क्या सरकार और पुलिस को और अधिक अधिकार देने के लिए लाए गए हैं आईपीसी-सीआरपीसी को बदलने वाले बिल!

आईपीसी (1860), सीआरपीसी (अंतिम बार 1973 में संशोधित) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872) जैसे औपनिवेशिक युग के कानूनों को बदलना जरूरी तो है, लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर सरकार ने इस बिल को मानसून सत्र के आखिरी दिन क्यों पेश किया?

प्रतीकात्मक फोटो (सौशल मीडिया के सौजन्य से)
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उत्तम सेनगुप्ता

यदि केंद्र सरकार 'औपनिवेशिक युग' के कानूनों में सुधार के बारे में गंभीर होती, तो वह उन्हें संसद के मानसून सत्र के पहले दिन पेश करती, जिससे सांसदों को प्रावधानों का अध्ययन करने का समय मिलता। लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को प्रतिस्थापित करने वाले तीन विधेयक अंतिम दिन सत्र के अंत में पेश किए गए।

गौरतलब यह भी है कि विधेयक गृहमंत्री द्वारा पेश किये गये, न कि कानून मंत्री द्वारा। निस्संदेह इन विधेयकों को जांच के लिए गृह मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति को भेजा जाना है और कानूनी बिरादरी के पास संसद की दोबारा बैठक होने तक इसकी खूबी-खामियों पर बहस और चर्चा करने का समय होगा। लेकिन संसदीय समिति या अन्य निकायों द्वारा सुझाए गए संशोधनों, यदि कोई हो, को स्वीकार करना सरकार के पूर्ण विवेक पर निर्भर होगा। वैसे देखा जाए तो सरकार का यह कदम कुछ समझ से परे ही प्रतीत होता है।

इन विधेयकों के शुरुआती अध्ययन से स्पष्ट होता है कि आईपीसी को बदलने वाला विधेयक पुलिस और सरकार को औपनिवेशिक काल की तुलना में और भी अधिक शक्ति प्रदान करता है। मसलन आईपीसी ने पुलिस को 15 दिनों तक आरोपी की हिरासत (पुलिस रिमांड) में रखने की अनुमति दी थी, नए विधेयक में पुलिस के विवेक पर इस अवधि को 60 या 90 दिनों तक बढ़ाने का प्रस्ताव है। इस अवधि को बढ़ाने का स्पष्ट रूप से कोई औचित्य, केस स्टजी या अनुभवजन्य साक्ष्य का हवाला नहीं दिया गया है।

जैसा कि कपिल सिब्बल ने अपनी प्रारंभिक प्रतिक्रिया में बताया है, ऐसा होने की संभावना है कि इस प्रावधान का उपयोग सरकार और पुलिस द्वारा राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किया जाएगा।

आलोचकों ने यह भी कहा कि यदि 'सुधार' पर ध्यान केंद्रित किया गया होता, तो विधेयक नागरिकों के साथ व्यवहार करते समय पुलिस की शक्तियों को प्रतिबंधित करने की कोशिश करते। पहले से ही ऐसी शिकायतें हैं कि पुलिस यातना (टार्चर) को अपराध स्वीकार करने के साधन के रूप में इस्तेमाल करती है। ऐसे भी आरोप लगते रहे हैं कि पुलिस सबूत प्लांट कर देती है। लेकिन विधेयक इन मुद्दों पर खामोश हैं।


इस बात को लेकर भी स्पष्टता नहीं है कि 2020 में महामारी के दौरान ही गठित दिल्ली स्थित विशेषज्ञ समिति ने राज्यों से परामर्श किया था या नहीं। भारत में कानूनों का मसौदा तैयार करने में सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि या कहें कि कमजोरोयं में से एक यह रही है कि कानूनों की आवश्यकता या उनकी तात्कालिकता को उजागर करने के लिए अनुभवजन्य डेटा और अनुसंधान सामने होता ही नहीं है। यानी कोई कानून क्यों बनाया जा रहा है, किस समय बनाया जा रहा है और इसके लिए पर्याप्त रिसर्च या स्टडी की गई है या नहीं, पता ही नहीं होता।

एक मिसाल लेते हैं, भारतीय न्याय संहिता, जो भारतीय दंड अधिनियम की जगह लेगी, उसमें राजद्रोह की धारा या अधिनियम को हटा दिया गया है। दरअसल, सरकार ने इस कानून को रद्द करने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की बेंच को बताया था कि सरकार इस कानून में बदलाव के लिए कदम उठा रही है। इस धारा को अब निरस्त कर दिया गया है लेकिन सरकार के खिलाफ विध्वंसक भाषण, लेखन या कृत्यों के लिए समान या इससे भी अधिक कठोर दंड निर्धारित किए गए हैं। लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं है कि समिति ने वास्तव में राजद्रोह की प्रकृति को समझने के लिए पिछले 10 वर्षों के दौरान दर्ज राजद्रोह के मामलों और आंकड़ों का अध्ययन किया है या नहीं।

इसी तरह नए विधेयक की धारा 195 में देश की 'संप्रभुता, एकता, अखंडता या सुरक्षा को खतरे में डालने' के लिए सजा का उल्लेख है।  इस परिभाषा को जानबूझकर अस्पष्ट रखा गया है और यह आशंका है कि इस धारा का इस्तेमाल पत्रकारों, लेखकों, मीडिया और असहमति जताने वाले लोगों के खिलाफ किया जाएगा।

विधेयकों में कई स्वागत योग्य और प्रगतिशील प्रावधान पेश किए गए हैं, जैसे सजा के रूप में सामुदायिक सेवा (कम्यूनिटी सर्विस) करने का निर्देश, छोटे-मोटे अपराधों के निपटान के लिए मुकदमों की त्वरित और छोटी सुनवाई, आतंकवाद को परिभाषित करना और अगले पांच वर्षों के भीतर हर जिले में एक 'फोरेंसिक बुनियादी ढांचा' स्थापित करने का वादा। लेकिन अच्छे इरादे हमेशा कार्यान्वयन की ओर नहीं ले जाते। इन पांच वर्षों के दौरान दर्ज हुए मामलों और मुकदमों का क्या होगा?


कोई भी कानून तभी तक अच्छा है जब तक उसे लागू करने वाली एजेंसियां अच्छे से लागू करवाएं। जब तक सरकार नागरिकों के साथ शत्रु जैसा व्यवहार करता रहेगा और कानून का चयनात्मक ढंग से उपयोग करता रहेगा, तब तक कोई वास्तविक सुधार संभव नहीं है। हरियाणा का कुख्यात गौरक्षक मोनू मानेसर, जो पिछले दो साल से फरार बताया जा रहा है, को इस हफ्ते एक टीवी चैनल ने सम्मानित किया। ऐसा नहीं है कि आईपीसी में उसे गिरफ्तार करने और दंडित करने का कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन वह अभी भी फरार है।

विशेषज्ञ बार-बार कहते रहे हैं कि आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए सरकार और नागरिक के बीच संबंधों को फिर से परिभाषित करने, पुलिस और न्यायपालिका में कठोर सुधार और व्यापक जेल सुधार की आवश्यकता होगी।

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