मृणाल पांडे का लेखः डिजिटल दौर में ताकतवर सरकारों के लिए भ्रष्टाचार छुपाना हुआ नामुमकिन

असांज की दशा देखते हुए दो नई बातें उजागर हुई हैं। हालात अब यह है कि ताकतवर से ताकतवर सरकार के लिए भी अब वर्ल्ड वाइड वेब की नजरों से बचकर किसी तरह की मोटी या महीन राजनीतिक बेइमानियों या संस्थागत भ्रष्टाचार को छुपाना नामुमकिन बन गया है।

फोटोः सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

इतिहास खुद को कई बार दोहराता है। 2010 में भारत-पाक दौरे पर आईं अमेरिका की तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मोहतरमा हिलेरी क्लिंटन ने आतंकवाद के मसले पर इस्लामाबाद यात्रा के दौरान पाकिस्तान को भारत-पाक वार्ता को जल्द सुखद अंजाम देने पर खास बल नहीं दिया। उल्टे अल कायदा और तालिबान को काबू में लाने के लिए एक भारी भरकम चेक जल्द ही उनको देने का वायदा कर कुरैशी–कयानी की खुराफाती जोड़ी की पीठ थपथपा दी, और इस तरह भारत-पाक के बीच शांति वार्ता की रेल फिर पटरी से उतर गई।

इसके हफ्ते भर बाद अचानक जाने-माने अमेरिकी अखबार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने विकीलीक्स के हवाले से अफगानिस्तान युद्ध विषयक एकाधिक झूठ उजागर करने वाली रपटों की ऐतिहासिक ॠंखला छापनी शरू की। गोपनीय सरकारी दस्तावेजों पर आधारित इन खबरों के अनुसार अमेरिकी सरकार ने आतंकवाद निरोध के नाम पर अमेरिका से भरपूर धन उगाहा जिससे पिछवाड़े के रास्ते अल कायदा और तालिबान को लगातार मदद मिली। तब से अब तक दुनिया को स्तब्ध करने वाली ऐसी कई जानकारियां मीडिया के तमाम चर्चित खिलाड़ियों को विकीलीक्स नामक इंटरनेट साइट से मिलीं और यह क्रम आज तक जारी है।

बताया गया कि इस साइट के मूल निर्माता आस्ट्रेलियाई मूल के (स्वीडिश नागरिक) जूलियन असांज थे। उनके साथी कुछ गमुनाम हैकर्स ने अमेरिकी सामरिक शक्ति के मुख्यालय, पेंटागन के कंप्यूटरों से गोपनीय सामरिक और कूटनीतिक जानकारियों की फाइलें उड़ाकर जनहित में पहले 470,000 खुफिया फाइलें सीधे मीडिया में भेजीं और फिर राजनय के उच्चतम स्तरों से जुड़ी 250,000 क्लासिफाइड केबल भी (जिनकी मार्फत राजनयिकों के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था) जारी कर दिए, जिनमें बाद में यूरोप और रूस की सरकारों के भी कई गोपनीय ब्योरे दफन थे।

इसके बाद तमाम देशों की सरकारें हरकत में आईं और असांज को इस ‘गुनाह’ की सजा देने की चेष्टाएं कई स्तरों पर शरू हो गईं। जूलियन पौल असांज को आज भी पूरा यकीन है कि विकीलीक्स ने किसी बुरी नीयत से नहीं, जनहित में ही यह काम तमाम किए। उनकी राय में नेट एक मुक्त दुनिया है, जहां खबरें सीमाओं की बाधा नहीं मानतीं। यह भी, कि एक लोकतंत्र में सरकारी पारदर्शिता जरूरी है। इसलिए सरकारी कामकाज से जुड़ी सूचनाओं का महत्व सरकारी गोपनीयता काननू अथवा अंतरराष्ट्रीय कानूनी सीमाओं के ऊपर ठहरता है।

साल 2010 से अब तक हैकर्स की मदद से उन्होंने अफ्रीका में कुछ बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रदूषित कचरा भेजने और केन्या में व्यापक राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों पर से भी पर्दा उठाया। इस रपट ॠंखला का हर देश में विपक्षी दलों द्वारा जमकर इस्तेमाल किया गया, जिनमें अमेरिका भी शामिल था। लिहाजा अगले अमेरिकी चुनाव में सत्तारूढ़ रहे डेमोक्रेटिक दल की मुखर सदस्या और तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट हिलेरी क्लिंटन लगभग जीत की कगार तक आकर भी अंत में राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन दल के डोनाल्ड ट्रंप से हार गईं।

उसके पक्ष में 2016 में संयुक्त राष्ट्र संगठन ने कहा कि लोकतंत्र के पक्ष में अभिव्यक्ति की आजादी की मुहिम चला रहे असांज को मनमानी तरह से रोकने के लिए ब्रिटेन और स्वीडन को उनको समुचित हर्जाना देना चाहिए। और फिर उसी बरस ताजा विजय की आभा से दमकते डोनाल्ड ट्रंप ने कहा, ‘मैं विकीलीक्स पर फिदा हूं। आई लव विकीलीक्स।’ पर सत्तारूढ सरकारों के लिए खुली सूचना दोधारी तलवार सा बित होती है। आज सत्तारूढ रिपब्लिकन दल विकीलीक्स की साफबयानी से बहुत खफा बताया जाता है।

शुरू में जब कई ताकतवर अंतरराष्ट्रीय दुश्मन बना चुके असांज पर दबाव बढ़ा था, तो पहले उनके देश स्वीडन में अचानक दो महिलाओं ने उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया और उनके खिलाफ वारंट जारी हो गया। असांज ने लगातार उन आरोपों को सिरे से नकारा, पर दबाव और बढ़ने से वह यूरोप में भागे-भागे फिरने लगे और आखिरकार उन्होंने 2012 में लंदन स्थित इक्वाडोर की एंबेसी में शरण ली। इसके बाद मई 2017 में स्वीडन ने तो पुराना केस वापस लेकर फाइल बंद कर दी, पर विडंबना देखिए कि बृहस्पतिवार 10 तारीख को उनको इक्वाडोर ने आगे शरण देने से इनकार करते हए लंदन पुलिस के हाथों सौंप दिया। आशंका है कि जल्द ही उनको अमेरिका भेजा जाएगा जहां की सरकार उन पर लालपीली चल रही है।

कुल मिलाकर असांज की दशा देखते हए दो नई बातें उजागर हुई हैं। और वे आज की ग्लोबल दुनिया में संवेदनशील गोपनीय ब्योरों से भी आगे जाकर सूचनाओं के संकलन, गुप्त ब्योरों को ताड़ने में व्यस्त हैकर्स की अथाह ताकत और हर तरह की खबरों के पलक झपकते सोशल मीडिया पर वायरल हो जाने की संभावनाओं से जुड़ती हैं। हालात अब यह है कि ताकतवर से ताकतवर सरकार के लिए भी अब वर्ल्ड वाइड वेब की नजरों से बचकर किसी तरह की मोटी या महीन राजनीतिक बेइमानियों या संस्थागत भ्रष्टाचार को छुपाना नाममुकिन बन गया है।

यह सच है कि सोशल मीडिया का बड़ा भाग बददिमाग और अशालीन भाषा की हदें पार करने वाला बनता गया है। मगर तमाम सरकारी बंदिशों के बावजूद नई सूचना संचार तकनीकी आज दुनिया भर में किसी भी युद्ध से हुई क्षति, गलत फैसलों के लिए जिम्मेदार सरकारों तथा लोकतंत्र की रक्षा या आतंकवाद निरोध के नाम पर मासूम सिविलियन लोगों के जान-माल की हानि की बाबत तमाम गोपनीय सरकारी ब्योरे जनता को उपलब्ध करा सकती है। यह बात हर सरकार और कॉरपोरेट ताकतों को अपने कुकर्मों पर एक हद तक बांध लगाने को मजबूर भी करती है।

डिजिटल मीडिया आज सिविलियन आबादी के बीच दोतरफा बातचीत का भी एक ताकतवर पुल बन गया है। इसलिए विजुअल खबरों से जहां सरकारें अपना प्रचार कर सकती हैं, वहीं सरकारी दस्तों द्वारा की गई नृशंस हत्याओं के या सिविल आबादी पर कथित सैन्य हमलों के साक्षात् दृश्य दिखाकर तस्वीर का दूसरा रुख भी दिखाया जा सकता है और तानाशाही के खिलाफ जनमत भी पलक झपकते बनाया जा सकता है। यही वजह है कि जब उनको खबर देने वाला विकीलीक्स उनकी खबर ले, तो वह सारे निरंकुश राजनीतिक व्यापारिक संस्थानों को अपना दुश्मन नजर आता है, हालांकि असांज ने बल देकर कहा है कि विकीलीक्स की उजागर की हुई खबरों की सच्चाई शत प्रतिशत साबित हो चुकी है। अभी तक किसी भी सरकार ने उनको नहीं नकारा है।

खोजी मीडिया को जब कहीं से राहत की उम्मीद नहीं रहती, वह न्यायालय की तरफ देखता है। हमारे यहां भी यह हुआ। और शुक्र है कि 2019 के तमाम चुनावी हंगामे के बीच भी हमारी न्यायपालिका ने कुछेक मामलों पर सूचनाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में कुछ स्वस्थ फैसले और वक्तव्य दिए हैं। दक्षिण भारत के एक प्रतिष्ठित अखबार और फिर एक डिजिटल पोर्टल ने हाल में विवादास्पद राफेल सौदे की बाबत कुछ गोपनीय दस्तावेज जनहित में छाप कर हड़कंप मचा दिया था।

सरकार ने अखबार पर मानहानि का आरोप लगाते हुए कहा कि यह दस्तावेज बिना सरकारी स्वीकृति के, सरकारी गोपनीयता काननू के विरुद्ध प्राप्त किए गए थे इसलिए वे कानूनन जायज नहीं। इस रपट को लेकर तीन प्रतिष्ठित नागरिक- अरुण शौरी, प्रशांत भूषण और यशवंत सिन्हा जनहित में सर्वोच्च न्यायालय गए। मुकदमे के दौरान सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल ने कहा कि सरकार चुराये ब्योरों तथा देश के गोपनीयता काननू (ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट) को भंग करना और एतदर्थे दंडनीय मानती है। रक्षा सौदों की जानकारी सूचनाधिकार के दायरे के परे है।

इस पर तीन जजों की बेंच (जिसमें खद मुख्य न्यायमूर्ति श्री गोगोई भी थे) ने कहा कि उनकी राय में यह ब्योरे संविधान द्वारा धारा 19 ए की तहत दिए गए जानकारी के मूल अधिकार से जुडे हैं इसलिए अदालत उनको मान्य समझकर उन पर गौर करेगी।

दरअसल जटिल मामलों पर सूचनाएं पाना और जनता तक उनको भरोसेमंद तरीके से पहुंचा पाना दो अलग तरह के काम हैं। सिर्फ एक्टिविस्ट या सिर्फ पत्रकार बनकर घरेलू तरीकों से नाजुक सूचनाओं का संकलन और उन पर व्यवस्थित लेखन नहीं हो सकता। लिहाजा इस नाजुक दौर में गंभीर खबरों को सही तरह से जनता तक पहुंचा पाने के लिए अब ऐसे विश्वस्त अनुभवी मीडिया मददगार भी चाहिए जो विचारधारा विशेष या आत्मछवि चमकाने की बजाय धंधई तालमेल के साथ सही जानकारियां जनहित में उजागर कर सकें।

सुधी पाठक यहां तक आते-आते समझ चुके होंगे कि किसी अखबार की निष्ठा तथा साख का आज भी कैसा केंद्रीय महत्व है। पर क्या हम सोच सकते हैं कि अगर आगे कभी विकीलीक्स जैसा स्रोत किसी भारतीय प्रकाशन को इस तरह की संवेदनशील गोपनीय ब्योरे देने को चुने तो हमारे यहां क्या हिंदी मीडिया में उनका कोई उपयुक्त वाहक उपलब्ध होगा?

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