या विदेश, मोदी सरकार असहमति को देशद्रोह मानती है। संदेश साफ है: अगर आप सरकार का विरोध करते हैं, तो बेशक आप कहीं भी हों, सुरक्षित नहीं हैं। आपका परिवार सुरक्षित नहीं है। आपका पासपोर्ट, आपकी नागरिकता, आपकी आजीविका खतरे में पड़ सकती है। लेकिन यह अंतरराष्ट्रीय दमन अनदेखा नहीं किया जा रहा है और इसके गंभीर परिणाम भी हैं, चाहे भारत में सत्ताधारी ताकतें इस खतरे को समझें या नहीं।
·(अशोक स्वैन स्वीडन के उप्सला विश्वविद्यालय में ‘ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रिसर्च’ के प्रोफेसर हैं।)
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