इजराइल में सत्ता के विरुद्ध खड़े बुद्धिजीवी

प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के लिकुड पार्टी की एक महिला सदस्य, टैली गोत्लिव ने कहा है, गाजा पर जमीनी हमले से बेहतर था परमाणु बम गिरा देना।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

प्रधानमंत्री मोदी भले ही भारत को सबसे पुराना प्रजातंत्र और सबसे बड़ा प्रजातंत्र बताते हों, पर वास्तविकता यह है कि हम एक मरे प्रजातंत्र के वासी हैं, जहां जनता खामोश हो चुकी है और सत्ता दिन-रात जनता को रौंद रही है। इरान में बमधमाके होने पर प्रधानमंत्री मोदी सांत्वना का तुरंत ट्वीट करते हैं, पर उन्हें बीजेपी सरकार वाले मणिपुर की कोई फ़िक्र नहीं है। इजराइल-हमास युद्ध में सुलह के लिए प्रधानमंत्री मोदी कभी इजराइल, कभी फिलिस्तिन और कभी ईजिप्ट के शासकों से बात करते हैं, पर अपने सुलगते देश की कोई चिंता नहीं है। किसी अदने क्रिकेट खिलाड़ी को चोट लगते ही हाल-चाल लेने वाले प्रधानमंत्री के राज में सभी बड़े पहलवानों ने अपने पदक छोड़ दिए और प्रधानमंत्री जी बेशर्मी से महिलाओं के सशक्तीकरण पर बात कर रहे हैं। शायद ही किसी देश का कोई भी प्रधानमंत्री हो जो हरेक समय छोटे-बड़े चुनावों में व्यस्त रहता हो और जनता से गारंटियों और सौगात की बात करता हो। अपने लोकप्रियता और चुनावों में मिली सीटों पर जनता के सामने इतराने वाले प्रधानमंत्री वास्तविक तौर पर कितने डर में रहते हैं यह सब ईडी, सीबीआई की हरकतों और बीजेपी के आईटी सेल के कारनामों से समझ में आता है। दिनभर दूसरों का भद्दा माखौल उड़ाती सत्ता एक चुटकुले से हिल जाती है।

देश की मेनस्ट्रीम मीडिया, हरेक संवैधानिक संस्था और न्यायालय भी इसी राग में व्यस्त हैं। सबसे आश्चर्य यह है कि देश की जनता भी गहरी नींद में चली गयी है। पर, निरंकुश सत्ता वाले हरेक देश में स्थिति ऐसी नहीं है। रूस, चीन, ईरान और म्यांमार जैसे देशों में भी जनता विरोध के लिए सड़कों पर उतर जाती है और अपने स्वर बुलंद करती है। इजराइल में भी यही हो रहा है – पहले प्रधानमंत्री द्वारा न्यायपालिका पर हमलों के विरोध में और अब इजराइल द्वारा गाजापट्टी में किये जा रहे नरसंहार के विरोध में जनता सड़को पर उतर रही है। यही नहीं, इजराइल में बुद्धिजीवी भी एकजुट होकर नरसंहार का और नेताओं द्वारा युद्ध के दौरान दिए जा रहे भड़काऊ भाषणों और वक्तव्यों का विरोध कर रहे हैं।

हाल में ही इजराइल के बुद्धिजीवियों ने अटॉर्नी जनरल, सर्वोच्च न्यायालय और दूसरे न्यायालयों को एक संयुक्त पत्र के माध्यम से कहा है कि देश के नेताओं, कुछ पत्रकारों और दूसरे प्रभावी व्यक्तियों द्वारा नरसंहार को बढ़ावा देने वाले, महिमा मंडन करने वाले और फिलिस्तीनियों का अपमान करने वाले वक्तव्यों पर न्यायालय कोई भी संज्ञान नहीं लेकर या कार्यवाही न कर के एक बड़ी गलती कर रही है। इसके परिणामस्वरूप इजराइल के कुछ प्रभावी नागरिक ऐसे वक्तव्य बार-बार दुहरा रहे हैं और इसे एक “न्यू नार्मल” बना रहे हैं। इस तरह के हिंसक और भड़काऊ वक्तव्य इजराइल के साथ ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों के विरुद्ध हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है जब गाजा में रह रहे लाखों नागरिकों की हत्या के लिए इतने बड़े पैमाने पर वक्तव्य दिए जा रहे हैं और यह सब अब तो इस्राईली रोजमर्रा की भाषा बन गयी है। इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में इजराइल के वरिष्ठ वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, सेवानिवृत्त राजनइक, संसद सदस्य, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता सम्मिलित हैं। 11 पृष्ठों के इस पूरे पत्र का समन्वयन मानवाधिकार अधिवक्ता माइकल स्फार्ड ने किया है।


इस पत्र में अनेक ऐसे भड़काऊ और हिंसक बयानों के उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं। ऐसे बयान मंत्रियों, संसद सदस्यों, सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों, कुछ पत्रकारों और सोशल मीडिया युजर्स द्वारा दिए गए हैं। इस पत्र में यह कहा गया है कि ये सभी समाज के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं और जनता को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं – संभव है ऐसे बयानों से समाज हिंसा और हत्या को एक नए नजरिये से देखना शुरू कर दे। एक संसद सदस्य, यित्ज्हक क्रोइज़ेर ने वक्तव्य दिया था कि गाजा को समतल कर देना चाहिए और वहां के हरेक नागरिक को मौत देनी चाहिए। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के लिकुड पार्टी की एक महिला सदस्य, टैली गोत्लिव ने कहा है, गाजा पर जमीनी हमले से बेहतर था परमाणु बम गिरा देना। एक पत्रकार, ज्वी येहेज्केली ने एक रिपोर्ट में बताया कि इजराइल को गाजा में 20000 नहीं बल्कि कम से कम एक लाख लोगों की ह्त्या करनी चाहिए। इजराइल के रक्षामंत्री ने गाजा में रहे वाले फिलिस्तीनियों को “मानव पशु” करार दिया है और कहा है कि उन्हें जिंदा रहने का कोई अधिकार नहीं है।

अपने पत्र द्वारा अधिवक्ता माइकल स्फार्ड ने बताया है कि हिंसक और भड़काऊ वक्तव्यों का प्रसार इतनी तेजी से हो रहा है कि इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसी भाषा अब समाज के रोजमर्रा का हिस्सा बन गयी हैं। सामान्य नागरिक और सेना भी इससे प्रभावित हो रही है। गाजा में लगभग 23 लाख लोग बसते है, जिनमें अधिकतर किशोर हैं, और युद्ध के बाद सामान्य जनता भी उनसे कैसा वर्ताव करेगी, इसे समझाना कठिन नहीं है। दूसरी तरफ इजराइल में जो फिलिस्तीनी हैं उन्हें ऐसे ही वक्तव्यों पर दण्डित किया जा रहा है – इसे मामलों में 269 जांच चल रही है और 86 मुकदमे दायर किये जा चुके हैं। दूसरी तरफ, हम एकतरफा कार्यवाही कर दुनियाभर में बसे यहूदियों के विरुद्ध नफरत को हवा दे रहे हैं। सेना की स्थिति यह हो गयी है कि उसे हरेक बंदूकधारी फिलिस्तीनी आतंवादी नजर आने लगा है और यही सोच अनेक इजराइल के नागरिकों की ह्त्या का कारण बन रहा है। इस पत्र में एक उदाहरण भी दिया गया है – नवम्बर 2023 में युवाल डोरों केस्तेलमन नामक एक नागरिक ने जेरुसलम के बस स्टैंड पर दो आतंवादियों को देखा और उन्हें गोली मार दी। इसके ठीक बाद जा सेना वहां आई तब युवाल डोरों केस्तेलमन के हाथों में बंदूक देखकर बिना किसी जांच या पूछताछ के ही उन्हें आतंकवादी समझकर गोली मार दी।

पत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि इसमें इजराइल-हमास युद्ध या गाजा में सेना की बर्बरता का विरोध नहीं है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी भर्त्सना की जा रही है। यह पात्र, इजराइल के जिम्मेदार नागरिको द्वारा हिंसक और भड़काऊ वक्तव्यों के विरुद्ध है क्योकि यह इजराइल के नागरिकों की पहचान, भाषा और बौद्धिक क्षमता को बदल सकता है और इससे समाज के तौर पर हमारी पहचान प्रभावित होगी।

इसी बीच दक्षिण अफ्रीका ने इन्टरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में इजराइल के विरुद्ध नरसंहार का मुकदमा दायर किया है, जिसमें तत्काल युद्ध-विराम की मांग की गयी है। रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस के विरुद्ध भी ऐसा मुकदमा दायर किया गया था, और इन्टरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस के फैसले के बाद भी युद्ध अभी तक जारी है।

इजराइल-हमास युद्ध अब बेंजामिन नेतान्याहू के अस्तित्व का प्रश्न है, जनता उनसे नाराज है और उन्हें अपराधी मानती है। उनके लिए अब जनता में लोकप्रियता बढाने का युद्ध और दुष्प्रचार का एक मौका है। इसी बीच नेतान्याहू ने न्यायाधीशों के अधिकार को कम करने का जो क़ानून बनाया था, जिसके विरुद्ध जनता सड़कों पर उतर गयी थी – उसे सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है।

हमारे देश में भी राजा को लोकप्रियता बढ़ाने के लिए भड़काऊ वक्तव्यों, दंगों, मंडियों और धर्म विशेष के विरुद्ध नफरत के प्रसार का सहारा लेना पड़ता है। इसके साथ ही सत्ता ही न्यायपालिका पर लगातार हमले भी करती है। मीडिया और जनता की सोच तो देखिये – चीन में मोदी जी की तारीफ़ मोदी जी की उपलब्धि है, पर यही तारीफ़ अगर राहुल गाँधी की होती तो मीडिया और जनता के बयान ठीक उलटे होते। पर, जनता चिर-निद्रा में है और राजा अट्टाहास कर रहा है।

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