वक्त-बेवक्त: ‘सबै भूमि गोपाल की’ है और धरती ‘कुटुम्ब’ है तो क्या नैतिक और न्यायपूर्ण होगा किसी को बेदखल करना?

असम में राष्ट्रीय नागरिकता सूची के प्रकाशन ने जैसे वह कहावती बोतल खोल दी है जिसमें जिन्न बंद था। अब वह बाहर आ गया है और राज्य सरकार, केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय उसे वापस बोतल में बंद करने की जुगत भिड़ा रहे हैं। वह जिन्न असम के क़रीबी मेघालय में अब अपने करतब दिखा रहा है।

फोटो: सोशल मीडिया
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अपूर्वानंद

मेघालय में असम की तरह ही नागरिकता सूची बनाने की मांग की जा रही है। ख़ासी छात्र संघ ने मुख्यमंत्री को कहा है कि 1971 को आख़िरी साल मानकर उसके बाद आए लोगों को मेघालय से बाहर करने का काम किया जाना चाहिए। इस तरह असम में राष्ट्रीय नागरिकता सूची के प्रकाशन ने जैसे वह कहावती बोतल खोल दी है जिसमें जिन्न बंद था। अब वह बाहर आ गया है और राज्य सरकार, केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय उसे वापस बोतल में बंद करने की जुगत भिड़ा रहे हैं। वह जिन्न असम के क़रीबी मेघालय में अब अपने करतब दिखा रहा है।

मेघालय से होकर गुज़रनेवाले असम के लोगों की पिटाई हो रही है। ख़ासी छात्र संघ ने जगह-जगह गुमटियां बिठा दी हैं जिन्हें वे घुसपैठिया जांच केंद्र कह रहे हैं। शिलांग टाइम्स के मुताबिक़, उन्होंने पश्चिमी ख़ासी पहाड़ी, राई भोयी और पूर्व जयंतिया पहाड़ी में “चेक पोस्ट” बना लिए हैं। यहां वे असम से आनेवाले लोगों की जांच कर रहे हैं कि उनके पास नागरिकता के पर्याप्त प्रमाण हैं या नहीं। उनका दावा है कि जिनके पास पूरे काग़ज़ नहीं हैं, ऐसे 1500 लोगों को उन्होंने मेघालय की सीमा से वापस पीछे धकेल दिया है। सिलचर की सांसद सुष्मिता देव का कहना है और ‘स्क्रोल’ ने भी रिपोर्ट किया है कि ऐसे कई लोगों के साथ हिंसा भी हो रही है।

मेघालय के मुख्यमंत्री ने इस राज्येतर पुलिसिया हरकत पर सिर्फ़ यह कहा है कि ख़ासी छात्र संघ को जो उचित लग रहा है वह कर रहा है। हां! राज्य के अलावा किसी अन्य संस्था को यह नहीं करना चाहिए। छात्र संघ के साथ पुलिस भी खड़ी दिखलाई दे रही है।

क्या इसे भीड़ का राज कह सकते हैं? क्या आपको इस ख़बर से उन समूहों की याद आ रही है जो गाय की तस्करी या गोमांस का कारोबार रोकने के लिए पूरे भारत में पुलिस के साथ मिलकर काम कर रहे हैं? क्या यह कहना अतिरंजना है कि अभी जो मेघालय में हो रहा है, वह मॉब लिंचिंग का पहला क़दम है।

क्यों मुख्यमंत्री का स्वर इस ग़ैर-क़ानूनी हिंसा पर कमज़ोर है? इसके पहले हमें उस मांग को सुनना चाहिए जो मेघालय में उठ रही है। इसके मुताबिक़, बांग्लादेश, नेपाल, असम और भारत के दूसरे हिस्सों से घुसपैठिए राज्य में घुसते जाते रहे हैं और ऐसा दिन आ सकता है कि स्थानीय आबादियां अल्पसंख्यक हो जाएं। इसलिए राज्य की अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए ग़ैर-नागरिकों की पहचान की जानी चाहिए।

क्या यह मांग ग़ै- वाजिब है? जब संसद में शासक दल का अध्यक्ष सीना ठोंक कर कहे कि जो हमने असम में किया वह अब हम बंगाल में करेंगे तो “बंगाल ही क्यों” का प्रश्न उठ सकता है। आख़िर मिज़ोरम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश ने क्या गुनाह किया है कि उन्हें बाहरी लोगों का बोझ उठाते ही जाना हो?

तो क्या सिर्फ़ सरहदी राज्यों में घुसपैठियों की चिंता हो और दिल्ली में नहीं? भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली अध्यक्ष ने दिल्ली को भी बांग्लादेशी घुसपैठियों से मुक्त करने की मांग कर डाली है। आरएसएस से उधार लिए गए बीजेपी के एक महासचिव ने बयान दिया है कि सारे रोहिंग्या लोगों को चुन-चुन कर देश से बाहर कर दिया जाएगा।

असम में 40 लाख से अधिक लोग सांस रोककर अपने भविष्य के बारे में भारत के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अख़बार आपको इस कार्रवाई की विसंगतियों के उदाहरण पेश कर रहे हैं। पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के रिश्तेदार सूची से बाहर हैं, केंद्रीय आद्योगिक सुरक्षा बल के सिपाही इसमें नहीं हैं, सैनिक इससे बाहर हैं।

अब जबकि ग़ैर-नागरिक होने की आशंका लाखों लोगों को उद्वेलित कर रही है, न्यायालय, सरकार भरोसा दिला रही है कि सूची से बाहर होने का मतलब ग़ैर-क़ानूनी हो जाना नहीं है। अभी मौक़े हैं, फिर अर्ज़ी दी जा सकती है और दुबारा सबके दावे पर विचार होगा। लेकिन इस प्रक्रिया ने जो अनिश्चितता पैदा कर दी है उसके राजनीतिक और सामाजिक परिणाम भी होंगे।

क्यों असम के मुसलमान, चाहे वे असमिया भाषी हों या बांग्ला भाषी, सबसे अधिक बेचैन हैं? और क्यों वे अपनी बेचैनी ज़ाहिर भी नहीं कर पा रहे हैं? उन्हें भय है कि ऐसा करते ही उन्हें असम विरोधी घोषित कर दिया जाएगा। असमी राष्ट्रवाद अभी विडंबनापूर्ण तरीक़े से हिंदू राष्ट्रवाद का सहयोगी बन गया है। कहना सबका है कि मसला असमी पहचान की रक्षा का है, धर्म से मतलब नहीं। लेकिन क्या वे भारतीय जनता पार्टी द्वारा इस पूरी क़वायद के इस्तेमाल का अन्दाज़ नहीं कर पा रहे? क्या इसने शेष भारत में भी मुसलमानों को और असुरक्षित नहीं कर दिया है?

नगरिकता सूची पर चल रही बहस में नागरिकता, क़ानूनी अस्तित्व, सहकारी जीवन, अप्रवास जैसे प्रश्न उठेंगे। हमें सोचना ही होगा कि जैसे राष्ट्र एक ऐसा फसाना है जिस पर हम सब यक़ीन करते हैं और उसके पात्र बन जाते हैं, वैसे ही नागरिकता भी एक क़ानूनी फसाना है। लोग अपनी ज़िंदगी बिताते हुए सरहदें बनाते हैं और उन्हें पार भी करते हैं। जो यह कहते हैं, सबै भूमि गोपाल की, वे इसका जाप करते हुए बांग्लादेशी या रोहिंग्या सफ़ाई अभियान चलाने की विडंबना पर विचार कर सकें, यह उम्मीद बेमानी है। अगर सारी भूमि गोपाल की है और पूरी धरती कुटुम्ब है, तो कल तक जो आपका पड़ोसी था, उसे बेदख़ल होते देख क्या आप ख़ामोश रहेंगे?

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