आकार पटेल का लेख: क्या देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने से हो जाएगा सभी समस्याओं का समाधान!

फैज़ान मुस्तफा और सईद नकवी दोनों ही विद्धान और अनुभवी लोग हैं। वे क्या कह रहे हैं उसे यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता और हमें उनके शब्दों को अर्थों को गहराई से समझना होगा। लेकिन क्या इससे समस्याओँ का समाधान हो जाएगा?

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आकार पटेल

ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा अब जिंदा हो चुका है और अगर दशकों तक नहीं तो कम से कम कई वर्षों तक हमारे साथ रहने वाला है, बिल्कुल उसी तरह जैसे कि अयोध्या का मुद्दा कई दशकों तक जिंदा रहा था। इस मुद्दे से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं या क्या अनुमान लगा सकते हैं? अभी हाल में एक इंटरव्यू में, हैदराबाद के राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के कुलपति फैजान मुस्तफा ने मौजूदा दौर के कानूनी मुद्दों के बारे में बात की।

मूल विश्वास यह है कि बाबरी मामले के चरण के दौरान संसद से पारित पूजा स्थल अधिनियम, काशी में ज्ञानवापी मस्जिद की रक्षा करेगा। फैजान मुस्तफा ने कहा कि जरूरी नहीं कि ऐसा हो। सबसी पहली बात तो यही कि सुप्रीम कोर्ट इस अधिनियम को रद्द कर सकता है क्योंकि इसमें न्यायिक समीक्षा की अनुमति नहीं है। मतलब न्यायाधीशों को किसी भी ऐसे विवाद पर निर्णय लेने से रोक दिया गया था कि कोई पूजा स्थल वास्तव में एक मस्जिद या मंदिर या गुरुद्वारा या चर्च था, और वर्तमान क्या है। न्यायिक समीक्षा पर रोक के चलते यह 'बुनियादी संरचना' सिद्धांत के खिलाफ है और इसी आधार पर पूजा स्थल अधिनियम को समाप्त किया जा सकता था। और इसके बाद तो काशी की ज्ञानवापी मस्जिद का वही होगा जो अयोध्या मामले में हुआ।

दूसरी बात यह कि संसद के यह अधिकार है कि वह पूजा स्थल अधिनियम को खुद ही खत्म कर दे या वापस ले और बीजेपी में तो ऐसी आवाजें उठने ही लगी हैं। वैसे में संसद में मौजूदा संख्याबल को देखते हुए ऐसा करना कोई मुश्किल काम भी नहीं है। मुस्तफा ने कहा कि दरअसल मुसलमानों को कोई न्यायिक रक्षा कवच मिला ही नहीं हुआ है, ऐसे में उन्हें हिंदुओं के साथ सुलह का रास्ता ही अपनाना चाहिए। यानी वे स्वेच्छा से कुछ मस्जिदों को हिंदुओं को सौंप दें और इस तरह ऐसे मुद्दों को हमेशा के लिए खत्म कर दें।

इसी तरह की बात वरिष्ठ पत्रकार सईद नकवी ने भी कही थी जिनके साथ मैंने पिछले दिनों बेंग्लोर इंटरनेशनल सेंटर में बातचीत की थी। नकवी को लगता है कि हिंदू इस बात से नाराज है कि पाकिस्तान तो इस्लामी देश बन गया लेकिन भारत अभी तक सेक्युलर क्यों बना हुआ है। अगर भारत को औपचारिक तौर पर हिंदू राष्ट्र बना दिया जाए तो हिंदुओं को शिकायत का मौका ही नहीं मिलेगा। उनका कहना था कि एक तरह से तो यह भारत के लिए कुछ अच्छा ही होगा। उन्होंने यूनाइटेड किंगडम का हवाला दिया कि अधिकारिक तौर पर तो यूके में राजशाही है लेकिन फिर भी वहां ऋषि सुनाक या साजिद जावेद जैसे लोग उच्च पदों पर बैठ सकते हैं, लेकिन भारत में यह संभव नहीं है।


मुस्तफा और नकवी दोनों ही विद्धान और जानकार और अनुभवी लोग हैं। वे क्या कह रहे हैं उसे यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता और हमें उनके शब्दों को अर्थों को गहराई से समझना होगा। लेकिन मैं यहां एक दूसरे ही पहलू पर नजर डालना चाहता हूं। क्या हिंदुओं को अपने ही संविधान से शिकायत है? और दूसरी बात कि काशी में जो हो रहा है फिर अयोध्या में जो हुआ उसमें ऐतिहासिक भूलों को लेकर शिकायतें हैं?

शायद ऐसा ही है और इसे समझने के लिए हम मानकर चल सकते हैं कि ऐसा ही है। इसके बाद क्या होगा कि इस ताजा अदालती मामले के अलावा हमारे आसपास क्या हो रहा है। 2014 के बाद और खासतौर से 2019 के बाद से कई ऐसे कदम बीजेपी सरकारों ने उठाए हैं जिनमें निशाने पर मुस्लिम ही है। तीन तलाक का अपराधीकरण, कश्मीर के लोकतंत्र और स्वायत्तता को खत्म करना, बीफ रखने का अपराधीकरण, हिजाब पर पाबंदी, तय जगहों पर नमाज़ पर प्रतिबंध, मंदिरों के पास मुसलमानों के सामान बेचने पर पाबंदी, कोविड फैलाने के लिए मुसलमानों को दोष देना, ज्यादातर मुस्लिम घरों और दुकानों के खिलाफ बुलडोजर का इस्तेमाल। ये वो कार्यवाहियां हैं जिनमें पूरा देश व्यस्त है और बीते करीब 36 महीनों से यही सब खबरों की सुर्खियों में भी है।

मुस्तफा और नकवी जो कह रहे हैं, उसे सही मानने के लिए हमें यह मान लेना होगा कि ये सारी बातें हिंदू आक्रोश के कारण हैं कि वे एक धर्मनिरपेक्ष देश में फंसे हुए हैं या फिर ये सब मुगलों के खिलाफ उनकी ऐतिहासिक शिकायत का नताजा है।

तो क्या ऐसा ही है? मैं इसका जवाब नहीं देन चाहता क्योंकि अच्छा होगा कि हम खुद से ही पूछें की असली मुद्दा दरअसल है क्या, बशर्ते कोई असली मुद्दा हो।

दूसरी बात जो खुद से पूछनी है कि क्या हमें अपने देश का नाम आधिकारिक तौर पर बदलना है और हिंदू राष्ट्र बनना है, अगर मुसलमानों के साथ सुलूक और राजनीतिक सत्ता में उनका समावेश बदल दिया जाता है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि इस समय भारत में कोई भी मुसलमान भारत का प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा नहीं कर सकता जैसा कि सुनक या जावेद ब्रिटेन में कर सकते हैं। क्या देश का नाम बदलने से इस मुस्लिम बहिष्कार की हकीकत भी बदल जाती है? लेकिन इस सब पर हमें सोचना होगा।


बेशक, हर किसी को अपनी धार्मिक पहचान तक सीमित करने और समाज को हिंदू और मुस्लिम के रूप में देखना भी समस्या है। सामूहिक पहचान आदिम समाजों की निशानी है। लोकतंत्र में, सबसे महत्वपूर्ण इकाई व्यक्ति है, जिसके पास ऐसे अधिकार हैं जिनका सरकार को सम्मान करना चाहिए। एक व्यक्ति को एक समूह से अलग एक अकेले इंसान के रूप में परिभाषित किया जाता है। मौलिक अधिकार व्यक्ति को संबोधित हैं। हमारे संविधान में "किसी भी व्यक्ति" (अनुच्छेद 14) को समानता से वंचित नहीं किया जा सकता है, सरकार "किसी भी नागरिक" (अनुच्छेद 15) के साथ भेदभाव नहीं कर सकती है।

ये वे मुद्दे हैं जो आज हमारे सामने हैं। हमारे पास दो नेक इरादे वाले लोग हैं जो उन्हें लगता है कि सुलह के संदर्भ में किए जाने चाहिए। यह बीजेपी के लिए अच्छा होगा, क्योंकि वह सरकार में है और यहां बताए गए सारे अभियानों और कानूनों और नीतियों में सबसे आगे रही है, और इससे साफ हो जाता है कि उसका इरादा क्या है। आखिर वह क्या है जो दुश्मनी और आक्रोश और हिंसा को खत्म कर सकता है। अगर हमें यह पता लग जाए तो नतीजा अच्छा ही होगा।

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