75वां स्वतंत्रता दिवस: आजाद भारत के मूल आदर्शों को भुलाकर आखिर कहां पहुंच गए हैं हम

ऐसे वक्त जब हम स्वतंत्रता के 75वें वर्ष का जश्न मना रहे हैं, क्या यह कहना कुछ ज्यादा हो जाएगा कि हमें 1947 के उन उच्च आदर्शों को अपनाने की इच्छा और प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए?

फोटो : Getty Images
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मृदुला मुखर्जी

भारत माता एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपने जीवन के 75वें वर्ष में कदम रख रही है, तो ऐसे समय में वह एक सुखद निश्चिंत मुस्कान की हकदार थी जो पीछे मुड़कर देखने पर अच्छी तरह गुजर-बसर कर रहे बेटे-बेटियों, स्वस्थ और प्रफुल्लित पोते-पोतियों और नाती-नातिनों, पूर्वजों ने जो मूल्य दिए, उन्हें पोषित करती पीढ़ियों और इस तरह उनके आगे भी खिलते रहने की आश्वस्ति के कारण चेहरे पर तैर जाती। निस्संदेह, जिनकी देखरेख में भारत माता का जन्म हुआ, उन्हें उम्मीद थी कि औपनिवेशिक अतीत के काले और विभाजनकारी बादल बहुत जल्दी छंट जाएंगे और शांति, सद्भाव और कल्याण के युग का उदय होगा। जरा कल्पना कीजिए, अगर तब जानकार ज्योतिषियों और टैरो कार्ड रीडर ने उन्हें, आज हम जिस तरह का जीवन जी रहे हैं, के बारे में बताया होता तो उन्हें कितना आश्चर्य होता, सदमा लगता!

संसद सत्र यूं ही जाया हो गया क्योंकि सरकार और उसकी एजेंसियों पर अपने ही नागरिकों की जासूसी का संदेह है, राष्ट्रीय राजधानी के बंद दरवाजों पर महीनों से खुले में हजारों किसान बैठे हैं कि बहरी दिल्ली को कभी तो उनकी व्यथा-कथा सुनाई देगी, गंगा में तैरते शवों की खबर छापने वाले अखबार पर आयकर अधिकारियों द्वारा छापेमारी की जाती है और कभी भोली-भाली महिलाओं की रक्षा, कभी जनसंख्या वृद्धि को रोकने तो कभी नागरिकता देने के नाम पर खास समुदाय को निशाना बनाने के लिए कानून बनाए जाते हैं।

अपना पूरा जीवन गरीब आदिवासियों के अधिकारों के लिए समर्पित कर देने वाले 84 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी की हिरासत में मौत या सैकड़ों अन्य शिक्षकों, छात्रों, पत्रकारों, मानवाधिकार और किसान अधिकारों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्टों, वकीलों, कवियों को जेलों में विचाराधीन कैदियों के रूप में बंद रखे जाने के बारे में वे क्या सफाई सोचेंगे? इन कैदियों में से कई तो सालों से बंद हैं और अब तक आरोप भी नहीं तय किए गए लेकिन उन पर अर्बन नक्सल या राष्ट्र-विरोधी होने का ठप्पा लगा दिया गया। अल्पसंख्यक या शोषित वर्ग के लोगों की लिंचिंग के नए खोजे गए खेल के बारे में वे क्या कहेंगे? या उस संगठित हिंसा के बारे में क्या कहेंगे जिसमें लोगों का घर-बार बर्बाद हो जाता है, काम-धंधा छूट जाता है जैसाकि मुजफ्फरनगर या उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुआ? या फिर कोविड लॉकडाउन के दौरान लाखों गरीबों को सिर पर अपना सामान, गोद में बच्चों को लेकर चिलचिलाती धूप में सैकड़ों-हजारों किलोमीटर भूखे पैदल चलने को मजबूर लोगों को देखकर क्या समझेंगे?

यह सब देखकर किसी व्यक्ति को यह भी लग सकता है कि यहां सरकार अपने ही लोगों के साथ युद्ध में है; कि भारत अंदर से बंटा हुआ है; कि आर्थिक, सामाजिक और सत्ता के अभिजातों की सोच है कि वे हर माह पांच किलो मुफ्त चावल या गेहूं देकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा मानकर गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों की ओर से मुंह मोड़ सकते हैं।


निस्संदेह, इस गणतंत्र के निर्माताओं को एक तरफ उनके बनाए गए आदर्शों, उन्हें व्यवहार में उतारने के लिए उनके अपने प्रयासों, और दूसरी तरफ आज उनका जिस तरह बिना किसी कीमत चुकाए उल्लंघन हो रहा है- इन दोनों में अंतर साफ दिखाई देता होगा। आजादी से ठीक पहले और बाद की अवधि में उन्हें जिस संकट का सामना करना पड़ा था, उसमें बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा, बड़ी आबादी का विस्थापन, महात्मा गांधी की हत्या की घटनाएं थीं और देश ने आज महामारी के इस दौर समेत कभी भी इतने सारे संकट एक साथ नहीं देखे। फिर भी, जब देश प्रलय-जैसे हालात का सामना कर रहा था जिसमें हजारों लोगों की हत्या हो गई थी और लाखों बेघर हो गए थे, तब भी अविश्वसनीय प्रतिबद्धता और हिम्मत के साथ देश ने संकट का सामना किया। गांधीजी की हत्या के बाद सांप्रदायिकतावादियों के खिलाफ जनमानस विकसित हुआ और यहां तक कि इनके समर्थकों तक में घृणा का भाव भर गया और ऐसे माहौल में सरकार ने भी इन तत्वों के खिलाफ अपनी ताकत का प्रभावी इस्तेमाल किया। नतीजा हुआ कि सांप्रदायिकतावादियों को रोका जा सका और सांप्रदायिकता एक गंदा शब्द बन गया।

मुस्लिम लीग द्वारा आहूत ‘डायरेक्ट ऐक्शन’ के साथ सांप्रदायिक माहौल बिगड़ने लगा जिसके कारण अगस्त, 1946 में कलकत्ता में बड़े पैमाने पर हत्याएं हुईं और उसके बाद नोआखली से सांप्रदायिक नरसंहार की दिल दहला देने वाली खबर आई। यह सब देख गांधी जी समझ गए कि जिन आदर्शों के लिए इतने सारे लोगों ने अपना सब कुछ त्याग दिया, वही आदर्श मंजिल तक पहुंचने के समय हाथ से छूटते जा रहे हैं। इसी का जवाब ढूंढने की कोशिश में उन्होंने भारत की सभ्यतागत सच्चाई के साथ अपना सबसे अदभुत और प्रेरक ऐतिहासिक प्रयोग शुरू किया।

वह अपने चंद साथियों के साथ नोआखली गए। सिर्फ एक दौरे या भेंट के लिए नहीं, जैसे कि नेता लोग अक्सर जाते हैं बल्कि रहने के लिए- उतनी देर रहने के लिए जितना जरूरी हो। उन्होंने पहले दो सप्ताह प्रभावित क्षेत्र के गांवों और कस्बों का दौरा किया और लोगों से मुलाकात की। फिर वह श्रीरामपुर गांव में जम गए और अगले 43 दिन वहीं बिताए। उन्होंने जल्द ही अपने दो सहयोगियों- जो उनके टाइपिस्ट थे और निर्मल कुमार बोस जो उनके दुभाषिया थे, को छोड़कर सभी को वापस भेज दिया। इस तरह उन्होंने खुद को बुनियादी देखभाल और छोटी-मोटी सुख-सुविधाओं से भी वंचित कर दिया। फिर पदयात्रा शुरू की जिसमें किसी गांव में एक रात से ज्यादा नहीं सोए। यह सत्याग्रही अपने को कष्ट देकर लोगों का दिल जीतने की कोशिश कर रहा था। जब उन्हें रोकने के लिए रास्ते में टूटे शीशे और मलमूत्र फेंके गए तो उसके जवाब में उन्होंने चप्पल भी उतारकर नंगे पांव चलने का फैसला किया। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ गीत अक्सर उनकी जुबान पर होता था और ऐसा लगता था, मानो इस गीत की रचना उनके लिए ही की गई हो।

वह 6 नवंबर, 1946 से 4 मार्च, 1947 तक भारत के इस सुदूर कोने में रहे। आज भी यह समझना मुश्किल है कि एक विशाल देश का सबसे सम्मानित नेता, ऐसे समय जब औपनिवेशिक सत्ता से स्वतंत्रता के लिए देश कठिन वार्ताओं के दौर से गुजर रहा हो, अपने ही आंदोलन से इतने लंबे समय के लिए कैसे अलग रह सकता है।


गांधीजी के चुने हुए उत्तराधिकारी जवाहर लाल नेहरू तब अंतरिम सरकार के मुखिया थे और उन्होंने सांप्रदायिकता के खिलाफ युद्ध का नेतृत्व किया। अगस्त, 1946 में डायरेक्ट ऐक्शन के दौरान कलकत्ता में बड़ी संख्या में बिहारियों के मारे जाने की खबर के बाद से ही लोगों में गुस्सा पनप रहा था। नोआखली की खबर ने इसे और भड़का दिया और 25 अक्टूबर, 1946 को बिहार में सांप्रदायिक अशांति फैलगई। पटना, गया और मुंगेर के गांवों में हिंदू किसानों का जत्था घूमा और मुसलमानों के गांवों का सफाया कर दिया गया।

नेहरू भागकर बिहार पहुंचे और वहां अमन-चैन कायम करने में जितने भी दिन लगें, वही रहने की घोषणा की। 4 से 9 नवंबर के बीच नेहरू, पटेल, राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद, आचार्य कृपलानी, जयप्रकाश नारायण, अनुग्रह नारायण सिंह और कई अन्य कांग्रेस नेताओं ने प्रभावित क्षेत्रों की यात्राएं कीं। जनसभाएं कीं और अधिकारियों के साथ-साथ आम लोगों से भी मुलाकात करके उन्हें भरोसा दिलाया कि पीड़ितों को शीघ्र मदद दी जाएगी और हिंसा करने वालों को पागलपन से बाज आने को समझाया। नेहरू ने भी हिंसा रेकने में बल प्रयोग से संकोच नहीं किया और सेना तक का इस्तेमाल किया। नतीजा यह रहा कि दो हफ्ते से भी कम समय में स्थिति पर काबू पा लिया गया।

वास्तव में यह बिहार ही है जहां हमें नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के बारे में स्पष्ट, दृढ़ और यहां तक कि भावनात्मक जुड़ाव की पहली झलक मिलती है जिन्होंने भारत को विभाजन के उस उथल-पुथल भरे माहौल से निकाला जिसमें सांप्रदायिक दबाव अपने चरम पर था। तब उन्होंने कहा था, ‘मैं सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए गांव-गांव जाऊंगा … अगर कोई अपने हमवतन को मारना चाहता है, तो उसे पहले जवाहर लाल की हत्या करनी होगी और फिर मेरी लाश को रौंदकर ही वह खून की अपनी वासना को पूरा कर सकेगा।’

सांप्रदायिक संघर्ष, विभाजन और जनसंख्या के बड़े पैमाने पर हस्तांतरण के मद्देनजर 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता के आगमन ने कांग्रेस के नेताओं पर और विशेष रूप से पहले प्रधानमंत्री नेहरू पर और भी अधिक जिम्मेदारी डाल दी।

लाखों हिंदू और सिख शरणार्थियों के पूर्वी पंजाब और दिल्ली में आने के साथ ही स्थिति और गंभीर हो गई। अगस्त में पूर्वी पंजाब में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और फिर सितंबर, 1947 में दिल्ली में। 16 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से तिरंगा फहराते हुए नेहरू ने कड़ी चेतावनी देते हुए एक बड़ा वादा किया: ‘सरकार का पहला काम देश में अमन-चैन स्थापित करने, उसे कायम रखने और सांप्रदायिक संघर्ष को सख्ती से दबाने का होगा... यह सोचना गलत है कि इस देश में किसी एक धर्म या पंथ का शासन होगा। देश के ध्वज के प्रति निष्ठा रखने वाले सभी लोगों को नागरिकता के समान अधिकार प्राप्त होंगे, चाहे वे किसी भी जाति या पंथ के हों।’

पहली त्रासदी छह माह बाद ही 30 जनवरी, 1948 को एक और भयावह त्रासदी ने भारत को आ घेरा। अगर विभाजन के लिए मोटे तौर पर उपनिवेशवाद समर्थित मुस्लिम सांप्रदायिकता को जिम्मेदार ठहराया जाता है तो हिंदू सांप्रदायिकता ‘महानतम जीवित हिंदू’ की हत्या के लिए जिम्मेदार है। सरकार और तब के गृहमंत्री सरदार पटेल की सोच इस मामले में एकदम स्पष्ट थी और पांच दिनों के भीतर ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया और इसके लगभग 25,000 कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। 4 फरवरी, 1948 को सरकारी विज्ञप्ति में आरएसएस को गैरकानूनी घोषित करने के कारण बताए गए: ‘यह पाया गया है कि देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य आगजनी, डकैती और हत्या से जुड़े हिंसा के कृत्यों में लिप्त हैं और उन्होंने अवैध हथियार और गोला बारूद इकट्ठा कर लिए हैं। वे लोगों को आतंकवादी तरीकों का सहारा लेने, आग्नेयास्त्रों को इकट्ठा करने, सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करने और पुलिस और सेना पर काबू करने के लिए उकसाने के परचे बांटते पाए गए हैं।’


ऐसी कार्रवाई पर आपत्ति जताने पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सरदार पटेल ने कहा था: ‘आरएसएस की गतिविधियों ने सरकार और देश के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है।’

बॉम्बे के मुख्यमंत्री बी.जी. खेर पहले ही सरदार पटेल को भेजे संदेश में हिंदू महासभा की भूमिका की ओर इशारा कर चुके थे: “हिंदू महासभा द्वारा कांग्रेस और महात्मा के खिलाफ नफरत का माहौल बनाए जाने की परिणति महात्मा गांधी की हत्या के रूप में हुई।’

ऐसे वक्त जब हम स्वतंत्रता के 75वें वर्ष का जश्न मना रहे हैं, क्या यह कहना कुछ ज्यादा हो जाएगा कि हमें 1947 के उन उच्च आदर्शों को अपनाने की इच्छा और प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए?

(लेखिका जेएनयू में इतिहास की पूर्व प्रोफेसर और नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय की पूर्व निदेशक हैं)

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