लोकतांत्रिक चेतना और नागरिक अधिकारों की कटौती की परिस्थितियां तैयार कर रही है महंगाई

महंगाई महज चीजों की कीमत बढ़ने जैसी घटना नहीं है। महंगाई नीति हैं और वह लोकतांत्रिक चेतना और नागरिक अधिकारों की कटौती की परिस्थितियां तैयार करती है। वह चेतना को समझौते की तरफ मोड़ती है। जैसा है उसी में जीने की आदत डालती है।

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अनिल चमड़िया

मैंने दूकानदारों से पूछा कि वे उन चीजों के नाम बताएं जो उनके यहां पुराने दामों पर ही मिल रही है लेकिन उनका पैकेट छोटा हो गया है या फिर वजन कम कर दिया गया है। किसी ने बिस्कुट का कोई ब्रांड बताया तो किसी ने तेल और किसी ने चाय पत्ती का कोई ब्रांड।

संसद भवन में चाय पत्ती के लिए एक बिक्री काउंटर है, वहां दार्जलिंग की चाय  मिलती है। चाय पत्ती का 200 ग्राम का एक डिब्बा 400 रुपये में मिलता था लेकिन कंपनी ने उसे बंद कर दिया। अब उस हरे रंग में टिन का बना 25 ग्राम का एक नया डिब्बा निकाला है और उसकी कीमत है 270 रुपये। कीमत में यह फर्क 2020 के जनवरी  महीने और मई 2022 के अगस्त महीने के बीच आया है।

पैट्रोल और डीजल में आकार छोटा नहीं किया जा सकता है। लिहाजा उसकी महंगाई सबसे ज्यादा दिखती है। लेकिन रोजाना के इस्तेमाल में आने वाली चीजों की कीमत तेजी से बढ़ी है। जितनी बढ़ी है उतनी महसूस नहीं हो रही है। यह महंगाई के एहसास को महसूस नहीं कराने का एक मैनेजमेंट हैं।

इस मैनेजमेंट को मैंने 3 अगस्त 2014 को महूसस किया था । पन्द्रह रुपये गोभी। मैंने आधा किलो गोभी ले लिया और पैसे देने लगा । उसने मेरी और भौचक्के होकर देखा और बुरा सा चेहरा बनाकर पूछा। ‘ये क्या  दे रहे हैं ? ‘  मैंने कहा –पैसे तो और चिढ़कर बोला कि गोभी के तीस रुपये हुए। मैंने उन्हें याद दिलाया कि वे खुद गोभी का भाव पन्द्रह रुपये बता रहे थे। उसने जोर देकर कहा । जी , वहीं बता रहा था और वही पैसे मांग रहा हूं। मैंने कहा कि मतलब गोभी पन्द्रह रुपय़े पांव हैं? पता गोभी वाला बीस रुपये का भाव बता रहा था। मैंने पूछा कि बीस रुपये पांव तो उसने बताया नहीं आधा किलो। तब मैंने यह सब्जी की  महंगाई को महसूस नहीं कराने का एक मैनेजमेंट यह देखा कि सब्जी के भाव अब किलो के दर से नहीं बताए जा रहे हैं। 


महंगाई के साथ जीने की आदत डालने के तरीके

बाजारवाद और खुली अर्थ व्यवस्था की नीति के लागू होने के बाद धीरे धीरे सामानों की कीमत का बढ़ना उस नीति की जरुरत हैं। इसी तरह से इस व्यवस्था में महंगाई को महसूस नहीं कराने की भी रणनीति बाजार ने अपने तरीके से विकसित की है। महंगाई का होना और उसे इस हद तक महसूस नहीं होने देना कि वह एक राजनीतिक प्रश्न बन जाए, यह तकनीक बाजार को नियंत्रित करने वाले विचारों ने विकसित करने में सफलता हासिल की है। इसमें प्रचार माध्यमों का सबसे बेहतरीन इस्तेमाल होते देखा जा रहा है।

प्रचार माध्यमों से अर्थ महज नई नई तकनीक से ही नहीं है बल्कि प्रचार माध्यमों के लिए तैयार की जाने वाली सामग्री से हैं। दूसरा महंगाई के बरक्स  किस तरह की सामग्री परोसने से महंगाई जैसा पीड़ा को महसूस होने के हालात तक नहीं पहुंच सकती है, यह अध्ययन काफी दिलचस्प है। इसे  प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल करने वाले किसी भी व्यक्ति से पूछ कर जाना जा सकता है। यानी उसे महंगाई के एहसास को दबाने के लिए किस तरह की सामग्री का इस्तेमाल करना सिखा दिया गया है, यह जाना जा सकता है।

दरअसल नई अर्थ व्यवस्था पूरे मानव समाज को नए तरह से जीना सीखा रही है। महंगाई को वजन और साईज घटाकर महसूस नहीं होने देने का एक रंग मनोविज्ञान तैयार हुआ है तो वह विभिन्न स्तरों पर इसी तरह के चलने वाली योजनाओं के साथ जुड़ी हुई है। मसलन साल में सौ दिन एक परिवार को मजदूरी को एक स्वीकार्य नीति बनाने पर जोर क्यों द्या गया।

भारतीय राजनीति में पहले रोजगार और वह भी स्थायी रोजगार मुद्दा होता था। लेकिन वह राजनीतिक मंचों से गायब होता चला गया। रोजगार के कई सस्ते संस्करण बाजार में आ गए और लोगों ने यह भूलना भी शुरू कर दिया कि स्थायी रोजगार जैसी कोई चीज होती है। किसी भी परिवार को रोजाना खाना खाना होता है और उसे समाज में दूसरे बेहतर तरीके से जीने वालों के समान विकसित करना है। लेकिन सौ दिन के रोजगार का अर्थ यह हुआ कि एक व्यक्ति के सौ दिन की न्यूनतम कमाई से एक परिवार तीन सौ पैसठ दिन गुजारा करें।


महंगाई केवल चीजों की कीमत तक सीमित नहीं होती है

महंगाई को केवल कंपनियों या मार्केटिंग ग्रप की चीजों की कीमत बढ़ने तक सीमित  नहीं रहती है। वह एक तो संपति और पूंजी के केन्द्रीकरण की संस्कृति को विकसित करती है। दूसरा वह पूरे समाज में अपने लोकतांत्रिक चेतना को ढीला छोड़ देने की परिस्थितियां तैयार करती है। समाज नई तरह की विकृतियों कं चंगुल में फंसता जाता है। यह होता है कि उपर से जब ज्यादा से ज्यादा दोहन करने की नीति कारगर होने लगती है तो वह नीचे भी एक कार्य पद्धति के रुप में विकसित हो जाती है।

मसलन रेलवे में बेचे जाने वाले खाने की थाली में जितनी चीजें कम होती चली गई और उनकी मात्रा जितनी कम होती चली गई है, उसे रेलवे में यात्रा करने वाले अनुभवी लोग याद कर सकते हैं।राजधानी एक्सप्रेस में टुथ पीक नहीं मिलता। गुजरे जमाने की बात हो गई तब खाने के बाद सौंफ और  रंग बिरंगे मीठे दाने मिलते थे। कागज के नेपकीन का वजन कितना कम हुआ इसे कौन घ्यान करता है। बेड रोल मुहैया कराने का ठेका लेने वाली कंपनी ने जो दिहाड़ी पर मजदूर रेल में रखा है वह अपनी मजदूरी से जिंदगी को चलाने में भारी दिकक्त महसूस करता है । लिहाजा वह भी इस कोशिश में रहता है कि वह बेड रोल के साथ तौलिया देने से बचता है। वह घुले घुलाएं तौलिये को बचाकर अपनी जरुरतों की पूर्ति करना चाहता है।

मौटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि  महंगाई महज चीजों की कीमत बढ़ने जैसी घटना नहीं है। महंगाई नीति हैं और वह लोकतांत्रिक चेतना और नागरिक अधिकारों की कटौती की परिस्थितियां तैयार करती है। वह चेतना को समझौते की तरफ मोड़ती है। जैसा है उसी में जीने की आदत डालती है।

यह महसूस किया जा सकता है कि खाना जब सामने आता है तो महंगाई उसी वक्त दिखती है और वह भी अपने आपको कुंठित करने तक सीमित रहती है। फिर महंगाई के हालात से निपटने के लिए जोड़ तोड़, चापलूसी, चालाकियां आदि की संस्कृति की तरफ मोड़ देती है। महंगाई को किसी एक चुनाव के नशे में सराबोर पार्टी की बुराई के रुप में नहीं होती है  बल्कि वह एक खास तरह की अर्थव्यवस्था को विकसित करने की नीति का हिस्सा होती है।वह अर्थ व्यवस्ता जो राजनीति को नियंत्रित करती है।राजनीतिक दल समाज को मैनेज करते हैं तो वह मैनेजमेंट इसी तरह की अर्थ व्यवस्था के लिए ही होता है।

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