क्या जीत के लिए की गई जासूसी: पेगासस बनाने वाली एनएसओ की आनाकानी गहराता शक, जांच हो तो सामने आ जाएगा सच

दबाव तो बढ़ रहा है लेकिन एनएसओ ने अपने ग्राहकों का खुलासा करने से इनकार किया है। जांच हो तभी पता लग सकेगा कि पेगासस खरीदने के लिए क्या सरकार ने टैक्सपैयर्स का पैसा इस्तेमाल किया है या फिर इसे किसी निजी समूह द्वारा राजनीतिक हितों के लिए तो नहीं खरीदा गया?

फोटो : सोशल मीडिया
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उत्तम सेनगुप्ता

जासूसी नमक की तरह है- अगर थोड़ा हो तो स्वाद बढ़ जाए और ज्यादा हो जाए तो जायका खराब कर दे। जिसने भी यह कहा, इससे बेहतर तरीके से बात नहीं कही जा सकती थी। लोगों को बीजेपी समर्थक बता रहे हैं कि एक हद तक जासूसी तो चाणक्य के समय भी हुआ करती थी। नेताओं और बड़े अफसरों द्वारा अपने बेटियों के पुरुष मित्रों अथवा संभावित वर की पृष्ठभूमि के बारे में पता करने के लिए उनकी जासूसी कराने की बात बीच- बीच में सामने आती रही है। और हां, सारे देश एक-दूसरे की जासूसी तो करते ही हैं।

बात जुलाई, 2014 की है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने एक माह से कुछ ही अधिक समय हुआ था। विदेश मंत्रालय ने भारत में अमेरिकी राजदूत को बुलाकर इन खबरों पर विरोध जताया कि अमेरिकी नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) मोदी समेत कई बीजेपी नेताओं की जासूसी करती रही थी। तब विदेश मंत्रालय ने कहा था कि यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। वर्ष 2013 में यूपीए सरकार ने भी अमेरिका से विरोध जताया था जब वह कथित तौर पर वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास और न्यूयॉर्क में भारतीय मिशन की जासूसी करा रहा था। सीआईए ने कैसे रॉ के एक अधिकारी को मिला लिया था और 2004 में भारत से निकलने में उसकी मदद की और उस अधिकारी और उसके निकट संबंधियों को नई पहचान देकर अमेरिका में बसाया, यह भी हमारी याददाश्त में ताजा है।

किस तरह साइबर जासूसी की जा रही है, इसके बारे में पहली बार अंदाजा 2010 में जूलियन असांजे द्वारा गठित विकीलीक्स के दस्तावेज से और फिर 2013 में मिली जब एनएसए के एक कैन्ट्रैक्टर के लिए काम करने वाले एडवर्ड स्नोडेन ने तमाम जानकारी लीक की। स्नोडेन ने हांगकांग जाकर जानकारी सार्वजनिक की जिससे बवाल मच गया। उसने जो तमाम जानकारियां सार्वजनिक कीं, उनसे यह भी साबित हुआ कि अमेरिका जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के फोन को टैप कर रहा था। इस खुलासे का नतीजा यह हुआ कि दो ‘दोस्ताना’ देशों के रिश्तों में महीनों तक खटास रही।

हाल ही में जब नए सूचना प्रोद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने संसद में कहा कि भारत में अवैध सर्विंलांस संभव नहीं, तो या तो वह निपट भोले थे या फिर वह सच को जान-बूझकर छिपा रहे थे। इजरायल के एक पूर्व सैन्य कमांडर शालेव हूलियो ने एनएसओ की स्थापना की जिसने वर्ष 2010 में पेगासस स्पाइवेयर बनाया। पिछले साल एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में शालेव ने कहा, ‘लोगों को नहीं पता कि इंटेलिजेंस का काम होता कैसे है... । यह न तो आसान है और न ही खुशनुमा। इंटेलिजेंस एक गंदा धंधा है जिसमें कदम-कदम पर नैतिक ऊहापोह की स्थिति आती है’। शालेव ने कम-से-कम ईमानदारी से यह बात मान ली लेकिन लगता है कि वैष्णव और भारत सरकार ने रेत में अपने सिर गाड़ रखे हैं और उन्हें वह सब नहीं दिखता जो सबको साफ-साफ दिख रहा है। भारत के गृहमंत्री कहते हैं कि यह भारत को बदनाम करने की साजिश है।


इस मामले में संदेह इसलिए पैदा होता है कि इजरायल का दावा है कि वह इसे केवल सरकारी एजेंसियों को बेचता है और भारत सरकार है कि इसे खरीदने की बात न तो मान रही है और न ही इससे इनकार कर रही है। वैसे, जब इस मामले में सरकार का पक्ष रखने के लिए पूर्वमंत्री रविशंकर प्रसाद को बीजेपी ने सामने किया तो उन्होंने कहा कि अन्य 40 देश भी तो इस स्पाईवेयर का इस्तेमाल कर रहे हैं तो केवल भारत पर निशाना क्यों? रविशंकर प्रसाद का यह बयान इस स्वीकोक्ति के काफी करीब है कि भारत सरकार ने पेगासस को खरीदा। इस बार रविशंकर प्रसाद की जुबान फिसली या नहीं, इसे छोड़ते हुए 2019 की बात करते हैं जब प्रसाद ने इस तरह के सवाल को यह कहते हुए टाल दिया था कि भारत में ‘अवैध सर्विलांस’ जैसा कुछ भी नहीं होता। वह इतने आश्वस्त कैसे हो सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रसाद ठीक ही कह रहे हों और सरकार के भीतर के कुछ तत्व लोगों की निगरानी करा रहे हों? क्या यह संभव है कि कोई सरकारी एजेंसी लाइसेंस खरीदे और इसे किसी बिजनेस घराने को इस्तेमाल के लिए दे दे? इस मामले में जांच से ही सच सामने आ सकता है।

पेगासस की खूबी यह है कि यह चुपचाप और दूर से काम करता है। यह उपयोगकर्ता की जानकारी के बिना उसके स्मार्ट फोन, यहां तक कि एप्पल के आईफोन में भी घुसपैठ कर सकता है। फोन बंद होने पर भी यह फोन के माइक्रोफोन और कैमरे को चालू कर सकता है। यह फोन के संदेशों और तस्वीरों की कॉपी कर सकता है। कोई व्यक्ति कहां जा रहा है, किससे मुलाकात कर रहा है, सब कुछ ट्रैक कर सकता है।

हैकिंग को साबित करने के लिए फोन और उसके डेटा की फोरेंसिक जांच जरूरी है। लेकिन जब पेरिस स्थित गैर-लाभकारी संस्था ‘फॉरबिडन स्टोरीज’ और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दुनिया भर के 50,000 फोन नंबरों को एक्सेस करने की कोशिश की तो वे ऐसा नहीं कर सके। निश्चित ही यह लिस्ट किसी अंदरूनी सूत्र द्वारा लीक की गई जिसमें फोन नंबर के साथ यह जानकारी थी कि उन्हें कब निशाना बनाया गया। स्पाईवेयर के उपयोग का लाइसेंस सीमित अवधि के लिए होता है। विक्रेता को नजर रखनी होती है कि उसका ग्राहक लक्ष्यों की निर्धारित संख्या या फिर समय सीमा को पार न कर जाए। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, पेगासस स्पायवेयर 60 करोड़ रुपये (आठ मिलियन अमेरिकी डॉलर) के शुल्क पर उपलब्ध है और इससे अधिकतम 50 लक्ष्यों पर जासूसी की जा सकती है।

इस सूची में कम-से-कम 1,000 भारतीयों के नाम हैं। दूसरे शब्दों में, जिसने भी इन भारतीयों की जासूसी करने का फैसला किया, उसने इसके लिए 1,200 करोड़ रुपये का भुगतान किया। भारत में कितने लोग या एजेंसियां निगरानी पर इतना पैसा खर्च कर सकती हैं? जब इन लोगों सं संपर्क किया गया तो ज्यादातर ने निजता की वजह से या फिर कुछ और कहकर अपने फोन देने से इंकार कर दिया जिससे उनकी फॉरेंसिक जांच नहीं की जा सकी। यही वजह है कि जांचकर्ता 1,000 भारतीयों की सूची में केवल 300 नंबरों की पहचान कर सके। इनमें से केवल 22 फोन की एमनेस्टी इंटरनेशनल की लैब द्वारा फोरेंसिक जांच कराई जा सकी। उनमें से दस के साथ स्पायवेयर द्वारा ‘निश्चित रूप से’ छेड़छाड़ की गई थी जबकि शेष 12 के परिणाम अनिर्णायक थे।

चूंकि स्पाईवेयर कोई निशान नहीं छोड़ता, केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य से अंदाजा ही लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, कौन-सी विदेशी सरकार चुनाव आयुक्त अशोक लवासा या कांग्रेस नेता राहुल गांधी या भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला और उसके रिश्तेदारों या पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जासूसी करने में दिलचस्पी लेगी?


पब्लिक डोमेन में उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, एनएसओ समूह भी कम संदिग्ध नहीं। रिपोर्टों से पता चलता है कि 2014 में कंपनी को एक अमेरिकी निजी इक्विटी फर्म को 100 मिलियन डॉलर में बेचा गया। 2020 में इसे फिर से एक अरब अमेरिकी डॉलर में एक यूरोपीय इक्विटी फर्म और हुलियो सहित एनएसओ के मूल संस्थापकों को बेच दिया गया। टेक पत्रिकाओं की रिपोर्ट है कि समूह के पास पूर्वी यूरोप, अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों में काम करने वाली कंपनियों का एक संजाल है। बताया जाता है कि एनएसओ कई मुखौटा कंपनियों के माध्यम से काम करता है। इजरायल में इसे क्यूसाइबर टेक्नोलॉजीज, लक्समबर्ग में ओएसवाई टेक्नोलॉजीज और उत्तरी अमेरिका में वेस्टब्रिज के नाम से जाना जाता है।

इसलिए, जब एनएसओ कहता है कि लक्ष्यों की आपत्तिजनक सूची उनकी नहीं है या जब भारत सरकार इस बात की पुष्टि से इनकार करती है कि उसने पेगासस का इस्तेमाल किया है तो वे तकनीकी रूप से सही हो सकते हैं। एनएसओ के एक प्रवक्ता ने हाल ही में एनडीटीवी को बताया कि ‘भारतीय’ सूची उनकी नहीं है। लेकिन एनएसओ को कैसे पता चला कि यह उनकी सूची नहीं है? समूह के परस्पर विरोधी और विरोधाभासी बयानों ने संदेह को कम करने के बजाय बढ़ाया ही है। इसने एक बयान में दावा किया कि कंपनी का अपने ग्राहकों पर कोई नियंत्रण नहीं होता और उसे नहीं पता कि उनके ग्राहक स्पाइवेयर का इस्तेमाल कैसे करते हैं। हालांकि, उसने यह भी दावा किया कि जब भी उसे शिकायतें मिलीं, उसने बारीकी से छानबीन की और कुछ मामलों में सेवा बंद कर दी और दो ग्राहकों को ब्लैकलिस्ट भी किया।

एक और बात पर गौर करें। समूह के सीईओ ने पहले दावा किया कि स्पाइवेयर का उपयोग करने वाले खुफिया संगठनों ने कभी भी ‘ऑपरेशनल विजिबिलिटी’ की अनुमति नहीं दी। फिर भी, वाशिंगटन पोस्ट के स्तंभकार जमाल खशोगी की हत्या के बाद जब ऐसे आरोप लगे कि खशोगी और उनके सहयोगियों को ट्रैक करने के लिए पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल किया गया था, एनएसओ ने आरोपों से इनकार किया। वहीं, यनेटमीडिया को एक लिखित साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, “सिस्टम में सारे रिकॉर्ड हैं और हमारे द्वारा इसकी जांच किए बिना किसी भी लक्ष्य के खिलाफ कार्रवाई असंभव है।” जब तक आप इसके इस्तेमाल करने वाले के अकाउंट की एक-एक गतिविधि पर नजर नहीं रखेंगे ,भला यह दावा कैसे कर सकते हैं ?

अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है लेकिन एनएसओ ने अपने ग्राहकों के नाम का खुलासा करने से इनकार किया है। यह जांच का विषय है कि कहीं इसमें भारत के आम लोगों से वसूले गए टैक्स का पैसा तो नहीं लगा? या फिर इसे किसी निजी बिजनेस समूह या राजनीतिक हितों के लिए अवैध तरीके से तो नहीं खरीदा गया?

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