इंदिरा गांधीः कड़े फैसले लेने वाली एक नेकदिल प्रधानमंत्री, जिसने न कोई दिखावा किया, न कभी श्रेय लिया

बहुत बाद में मुझे एहसास हुआ कि दिग्गज पत्रकारों के बीच मेरी अनुभवहीनता को उन्होंने भांप लिया था और इसीलिए उन्होंने उस रोती हुई औरत को थोड़ी और देर पकड़े रखा जिससे मैं उस पल को कैमरे में कैद कर सकूं। एक ऐसे इंसान के लिए इतनी चिंता जिसे वह जानती तक नहीं थीं!

फोटोः GettyImages
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सुजाता आनंदन

एक न्यूज रिपोर्टर के तौर पर किसी प्रधानमंत्री से मेरी जिससे पहली मुलाकात हुई, वह श्रीमती इंदिरा गांधी थीं। नौकरी में मुझे बमुश्किल छह माह हुए थे और मैं तब प्रशिक्षु ही थी जब मेरे संपादक ने मुझे असम भेज दिया। तब असम बुरी तरह जातीय हिंसा की गिरफ्त में था। मैं पेशे में नई थी और ऐसी जगह के लिहाज से अप्रशिक्षित। लेकिन राहत की बात यह रही कि दूसरे अखबारों के वरिष्ठ पत्रकारों ने हर कदम पर मेरा खयाल रखा। मुझे बताया कि क्या करूं, क्या न करूं।

एक दिन हमें पता चला कि एक इलाके में हिंसा हो गई है। पत्रकारों ने मौके पर जाकर घटना को रिपोर्ट करना चाहा लेकिन वहां जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं थी। सभी सार्वजनिक गाड़ियों को प्रशासन ने अपने कब्जे में ले रखा था। फिर भी हममें से कुछ ने पैदल ही वहां तक जाने का फैसला किया। मैं भी उन पत्रकारों की टोली में थी। हम पैदल ही चलकर नेल्ली तक पहुंचे और इस तरह हम 1983 के उस भयानक नरसंहार के तुरंत बाद के खौफनाक मंजर के गवाह बने। कई शव ब्रह्मपुत्र नदी में तैर रहे थे जबकि बहुत सारे शव बड़े इलाके में यहां-वहा बिखरे पड़े थे। मेरे लिए इस तरह के नरसंहार को देखने का यह पहला मौका था। तब तक पुलिस भी वहां नहीं पहुंची थी।

यह नरसंहार कितना बड़ा था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें मारे जाने वालों का आधिकारिक आंकड़ा 2,194 था। चौदह गांवों में हुए इस नरसंहार ने देश को झकझोर कर रख दिया था। दो दिनों बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी शरणार्थी शिविर पहुंचीं। मैं वहीं थी और शरणार्थी शिविर की उस इमारत की सीढ़ियों के चारों ओर मंडरा रही थी जहां इंदिरा गांधी को आकर जायजा लेना था। अचानक मैंने बिल्कुल अपने सामने इंदिरा जी को पाया और हड़बड़ाकर उनके रास्ते से हटने की कोशिश की। इसी बीच शरणार्थी शिविर की एक महिला बीच में आ गई और उनसे लिपटकर ऐसे रोने लगी कि दिल दहल जाए।

यह सब पलक झपकते इस तरह हुआ था कि इंदिरा एकदम से ठिठक गईं लेकिन अगले ही पल वह उस महिला को तसल्ली दे रही थीं। श्रीमती गांधी ने उस महिला को लिपटाते हुए उसे दिलासा दिया- ‘रो मत, बहन। रो मत। मैं हूं न! मैं हूं आपके लिए।’ लेकिन न तो उस महिला की सिसकियां बंद हो रही थीं और न ही मेरे कांपते हाथ मेरे काबू में आ रहे थे क्योंकि मुझे उस पल की अहमियत का अंदाजा हो रहा था। मैंने उस क्षण को अपने कैमरे में कैद करना चाहा।


श्रीमती गांधी उस महिला को गले लगाकर उसके माथे और पीठ पर हाथ फेरती रहीं लेकिन मेरे कांपते हाथ मुझे तस्वीर लेने की इजाजत नहीं दे रहे थे। इंदिराजी की नजर मुझ पर पड़ी और उन्होंने बड़े प्यार से कहा- ‘जल्दी करो, लड़की! मेरे पास बहुत वक्त नहीं है।’ इंदिराजी का इतना कहना था कि मैं और भी नर्वस हो गई। तब श्रीमती गांधी ने अपने सुरक्षाकर्मी की ओर देखा और वह इशारों को समझते हुए आगे बढ़ा, मेरे हाथ से कैमरा झटका और मेरे लिए उस पल को कैमरे में कैदकर कैमरा मेरी ओर बढ़ा दिया।

श्रीमती गांधी के चेहरे पर एक राहत का भाव उभरा लेकिन जाते-जाते उनकी आंखें दो पल के लिए मुझ पर टिकीं। बहुत बाद में मुझे एहसास हुआ कि दिग्गज पत्रकारों के बीच मेरी अनुभवहीनता को उन्होंने भांप लिया था और इसीलिए उन्होंने उस रोती हुई औरत को थोड़ी और देर पकड़े रखा जिससे मैं उस पल को कैमरे में कैद कर सकूं। एक ऐसे इंसान के लिए इतनी चिंता जिसे वह जानती तक नहीं थीं! इंदिराजी की उस सहृदयता को मैं कभी नहीं भूल सकती। बाद के सालों में वे पल खास तौर पर तब मेरी आंखों के सामने तैरते रहे जब किसी प्रधानमंत्री के सुरक्षाकर्मियों ने पत्रकारों के साथ बदतमीजी की।

उस घटना के करीब एक साल बाद श्रीमती गांधी एक पार्टी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए मुंबई आईं। मैं उन चंद पत्रकारों में थी जिन्हें बम्बई कांग्रेस अध्यक्ष (मुरली देवड़ा) ने उनकी यात्रा कार्यक्रम के बारे में बताया था। उस दौरान इंदिराजी को रविंद्र म्हात्रे के घर जाकर उनके परिवार वालों से भी मिलना था। भारतीय राजनयिक रविंद्र म्हात्रे की ब्रिटेन में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों ने अपहरण के बाद हत्या कर दी थी।

इंदिराजी जब म्हात्रे परिवार से मिलने गईं तो उनके साथ मुरली देवड़ा भी थे। बाद में मुरली देवड़ा ने बताया कि इंदिराजी ने श्रीमती म्हात्रे से उनके पति की जान नहीं बचा पाने के लिए माफी मांगी। इसके साथ ही श्रीमती म्हात्रे से पूछा कि क्या वह उनकी (श्रीमती गांधी की) मजबूरी समझ सकती हैं कि वह मकबूल भट्ट को रिहा करने की स्थिति में नहीं थीं! मकबूल भट्ट जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का आतंकवादी था जो जेल में बंद था और आतंकवादियों ने म्हात्रे को छोड़ने के लिए मकबूल की रिहाई की मांग की थी।


इसी के साथ इंदिरा गांधी ने श्रीमती म्हात्रे से वादा किया कि जब तक उनके स्कूल में पढ़ रहे दोनों बच्चे अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते, उनका खर्चा वह निजी तौर पर उठाएंगी। देवड़ा ने हमें जानकारी दी कि उनके बच्चे जो भी कोर्स करना चाहें, उस पर कितना भी खर्च हो, उनकी फीस इंदिरा जी देंगी। हालांकि देवड़ा ने हमें बताते हुए ताकीद की थी कि इस बात को लीक न करें क्योंकि श्रीमती गांधी इसका प्रचार नहीं चाहती थीं। 

न कोई दिखावा न श्रेय लेने की इच्छा! बस चुपचाप किसी ऐसी चीज के लिए खुद को जिम्मेदार मान लेना जिसमें उनकी कोई गलती नहीं थी। जब भट्ट को फांसी दी गई, तब भी वह आम दिनों की तरह काम करती रहीं और उसके बारे में कोई बात नहीं की। उसके बाद कश्मीर लंबे समय तक शांत रहा जब तक कि एक और शासन ने हालात को बिगाड़ नहीं दिया।

वापस आते हैं उस दिन पर जब श्रीमती गांधी म्हात्रे परिवार से मिलने गई थीं। उस दिन एक महिला सड़क पर माला लिए खड़ी थी। इंदिरा गांधी का काफिला आगे निकल गया लेकिन फिर अचानक रुक गया। श्रीमती गांधी अपनी कार से बाहर निकलीं। सुरक्षा कर्मचारियों के रोकने पर उन्होंने कहा, ‘वह काफी समय से तेज धूप में खड़ी होगी। मुझे उससे मिलना चाहिए।’ यह कहते हुए वह महिला के पास चली गईं। उससे बात करने पर पता चला कि वह तो पार्टी की कार्यकर्ता थी। इस पर इंदिरा नाराज हो गईं। देवड़ा ने बताया कि श्रीमती गांधी ने उस महिला से माला लेने से इनकार कर दिया और उसे झिड़की लगाई, ‘मैंने तो समझा कि तुम एक आम औरत हो! ऐसा फिर मत करना! एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में तो तुम मुझसे दूसरी तमाम जगहों पर मिल सकती थी! जिनके पास साधन और पहुंच नहीं है, वे सड़क के किनारे खड़े हैं। उनसे मिलना होगा और उनकी समस्याओं का समाधान करना होगा।’

वह महिला उस सीख और इंदिरा से उस मुलाकात को शायद ही कभी भुला पाई होगी!

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